Tag: आमा

बामणों के घर में खुखरी थोड़ी होने वाली हुई

बामणों के घर में खुखरी थोड़ी होने वाली हुई

संस्मरण
पहाड़ की शैतानियां-1 ललित फुलारा पहाड़ की स्मृतियों के नाम पर मेरे पास शैतानियों की भरमार है. उट-पटांग किस्से हैं, जिनको स्मरण कर बस हंसी आती है. यकीन नहीं होता, बचपन इतना जिद्दी, उजड्ड, उद्दंड so और असभ्य रहा. जिद्दीपन अब भी है, पर शैतानियां साथ छोड़ गई हैं. उद्दंडता के बाद बचपन में पड़ने वाली ईजा की मार और गालियां अब भी आंचल-सी लिपटी महसूस होती हैं. उंगलियों से ईजा की धोती के पल्लू को लपेटकर सिसकियां भरने so वाले दृश्य जेहन में उभर आते हैं. ईजा जितनी बार गुस्सा होती, सिर फोड़ने और कमर तोड़ने की ही बात करती! पहाड़ की संस्कृति में इन दो गालियों का अपना ही रसास्वादन है. विरला ही होगा जिसकी ईजा ने उस पर इन गालियों का स्नेह न बरसाया हो. कमर कमर के मामले में, मैं सौभाग्यशाली रहा पर सिर बहुत बार फूटा. ऐसा फूटा हुआ है कि अगर कपाल के बाल दान कर दिए जाएं, तो घाव के निशान प्रामाणिकता के...
वो पीड़ा… यादें बचपन की

वो पीड़ा… यादें बचपन की

संस्मरण
एम. जोशी हिमानी छुआछूत किसी भी समाज की मानसिक बर्बरता का द्योतक है. हमारे समाज में छुआछूत का कलंक सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है. आज के तथाकथित सभ्य समाज में भी यह बहुत गहरे so तक मौजूद है. उसके खात्मे की बातें मात्र किताबी हैं, समय पड़ने पर छुआछूत का नाग अपने फन उठा लेता है. ताव अपने बाल्यकाल में दूसरों की इस पीड़ा but को महसूस कर पाने के कारण ही शायद मेरे अंदर छुआछूत का भाव बचपन में ही खत्म हो गया था. हालांकि जिस माहौल में मेरी परवरिश हुई थी उसमें मुझे छुआछूत का कट्टर समर्थक बन जाना चाहिए था. शायद कुछ मेरा प्रारब्ध रहा होगा कि मैं वैसी नहीं बन पाई. ताव उच्च कुल में जन्म लेने के बावजूद छुआछूत की पीड़ा को मैंने बहुत नजदीक से देखा है. भले ही मैंने उस दंश को नहीं झेला, लेकिन मैं उसकी गवाह तो रही हूं. किसी संवेदनशील इंसान के because लिए किसी बुराई का गवाह बनना भी उसको भोगने जितना ह...
झोला भर बचपन

झोला भर बचपन

संस्मरण
हम याद करते हैं पहाड़ को… या हमारे भीतर बसा पहाड़ हमें पुकारता है बार-बार? नराई दोनों को लगती है न! तो मुझे भी जब तब ‘समझता’ है पहाड़ … बाटुइ लगाता है…. और फिर अनेक असम्बद्ध से दृश्य-बिम्ब उभरने लगते हैं आँखों में… उन्हीं बिम्बों में बचपन को खोजती मैं फिर-फिर पहुँच जाती हूँ अपने पहाड़… रेखा उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. हम यहां पर अपने पाठकों के लिए रेखा उप्रेती द्वारा लिखित ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ नाम की पूरी सीरिज प्रकाशित कर रहे हैं… आज प्रस्तुत है उनकी 15वीं किस्त ... ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—15 रेखा उप्रेती अभाव किसे कहते हैं हम नहीं जानते थे. जो था उसी को जानते और उसके होने से भरा-पूरा था अपना बचपन. भौतिक संसाधनों से शून्य, सुविधाओं की दृष्टि से महा विपन्न लेकिन प्रकृति की अनमोल नेमतों और प...
सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की पुरोधा-आमा 

सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की पुरोधा-आमा 

संस्मरण
आमा के हिस्से का पुरुषार्थ डॉ गिरिजा किशोर पाठक  कुमाऊँनी में एक मुहावरा बड़ा ही प्रचलित है "बुढ मर, भाग सर" (old dies after a certain age at the same times he transmits rituals, and traditions) यानी कि जो बुज़ुर्ग होते हैं वे सभ्यता, सांस्कृतिक परंपराओं के स्थंभ होते हैं. इन्हीं से अगली पीढ़ी को सभ्यता, संस्कृति परंपराओं का अदृश्य हस्तांतरण (invisible transmission) होता है. इसी को ‘भाग सर’ कहते है.  परंपरा, संस्कृति, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों की रक्षा, विनम्रता, त्याग, शील, मर्यादा और मानवीय व्यवहार हर मनुष्य अपने परिवार से सीखता है. इन सबके मिश्रण से ही मनुष्य के अंदर संस्कारों का अंकुरण होता है. मुझे याद है रामकथा सुनाते समय सीता की व्यथा का जो वर्णन आमा ने मेरे मन मे भर दिया उसे मैं तुलसी, कंब, वाल्मीकि, फादर कामिल बूलके की रामकथाओं को पढ़ने के बाद भी नहीं निकाल पाया. आम...
बाखली वहीं छूट जाती है हमेशा की तरह

बाखली वहीं छूट जाती है हमेशा की तरह

संस्मरण
नीलम पांडेय “नील” तब भी आसपास जंगली कविताएं और चित्त उदगार करने वाले मौसम अपनी दस्तक देना शुरु कर देते थे. तब भी मैं प्रकृति को महसूस करना चाहती थी शायद. पर प्रकृति ही एक जादू कर देती और मैं कहीं दूर विचरण के लिए निकल पड़़ती. ये बहती हवा, ये पेड़, आकाश, मिट्टी और दूब की हरी घास जैसे मेरे साथ—साथ बड़े हो रहे थे. तब जाने क्यों ऐसा लगता था, सब कुछ जीवन का ही हिस्सा है, कुछ भी बुरा नही लगता था. किन्तु आज एक जगह बैठकर स्मृतियों में सब कुछ लौटा ला रही हूं जैसे कि पनघट वाले आम के बगीचे और जंगलों से घास लाती या मंगरे के धारे तथा सिमलधार वाले नौले से पानी भरती औरतें अपनी चिरपरिचित आवाज में हुलार भर रही है... जैसे ओ रे पनियारियों, या ओ रे घसियारियों और उनकी ये आवाज पहाड़ों से टकराकर उनके पास वापस आ जाती है.  मुझे जाने ऐसा क्यों लगता था कि पनघट के गावँ से नीचे के गावों में रेडियों में एक पुराना...
माकोट की आमा   

माकोट की आमा   

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—5 रेखा उप्रेती माकोट की आमा (नानी) को मैनें कभी नहीं देखा. देखती कैसे!! जब मेरी माँ मात्र दो-ढाई बरस की थी तभी आमा चल बसी. नानाजी ने दूसरा विवाह किया नहीं…. पर फिर भी माकोट में मेरी एक आमा थी जिसे मैंने कभी नहीं देखा… मेरा माकोट बहुत दूर था और पहाड़ों में तब आवागमन के साधन न के बराबर थे. मेरे होने तक माँ का मायके से रिश्ता बस चिट्ठी-पत्री तक सिमट कर रह गया था. जब तक मैं इस लायक हुई कि माँ को लेकर अपने ननिहाल जा सकी तब तक आमा दुनिया से विदा ले चुकी थी. मेरी माँ की चाची थी वह, माँ काखी कहती थी और अपनी काखी के किस्से अक्सर हमें सुनाया करती. आमा नि:संतान थी, यह कहना बहुत बड़ा झूठ होगा क्योंकि जिस प्रेम और अपनत्व से माँ अपनी काखी को याद करती, कौन कहेगा कि काखी की कोख जाई नहीं थी. माँ की यादों और बातों में बसी अपनी उस अनदेखी आमा को मैंने अपने इतने करीब पाया कि...