“शहीदों की निशानियों पर बदहाली की धूल”
विजय भट्ट
जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की.
इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की.
कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे.
हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की.
शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो.
जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की.
भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी. ये दौर था वर्ष 1930 के अगस्त माह के दूसरे सप्ताह का. जब चंद्रशेखर "आजाद", हजारीलाल, रामचंद्र, छैलबिहारी लाल, विश्वम्भरदयाल और दुगड्डा निवासी उनके साथी क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत दिल्ली से गढ़वाल की ओर चल पड़े. यह सभी भवनी सिंह रावत के दुगड्डा के पास नाथूपुर गांव जा रहे थे. कोटद्वार में रेल से उतर कर सभी दुगड्डा के लिए प्रस्थान करते हैं. दिन का तीसरा प्रहर बीत रहा था. शाम के समय सीला नदी पार कर जंगल के रास्ते सभी आगे बढ़ रहे थे. सुहाने मौसम में पकड़ंडी पर चलते हुए आजाद अपने प्रिय उक्त गीत को गुनगुना रहे ...