Tag: ईजा

गाँव का इकलौता ‘नौह’ वो भी सूख गया

गाँव का इकलौता ‘नौह’ वो भी सूख गया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—53 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पानी और 'नौह' की because बात मैंने पहले भी की है लेकिन आज उस नोह की बात जिसे मैंने डब-ड़बा कर छलकते हुए  देखा है. उसके बाद गिलास से पानी भरते हुए और कई सालों से बूँद-बूँद के लिए तरसते हुए भी देखा है. पहाड़ ये हमारे छोटे से गाँव का इकलौता नौह था.but इसके बारे में तब कहा जाता था कि "सब जग पाणी बिसिक ले जालो, खोपड़ी नौह हन तो मिलोले" (अगर सब जगह पानी सूख भी जाएगा तो खोपड़ा वालों के नौह में तो मिलेगा ही). अब इसे दुर्भाग्य कहिए या सौभाग्य कि उस इलाके में सबसे पहले इसी नौह का पानी सूखा. एक बार सूखा तो फिर कभी लौटा भी नहीं. पानी तब पानी लाने के लिए शाम में ही जाना होता था.so ईजा घास लेने जाते हुए कहा करती थीं- "आज दी गगर भरि दिये हां पाणिल" (आज पानी से दो गगरी भर देना). हम तुरंत हाँ..हाँ..कह देते थे. शाम को एक "हलाम" (कु...
वो “सल्डी सुंगनाथ” और देवीदत्त मासीवाल का फ़ोटो स्टूडियो

वो “सल्डी सुंगनाथ” और देवीदत्त मासीवाल का फ़ोटो स्टूडियो

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—52 प्रकाश उप्रेती तब कैमरे का फ्लैश चमकना भी चमत्कार लगता था. कैमरा देख लेना ही चाक्षुष तृप्ति का चरम था. देखने के लिए हम सभी बच्चों की भीड़ इकट्ठा हो जाया करती थी और कैमरे को लेकर हम becauseअपना गूढ़ ज्ञान आपस में साझा करते थे. हम सबकी बातों में यह बात कॉमन होती कि- "हां यार कैमरा गोर कदयूं" (कैमरा गोरा कर देता है). इसके बाद जिसमें फेंकने का जितना सामर्थ्य होता वह उतनी बातें बनाता था. जबकि कैमरा हम सब ने दूर से ही देखा होता था. कैमरा गाँव में तब फ़ोटो खिंचाने के कुछ ही मौके होते थे. so उनमें से एक गाँव की 'दीदियों' (बहनों) द्वारा शादी के लिए फोटो खिंचवाने का होता था. एकदम चटक रंग के सूट में फ़ोटो खिंचवाया जाता था जिसमें अक्सर पीछे का बैकग्राउंड हरा, नीला और आसमानी होता था. फ़ोटो एकदम सावधान की मुद्रा में खिंचवाया जाता था. उसमें कोई भाव या पोज़ नहीं...
जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—50 प्रकाश उप्रेती हुडुक बुबू ने नीचे ही टांग रखा था लेकिन किसी ने उसे उठा कर ऊपर रख दिया था. बुबू ने हुडुक झोले से निकाला और हल्के से उसमें हाथ फेरा, वह ठीक था. उसके बाद वापस झोले में रख दिया. so हुडुक रखने के लिए एक काला सा थैला था. उसी में but रखा रहता था. बुबू के हुडुक पर कोई हाथ लगा दे यह उनको मंजूर नहीं था. तब ऐसे किस्से भी बहुत प्रचलित थे कि मंत्रों से कोई हुडुक या जगरी की आवाज़ बंद कर देता है. वो कहते थे कि "आवाज मुनि गे". जागरी जागरी अंदर लगनी थी. देवताओं के आसन लग चुके थे. बुबू और मेरे लिए आसन लगा हुआ था. एक आदमी सबको पिठ्या लगा रहा था. मुझे भी उन्होंने पिठ्या लगाया और 10 रुपए दक्षिणा दी. मैंने उन्हें सीधे अपने झोले में रखे तौलिए के किनारे में बांध दिया. अब एक तरफ देवताओं के आसन लगे हुए थे और ठीक उनके सामने मैं, बुबू और दो 'ह्वो' becau...
जागर, बूबू और मैं

