माकोट की आमा
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—5
रेखा उप्रेती
माकोट की आमा (नानी) को मैनें कभी नहीं देखा. देखती कैसे!! जब मेरी माँ मात्र दो-ढाई बरस की थी तभी आमा चल बसी. नानाजी ने दूसरा विवाह किया नहीं….
पर फिर भी माकोट में मेरी एक आमा थी जिसे मैंने कभी नहीं देखा…
मेरा माकोट बहुत दूर था और पहाड़ों में तब आवागमन के साधन न के बराबर थे. मेरे होने तक माँ का मायके से रिश्ता बस चिट्ठी-पत्री तक सिमट कर रह गया था. जब तक मैं इस लायक हुई कि माँ को लेकर अपने ननिहाल जा सकी तब तक आमा दुनिया से विदा ले चुकी थी.
मेरी माँ की चाची थी वह, माँ काखी कहती थी और अपनी काखी के किस्से अक्सर हमें सुनाया करती. आमा नि:संतान थी, यह कहना बहुत बड़ा झूठ होगा क्योंकि जिस प्रेम और अपनत्व से माँ अपनी काखी को याद करती, कौन कहेगा कि काखी की कोख जाई नहीं थी. माँ की यादों और बातों में बसी अपनी उस अनदेखी आमा को मैंने अपने इतने करीब पाया कि...