Tag: आयुर्वेद

अध्ययन: आयुर्वेदिक औषधि में पाये गये रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के गुण

अध्ययन: आयुर्वेदिक औषधि में पाये गये रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के गुण

सेहत
चूहों पर अंतरराष्ट्रीय मनकों के आधार पर चौदह रोग प्रतिरोधको को चिन्हित कर वाज्ञानिकों द्वारा मैसूर में किया गया अध्ययन. आयुर्वेद द्वारा रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के दावे गाहे बेगाहे किए जाते रहे है लेकिन उक्त तथ्य को सिद्ध कर दिखाया है मैसूर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित चिकित्सकीय अनुसंधान केंद्र में कार्यरत वैज्ञानिकों के एक समूह ने जिन्होंने चौदह रोग प्रतिरोधक के स्थापित मानको पर एक आयुर्वेदिक औषधि के प्रभाव का अध्ययन किया. अट्ठाईस दिनों तक चलने वाले इस परियोजना में पाया गया कि आयुर्वेदिक औषधि के सेवन के उपरांत चूहों में इम्यूनोग्लोब्लिन ए, एम और जी की मात्रा बढ़ जाती है तथा साथ ही न्यूट्रोफ़िल नामक रक्त के सफ़ेद कणो में रोगों से लड़ने हेतु चेन बनाने के गुण विकसित हो रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास होता है. इसी प्रकार इस अध्ययन में आयुर्वेदिक औषधि का उल्लेखनीय असर नेचुरल किलर सेल,...
उत्तराखंड : पेनक्रिएटाइटिस जैसे घातक रोग के लिए चिकित्सा में आयुर्वेद को मिला पहला पेटेंट

उत्तराखंड : पेनक्रिएटाइटिस जैसे घातक रोग के लिए चिकित्सा में आयुर्वेद को मिला पहला पेटेंट

देहरादून
भारत सरकार के पेटेंट ऑफिस ने नवाजा 20 वर्षों के लिए पेटेंट विश्व में आयुर्वेद के द्वारा पेनक्रिएटाइटिस के सफल इलाज की विश्वसनीयता को स्थापित करने का अभूतपूर्व प्रयास 70 के दशक में मेरठ निवासी वैद्य चंद्र प्रकाश जी द्वारा पारद - तांबा - गंधक के योग से रस शास्त्र के गंधक जारण के सिद्धांत का पालन कर बनाई गई थी यह औषधि उनके पुत्र पद्मश्री से सम्मानित वैद्य बालेंदु प्रकाश ने उठाया था उक्त औषधि को परिष्कृत एवं वैज्ञानिक आधार देने का बीड़ा लगभग 2000 रोगियों की चिकित्सा और देश के नामी संस्थाओं के साथ कार्य करके जुटाए गए थे इसकी संरचना, सुरक्षा और प्रभाव संबंधित आंकड़े वर्ष 2014 में उत्तराखंड सरकार के विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय ने किया था सहयोग, जिसके तहत दाखिल किया गया था पेटेंट का आवेदन   हिमांतर ब्यूरो, देहरादून क्रॉनिक पेनक्रिएटाइटिस शरीर में स्थित पेनक्रियाज या अग्ना...
मूली की ‘थिचवानी’: एक स्वादिष्ट पहाड़ी व्यंजन 