जागर, बूबू और मैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—49 प्रकाश उप्रेती आस्था, विश्वास का केंद्र बिंदु है. पहाड़ के लोगों की आस्था कई तरह के विश्वासों पर टिकी रहती है. ये विश्वास जीवन में नमक की तरह घुले होते हैं. ऐसा ही "जागर" को लेकर भी है. because "जागर" आस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर भी है. 'हुडुक' सिर्फ देवता अवतार करने का वाद्ययंत्र नहीं है बल्कि पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान का अटूट अंग है. आज इसी 'जागेरी', 'हुडुक' के साथ मैं, और 'बुबू' (दादा). जागरी बुबू जागरी लगाते थे और मैं उनके सानिध्य में सीख रहा था. ईजा को मेरा जागरी लगाना पसंद नहीं था. तब 'जगरी' (जागेरी लगाने वाला) को लेकर समाज में एक सम्मान का भाव तो था लेकिन दूसरों की हाय, पाप, और गाली खाने की गुंजाइश भी हमेशा रहती थी. ईजा को लगता था कि बेटे का भविष्य 'जगरी' बन जाने से तबाह हो जाएगा. but उनको मेरा शहर में पढ़ना या बर्तन धोना मंजूर था ...
‘सरूली’ जो अब नहीं रही

‘सरूली’ जो अब नहीं रही

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—48 प्रकाश उप्रेती अविष्कार, आवश्यकता की उपज है. इस उपज का इस्तेमाल मनुष्य पर निर्भर करता है. पहाड़ के लोगों की निर्भरता उनके संसाधनों पर है. आज अविष्कार और आवश्यकता की उपज “थेऊ” because और “सरूली” की बात. 'थेऊ' पहाड़ के जीवन का अनिवार्य हिस्सा है. खासकर गाय-भैंस पालने वाले लोगों के लिए तो इसका जीवनदायिनी महत्व है. ईजा के 'छन' का तो यह, महत्वपूर्ण सदस्य था. ज्योतिष 'थेऊ' मतलब लकड़ी का एक ऐसा because प्याऊ जिसके जरिए नवजात बछड़े और 'थोरी' (भैंस की बच्ची) को दूध व तेल पिलाया जाता था. बांस की लकड़ी का बना यह प्याऊ अपनी लंबाई और गहराई में छोटा-बड़ा होता था. अंदर से खोखला और आगे से तराश कर पतला व  थोड़ा समतल बनाया जाता था ताकि तेल- दूध गिरे भी न और थोरी के मुँह में भी आ जाए. ज्योतिष ईजा का 'गुठयार' (गाय-भैंस बांधने वाली जगह) भैंस के बिना कभी नहीं रहा. ईज...
इनसे खेत आबाद रहे, हमसे जो बर्बाद हुए

इनसे खेत आबाद रहे, हमसे जो बर्बाद हुए

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। कोरोना because महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ क...
‘खोपड़ा’ यही तो नाम मेरे गाँव का है

‘खोपड़ा’ यही तो नाम मेरे गाँव का है

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—46 प्रकाश उप्रेती आज बात 'खोपड़ा' की. ये मेरे 'गाँव' का नाम है. गाँव मेरे लिए सिर्फ एक शब्द नहीं बल्कि पूरा जीवन है. गाँव सुनते ही चेहरा खिल उठता है. आँखों के सामने 'वारे-पारे' (आमने-सामने) बाखे because और हमारी 'बीचेक कुड़ी' (बीच वाला घर) तैरने लगती है. गाँव सुनते ही 'भ्यार-भतेर' (अंदर-बाहर) जाती ईजा, पानी लेने 'नोह' जाते 'नन' (बच्चे), घास काटने जाती 'काखि'(चाची), 'भौजि' (भाभी) और 'स्यार पन' खेतों में काम करती 'ज्येठी' (ताई) और 'अम्मा' (दादी) नज़र आते हैं. ज्योतिष आँखों ने जब देखना शुरू किया तो उस गाँव को देखा जिसके 'भ्योव' घसियारियों से गूंजते, स्यार आपसी बातचीत से चहकी रहती, 'खो' बच्चों के खेलने से और घर बुबू की 'हड़कत:' से डोलता था. पूरा गाँव अलग-अलग तरह की आवाजों से गूँजता रहता था. शाम को कोई पानी लेने डब्बा बजाते हुए जाता, कोई बाजार जाने के लि...
बाजार ने कौतिक की रौनक भी छीन ली

