Tag: डॉ. मोहन चंद तिवारी

उत्तराखंड राज्य के लिए भुलाया नहीं जा सकता दिल्लीवासियों का संघर्ष

उत्तराखंड राज्य के लिए भुलाया नहीं जा सकता दिल्लीवासियों का संघर्ष

देहरादून
उत्तराखंड राज्य के स्थापना दिवस (9 नवम्बर) पर विशेष याद आ रहे हैं डॉ. नारायण दत्त पालीवाल डॉ. मोहन चंद तिवारी आज 9 नवम्बर को उत्तराखंड because राज्य का 21वां स्थापना दिवस है। हम सभी उत्तराखंडवासियों के लिए चाहे वह उत्तराखंड राज्य में रह रहे नागरिक हों, जो एक स्वतंत्र राज्य के अहसास से जीवन यापन कर रहे हैं, या फिर राज्य की बदहाली के कारण दूर दराज के मैदानी इलाकों में मजबूरी से गुजर बसर कर रहे प्रवासी जन हों,सबके लिए अत्यन्त ही हर्ष और गर्व का मौका है कि आज के दिन लंबे संघर्ष और अनेक लोगों के बलिदान के बाद नए राज्य का हमें हमारा संविधान सम्मत अधिकार मिला। प्रवासी यह गर्व करने का दिन इसलिए भी है क्योंकि so आज हमें एक स्वतंत्र राज्य के अलावा अपनी एक नई पहचान भी मिली थी। वरना तो उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्य के किसी कोने में हम भी अपनी पहचान और लोक संस्कृति के लिए संघर्ष कर रहे होते ...
मुनिया चौरा की ओखलियां मातृपूजा के वैदिक कालीन अवशेष

मुनिया चौरा की ओखलियां मातृपूजा के वैदिक कालीन अवशेष

इतिहास
डॉ. मोहन चंद तिवारी मेरे लिए दिनांक 28 अक्टूबर, 2020 का दिन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इस दिन  रानीखेत-मासी मोटर मार्ग में लगभग 40 कि.मी.की दूरी पर स्थित सुरेग्वेल के निकट मुनिया चौरा में because पुरातात्त्विक महत्त्व की महापाषाण कालीन तीन ओखलियों के पुनरान्वेषण में सफलता प्राप्त हुई. सुरेग्वेल से एक कि.मी.दूर मुनिया चौरा गांव के पास खड़ी चढ़ाई वाले अत्यंत दुर्गम और बीहड़ झाड़ियों के बीच पहाड़ की चोटी पर गुमनामी के रूप में स्थित इन ओखलियों तक पहुंचना बहुत ही कठिन और दुस्साध्य कार्य था.अलग अलग पत्थरों पर खुदी हुई ये महापाषाण काल की तीन ओखलियां चारों ओर झाड़ झंकर से ढकी होने के कारण भी गुमनामी के हालात में पड़ी हुई थीं. दशक मैं पिछले कई वर्षों से नवरात्र में जब भी आश्विन नवरात्र पर अपने पैतृक निवास स्थान जोयूं आता हूं तो इन ओखलियों तक पहुंचने के लिए प्रयासरत रहा हूं. किन्तु एकदम खड़ी, बीहड़ b...
जोयूं उत्तराखंड में मातृपूजा की वैदिक परम्परा

जोयूं उत्तराखंड में मातृपूजा की वैदिक परम्परा

लोक पर्व-त्योहार
डॉ. मोहन चंद तिवारी समूचे देश में शारदीय नवरात्र का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. दुर्गा सप्तशती में इसे वार्षिक देवी पूजा की संज्ञा दी गई है.उत्तराखंड के द्वाराहाट क्षेत्र में जालली के निकट स्थित so जोयूं ग्राम आदिकालीन मातृ उपासकों का एक ऐसा ग्राम है,जहां आज भी शारदीय नवरात्र में प्रतिवर्ष मां जगदम्बा की सामूहिक रूप से अखंड जोत जलती है और अष्टमी एवं दशमी की वार्षिक पूजा का पर्व विशेष रूप से मनाने की परंपरा भी रही है. पलायन हालांकि यह ग्राम भी पलायन के अभिशाप के कारण उत्तराखंड के अन्य ग्रामों की भांति बदहाली के दौर से गुजर रहा है.  पिछले तीन चार सालों में सड़क चौड़ीकरण के दौरान पीडब्‍ल्‍यूडी so विभाग ने जोयूं मार्ग में पड़ने वाले वन वृक्षों को नष्ट कर दिया है और गांव में जाने के लिए पुश्तैनी मार्ग भी बेरहमी से तोड़ दिए हैं. ग्रामसभा की उपेक्षा के कारण नागरिक सुविधाओं का यहां सर्वथा...
वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता

वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-25 डॉ. मोहन चंद तिवारी पिछले लेख में बताया गया है कि वराहमिहिर के भूगर्भीय जलान्वेषण के सिद्धांत आधुनिक विज्ञान और टैक्नौलौजी के इस युग में भी अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी हैं, जिनकी सहायता से because आज भी पूरे देश की जलसंकट की समस्या का हल निकाला जा सकता है तथा अकालपीड़ित और सूखाग्रस्त इलाकों में भी हरित क्रांति लाई जा सकती है. इस लेख में वराहमिहिर के जलवैज्ञानिक सिद्धांतों की प्रासंगिकता और वर्त्तमान सन्दर्भ में उनकी उपयोगिता के निम्नलिखित विचार बिंदु विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- जलविज्ञान 1. सर्वप्रथम, वराहमिहिर so का जलविज्ञान के क्षेत्र में मौलिक योगदान यह है कि उन्होंने विश्व के जलवैज्ञानिकों को इस सत्य से अवगत कराया कि भूमि के अन्दर भी सैकड़ों ऐसी जल की शिराएं सक्रिय रहती हैं जिनके कारण कृत्रिम प्रकार के बनाए गए जलाशयों में पूरे वर्ष भूमिगत जल का भंडारण ह...
मुनिया चौरा की कपमार्क ओखली उत्तराखंड के आद्य इतिहास का साक्ष्य

मुनिया चौरा की कपमार्क ओखली उत्तराखंड के आद्य इतिहास का साक्ष्य

इतिहास
डॉ. मोहन चंद तिवारी एक वर्ष पूर्व दिनांक 11अक्टूबर, 2019 को जालली-मासी मोटरमार्ग पर स्थित सुरेग्वेल से एक कि.मी.दूर मुनियाचौरा गांव में मेरे द्वारा खोजी गई कपमार्क ओखली मेरी because नवरात्र शोधयात्रा की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है. महापाषाण काल की यह  कपमार्क मेगलिथिक ओखली उत्तराखंड के पाली पछाऊं क्षेत्र के सांस्कृतिक इतिहास को उजागर करने वाली एक महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक अवशेष भी है. बुदापैश्त इस ओखली के मिलने का घटनाक्रम भी बहुत रोचक है. राष्ट्रीय इतिहास लेखन की चिंताओं को लेकर नवरात्र यात्रा because के दौरान मैंने जब दिनांक 11 अक्टूबर, 2019 को कपमार्क ओखलियों का सर्वेक्षण करने के लिए 'मुनिया की धार' जाने का मन बनाया और वहां सुरेग्वेल जाकर मैंने अनेक स्थानीय लोगों से ओखलियों के रास्ते के बारे में पूछा तो उन्हें कोई ओखली की जानकारी नहीं थी. मैं फिर भी अपनी पुरानी स्मृतियों के सहारे अ...
“बृहत्संहिता में जलाशय निर्माण की पारम्परिक तकनीक”

“बृहत्संहिता में जलाशय निर्माण की पारम्परिक तकनीक”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-22 डॉ. मोहन चंद तिवारी पिछले लेखों में बताया गया है कि एक पर्यावरणवादी जलवैज्ञानिक के रूप में आचार्य वराहमिहिर द्वारा किस प्रकार से वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही करते हुए, जलाशय के उत्खनन because स्थानों को चिह्नित करने के वैज्ञानिक तरीके आविष्कृत किए गए और उत्खनन के दौरान भूमिगत जल को ऊपर उठाने वाले जीवजंतुओं के बारे में भी उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण जानकारियां दी गईं. जलविज्ञान जलविज्ञान के एक प्रायोगिक और प्रोफेशनल उत्खननकर्त्ता के रूप में वराहमिहिर ने भूगर्भीय कठोर शिलाओं के भेदन की जिन रासायनिक विधियों का निरूपण किया है,वे वर्त्तमान जलसंकट के because इस दौर में परम्परागत जलस्रोतों के लुप्त होने की प्रक्रिया और उनको पुनर्जीवित करने की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.यानी हम जब इन नौलों और जल संस्थानों को पुनर्जीवित करने का संकल्प ले रहे हैं तो हमारे लिए...
“वराहमिहिर के अनुसार दीमक की बांबी से भूमिगत जलान्वेषण”

“वराहमिहिर के अनुसार दीमक की बांबी से भूमिगत जलान्वेषण”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-17 डॉ. मोहन चंद तिवारी वराहमिहिर ने भूमिगत जल को खोजने के लिए वृक्ष-वनस्पतियों के साथ साथ भूमि के उदर में रहने वाले मेंढक, मछली, सर्प, दीमक आदि जीव-जन्तुओं को निशानदेही का butआधार इसलिए बनाया है क्योंकि ये सभी जीव-जन्तुओं को आद्रता बहुत प्रिय है और अपने जीवन धारण के लिए ये भूमिगत जल की नाड़ियों को सक्रिय करते हुए जल का स्तर सदा ऊपर उठाए रखते हैं. आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी दीमक से जुड़ी वराहमिहिर की जलवैज्ञानिक मान्यताओं पर अनुसन्धान करते हुए इन्हें सत्य पाया है. वराहमिहिर (12मार्च, 2014 को ‘उत्तराखंड संस्कृत अकादमी’, but हरिद्वार द्वारा ‘आई आई टी’ रुडकी में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों और जलविज्ञान के अनुसंधानकर्ता विद्वानों के समक्ष मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य ‘प्राचीन भारत में जलविज्ञान‚ जलसंरक्षण और जलप्रबंधन’ से सम्बद्ध ‘भारतीय जलविज्ञान’ पर संशोधित लेख “द...
“वराहमिहिर के अनुसार वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही से भूमिगत जल की खोज”

