Tag: अनार

प्रयोग ही परिवर्तन के संवाहक बनेगें

प्रयोग ही परिवर्तन के संवाहक बनेगें

साहित्‍य-संस्कृति
इन्‍द्र सिंह नेगी ये प्रयोग कितना सफल-असफल होता है ये भविष्य के गर्भ में है लेकिन चलना शुरू करेगें तभी कहीं ना कहीं पहुंच पायेगें ये लगभग चार वर्ष पहले की बात है जेठ का समय रहा और हमारे दो परिवारों के बच्चे सौरभ, कनिष्क, कुलदीप,  शुभम एवं रवि समर जेस मोटर मार्ग जो because लखस्यार से निकल कर फिलहाल कचटा गांव में समाप्त हो रहा है, से लगी हमारी पारिवारिक so जमीन जो बजंर हो चुकी थी ने गड्ढे खोदने शुरू किए. एक दिन मुझे भी इन्होने अपने इस कार्य को देखने के लिए आने को कहा तो मैं भी समय निकाल कर चल दिया, रस्ते में जब हम साथ-साथ खेतों की तरफ बढ़ने लगे तो मैंने पूछा कि तुम लोगों को ये गड्ढे खोदने की क्या सूझी तो so कहने लगे कि जरूरी नहीं पढ़ाई लिखाई करने के बाद नौकरी लग ही जायेगी इसलिए जरूरी है इस तरह के कामों को भी साथ-साथ आगे बढ़ाया जाए. मैंने कहा ये तो बहुत दूरदर्शिता पूर्ण बात कह दी तु...
बरसात के मौसम में करें फल पौधों का रोपण

बरसात के मौसम में करें फल पौधों का रोपण

समसामयिक
डॉ. राजेंद्र कुकसाल बरसात के मौसम में मुख्यत: आम, अमरूद, अनार, आंवला, लीची, कटहल,अंगूर तथा नीम्बू वर्गीय फल पौधों का रोपण किया जाता है. उद्यान लगाने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखा जाना आवश्यक हैं. स्थल का चुनाव- वर्षाकालीन फलदार पौधों के बगीचे समुद्रतल से 1500 मी॰ ऊंचाई तक लगाये जा सकते हैं ढाल का भी ध्यान रखें पूर्व व उत्तरी ढाल वाले स्थान पश्चमी व दक्षिणी ठाल वाले स्थानौ से ज्यादा ठंडे होते हैं जो क्षेत्र हिमालय के पास हैं वहां पर आम, अमरूद, लीची के पौधों का रोपण व्यवसायिक दृष्टि से लाभकर नहीं रहते हैं, ऐसे स्थानों पर नींबू वर्गीय फलदार पौधों से उद्यान लगाने चाहिए. उद्यान लगाने से पूर्व यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस फल की ज्यादा मांग हो उसी फल के उद्यान लगाये जायें. उद्यान सडक के पास होना चाहिये यदि यह सम्भव न हो तो यह आवश्यक है कि उद्यान में पहुंचने के लिए रास्ता सु...
हिटो फल खाला…

हिटो फल खाला…

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—14 रेखा उप्रेती “कल ‘अखोड़ झड़ाई’ है मास्साब, छुट्टी चाहिए.” हमारा मौखिक प्रार्थना-पत्र तत्काल स्वीकृत हो जाता. आखिर पढ़ाई जितनी ही महत्वपूर्ण होती अखोड़ झड़ाई… गुडेरी गद्ध्यर के पास हमारे दो अखरोट के पेड़ थे, बहुत पुराने और विशालकाय. ‘दांति अखोड़’ यानी जिन्हें दांत से तोड़ा जा सके. दांत से तो नहीं, पर एक चोट पड़ते ही चार फाँक हो जाते और स्वाद अनुपम. गाँव में ‘काठि अखोड’ के बहुत पेड़ थे. काठि माने काठ जैसे, जिन्हें तोड़कर उनकी गिरी निकालना मशक्कत माँगता. अक्सर उन्हें आलपिन से कुरेद कर खाना पड़ता… पर हमारे पेड़ के अखोड़ दांति थे और दूधिया भी. हम कंटीली झाड़ियों के आस-पास और गधेरे के बहते पानी के नीचे दुबक गए अखरोट खोजकर ऐसे प्रसन्न होते जैसे समंदर से नायब मोती ढूँढ निकाले हों. दोपहर तक यह प्रक्रिया चलती रहती, फिर भारी-भारी डलिया उठाए सब घर की ओर जाती चढ़ाई पर हाँफते...