बाजार ने कौतिक की रौनक भी छीन ली

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—45 प्रकाश उप्रेती आज बात "कौतिक" की. साल भर जिसका इंतजार बच्चे, बूढ़े, बड़े सबको रहता था, वह कौतिक था. कौतिक मतलब "मेला" हुआ. कौतिक की तब इतनी हाम थी कि परदेश गए लोग भी because कौतिक पर घर पहुंच जाते थे. मासाब कौतिक के दिन हाज़िरि लगाकर छोड़ देते थे. ईजा कौतिक ले जाने और जाने देने के नाम पर हफ़्ते भर पहले से, जी भर काम करवा लेती थीं. कौतिक तब सिर्फ बाजार नहीं था. ज्योतिष हमारे यहाँ केदार में कौतिक लगता था. कौतिक जाने की इतनी हौंस होती थी कि रात से मुँह धोकर तैयार हो जाते थे. एक बार तो कौतिक के लिए पहनकर जाने वाले कपड़ों की रात में ही because रिहर्सल हो जाती थी- "ईजा देख यो ठीक छै" (माँ देखना ये ठीक है). ईजा- "हो होय, ठीक छौ, राते बति किले फरफराट पड़ रहो त्यर" (हां, हाँ, ठीक है, रात से क्यों बैचेन हो रखा है). ईजा एक नज़र देख लेती थीं. हम मिर्च वाले सरसों...
बचपन की यादों को जीवंत करती किताब

बचपन की यादों को जीवंत करती किताब

पुस्तक-समीक्षा
 ‘मेरी यादों का पहाड़’ डॉ. अरुण कुकसाल ‘आ, यहां आ. अपनी ईजा (मां) से आखिरी बार मिल ले. मुझसे बचन ले गई, देबी जब तक पढ़ना चाहेगा, पढ़ाते रहना.’ उन्होने किनारे से कफन हटाकर मेरा हाथ भीतर डाला और बोले ‘अपनी ईजा को अच्छी तरह छू ले.’ मैंने ईजा (मां) के पेट पर अपनी हथेली रखी. किसी ने कहा ‘भा डरल (बच्चा डरेगा). क्या कर रहे हो?’ बाज्यू (पिता) ने कुछ नहीं सुना. मुझसे बोले, ‘कितना कहा, बुला देता हूं, बुला देता हूं. नहीं मानी. कहती रही, उसकी पढ़ाई का हर्जा हो जाएगा. पढ़ाने ही की धुन थी. नहीं बुलाने दिया. कल-परसों भी मैंने कहा-तू बचती नहीं है, शायद. बुला देता हूं. फिर वही जवाब. कल मैंने जबरदस्ती जवाब भेजा.’............ ‘जाने कितना पढ़ाना चाहती थी. पढ़ाने का ही सुर था उसे इजू.... ‘देखो तो ? खुद कभी इस्कूल नहीं गई. फिर भी दो-दो बेटों का पढ़ा गई’ (पृष्ठ-196). ....................... ‘मैं फूट पड़ा, ‘...
गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

गुड़ की भेलि में लिपटे अखबार का एक दिन

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—44 प्रकाश उप्रेती आज किस्सा- “ईजा और अखबार” का.  ईजा अपने जमाने की पाँच क्लास पढ़ी हुई हैं. वह भी बिना एक वर्ष नागा किए. जब भी पढ़ाई-लिखाई की बात आती है तो ईजा 'अपने जमाने' because वाली बात को दोहरा ही देती हैं. हम भी कई बार गुणा-भाग और जोड़-घटाने में ईजा से भिड़ पड़ते थे लेकिन ईजा चूल्हे से “कोय्ली” (कोयला) निकाल कर जमीन में लिख कर जोड़-घटा, गुणा-भाग तुरंत कर लेती थीं. अक्सर सही करने के बाद ईजा की खुशी किसी अबोध शिशु सी होती थी. हम कहते थे- “क्या बात ईजा, एकदम सही किया है”. ईजा फिर अपने जमाने की पढ़ाई वाली बात दोहरा देती थीं. ज्योतिष तब अखबार से कोई लेना-देना नहीं था. अक्सर “गुड़ की भेली” अखबार में लपेट कर आती थी. इतना ही अखबार की उपयोगिता ईजा समझती थी लेकिन जब भी शाम को केदार के बाज़ार because जाते थे तो देखते थे कि कुछ लोग चाय पी रहे होते, कुछ हुक्का ...