मूली की ‘थिचवानी’: एक स्वादिष्ट पहाड़ी व्यंजन 

अल्‍मोड़ा, हिमालयन अरोमा
डॉ. मोहन चंद तिवारी अपने गांव जोयूं जब भी जाता हूँ तो मूली की थिच्वानी मुझे बहुत पसंद है. हमारे पड़ोस के गांव मंचौर की मूली की तो बात ही और है. दिल्ली जब आता हूं तो पहाड़ की मूली लाना कभी नहीं भूलता. सर्दियों में तो यह मूली की थिच्वानी स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभकारी है. मूली तो मैदानों की भी बहुत लाभकारी है किंतु पहाड़ों की शलगमनुमा मूली की बात ही कुछ और है. इसमें हिमालय की वनौषधि के गुण समाविष्ट रहते हैं जो मैदानों में कैमिकल खाद से पैदा हुई मूली में नहीं मिलते. हमारे इलाके मंचौर की मूली इस दृष्टि से भी बहुत प्रसिद्ध है कि वहां की ताजी-ताजी मूली मिलती बड़ी मुश्किल से है क्योंकि पैदा ही बहुत कम होती है.आज मैं अपने इस लेख द्वारा पहाड़ी मूली से बनने वाली सब्जी 'थिचवानी' पर कुछ जानकारी शेयर करना चाहुंगा. कुमाऊं के स्थानीय व्यंजनों में एक स्थानीय कहावत है मनुवौ रवॉट, झुंगरौ भात, मुअकि थेच...
हिमालयीय वनस्पति ‘र् वेंण’ सुहागिनों की सिंदूर-फली

हिमालयीय वनस्पति ‘र् वेंण’ सुहागिनों की सिंदूर-फली

देहरादून
डा. मोहन चंद तिवारी संस्कृत- 'कम्पिल्लक'  हिंदी- 'कमीला',  Mallotus philippensis लगभग आठ वर्ष पूर्व जम्मू-कश्मीर हिमालय में मां वैष्णो देवी के दर्शन करने के दौरान शिवखोड़ी की लगभग 4 कि.मी.की पैदल यात्रा करने का अवसर मिला तो वहां जंगलनुमा रास्ते में कम्पिल्लक के वृक्षों में लटकते 'कमीला' के because सिन्दूरी फलों को देखकर अपने गांव जोयूं, उत्तराखंड की वह याद ताजा हो आई जब मैं बचपन में अपने चाचा जी के साथ 'र् वेंण' के वृक्षों में लगे फलों से लाल रंग का पराग टटकाया करता था. चाचा जी ने बताया था कि इस फल के लाल पराग को माथे पर तिलक करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है. पुराने जमाने में इसी रोली से स्त्रियां अपने सुहाग का सिन्दूर भरती थी.हमारे पाली पछाऊं में इसे 'र् वेंण' का फल कहा जाता है. हरताली शिव खोड़ी के मार्ग में पड़ने वाले मन्दिर मैं ठहरे एक साधु महात्मा ने यह बताकर मेरी जिज्ञासा को और ...
गिलोय : एक बहुउपयोगी बेल जिसके हैं सैकड़ों उपयोग

गिलोय : एक बहुउपयोगी बेल जिसके हैं सैकड़ों उपयोग

अभिनव पहल, हिमालयी राज्य
जे. पी. मैठाणी सेहत के लिए अमृत है गिलोय! गिलोय- गिलोय को अंग्रेजी में टिनोस्पोरा कोरडीफ़ोलिया, गढ़वाली में गिले और मराठी में गुड़ची बोलते हैं. संस्कृत में गिलोय का नाम अमृता है. यह एक बेल है और आंशिक परजीवी के रूप में दूसरे पेड़ों पर लिपट कर बढ़ती है. लेकिन गिलोय को क्यारियों और गमलों में भी उगाया जा सकता है. गिलोय की बेल को मकान या चारदीवारी पर पिलर और तारों के सपोर्ट से भी आगे बढ़ाया जा सकता है. यह बेहद सरलता से उगाई जाने वाली बेल है. जिसको उगाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत और खाद-पानी की आवश्यकता नहीं होती. आयुर्वेदिक विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तराखण्ड में 800-1000 मीटर से ऊपर नीम के पौधे जाड़ों में बच नहीं पाते हैं. लेकिन पहाड़ों में 1600 मीटर की ऊँचाई तक सड़क किनारे बकैण जिसको गढ़वाल में डैकण भी कहते हैं देखा गया है, इसलिए डैकण के पेड़ों पर भी गिलोय को विकसित किया जा सकता है. नीम और डैक...