“वराहमिहिर के अनुसार वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही से भूमिगत जल की खोज”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-16 डॉ. मोहन चंद तिवारी प्राचीन काल के कुएं, बावड़ियां, नौले, तालाब, because सरोवर आदि जो आज भी सार्वजनिक महत्त्व के जलसंसाधन उपलब्ध हैं, उनमें बारह महीने निरंतर रूप से शुद्ध और स्वादिष्ट जल पाए जाने का मुख्य कारण यह है कि इन जलप्राप्ति के संसाधनों का निर्माण हमारे पूर्वजों ने वराहमिहिर द्वारा अन्वेषित जलान्वेषण की पद्धतियों के अनुसार किया था. वराहमिहिर का पर्यावरणमूलक जलान्वेषण विज्ञान भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति हेतु न केवल भारत अपितु विश्वभर में कहीं भी उपयोगी हो सकता है. जैसा कि मैने अपनी पिछली पोस्टों में स्पष्ट किया है कि भारतीय जलविज्ञान, but अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को समझे बिना अधूरा ही है. भारतीय जलवैज्ञानिक वराहमिहिर ने भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने के लिए वनस्पतियों और भूमिगत जीव-जंतुओं की निशानदेही स...
विकृत इतिहास चेतना की भेंट चढ़ता ‘खतड़ुवा’ पर्व

विकृत इतिहास चेतना की भेंट चढ़ता ‘खतड़ुवा’ पर्व

लोक पर्व-त्योहार
पशुधन की कुशलता की कामना का पर्व  है 'खतडुवा' डॉ. मोहन चंद तिवारी 'कुमाऊं का स्वच्छता अभियान से जुड़ा 'खतडुवा' because पर्व वर्षाकाल की समाप्ति और शरद ऋतु के प्रारंभ में कन्या संक्रांति के दिन आश्विन माह की प्रथमा तिथि को मनाया जाने वाला एक सांस्कृतिक लोकपर्व है. अन्य त्योहारों की तरह 'खतड़ुवा' भी एक ऋतु से दूसरी ऋतु के संक्रमण का सूचक है. प्रारंभ से ही यह कुमाऊं, गढ़वाल व नेपाल के कुछ क्षेत्रो में मनाया जाने वाला पारंपरिक त्यौहार है. कुमाऊं 'खतड़ुवा' शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या but “खातड़ि” शब्द से हुई है. कुमाऊं में 'खातड़' यानी रजाई-गद्दे को कहा जाता है. चौमास में सिलन के कारण ये सभी रजाई-गद्दे आदि बिस्तर सिल जाते हैं. इसलिए खतुड़वे के दिन प्रातःकाल ही घर की सभी वस्तुओं को इस दिन धूप दिखाकर सुखाया जाता है. मास गौरतलब है कि अश्विन मास की शुरुआत so(सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में ...
ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मांड चेतना से अनुप्रेरित पितर अवधारणा 

ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मांड चेतना से अनुप्रेरित पितर अवधारणा 

साहित्‍य-संस्कृति
एक दार्शनिक चिंतन डॉ.  मोहन चंद तिवारी  'ऐतरेय ब्राह्मण' में सोमयाग सम्बन्धी एक सन्दर्भ वैदिक कालीन पितरों की ब्रह्मांड से सम्बंधित आध्यात्मिक अवधारणा को समझने की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है ब्राह्मण "अन्यतरोऽनड्वान्युक्तः स्यादन्यतरो विमुक्तोऽथ राजानमुपावहरेयुः. यदुभयोर्विमुक्तयोरुपावहरेयुः पितृदेवत्यंbecause राजानं कुर्युः. यद्युक्तयोरयोगक्षेमःbut प्रजा विन्देत्ताः प्रजाःso परिप्लवेरन्. योऽनड्वान् विमुक्तस्तच्छालासदां प्रजानां रूपं यो becauseयुक्तस्तच्च क्रियाणां, ते ये युक्तेऽन्ये butविमुक्तेऽन्य उपावहरन्त्युभावेव ते क्षेमयोगौ soकल्पयन्ति." -ऐ.ब्रा.1.14 ब्राह्मण उपर्युक्त सोमयाग प्रकरण में सोमलता because को यज्ञ वेदी तक दो बैलों (अनड्वाहौ) से जुते शकट (गाडी) में ढोकर लाया गया है. तभी यह धर्मशास्त्रीय प्रश्न उठाया गया है कि सोम को शकट से उतारने से पहले एक बैल (बलीव...