Tag: कुमाऊँ

सबको स्तब्ध कर गया दिनेश कंडवाल का यों अचानक जाना

सबको स्तब्ध कर गया दिनेश कंडवाल का यों अचानक जाना

संस्मरण
भूवैज्ञानिक, लेखक, पत्रकार, प्रसिद्ध फोटोग्राफर, घुमक्कड़, विचारक एवं देहरादून डिस्कवर पत्रिका के संस्थापक संपादक दिनेश कण्डवाल का अचानक हमारे बीच से परलोक जाना सबको स्तब्ध कर गया. सोशल मीडिया में उनके देहावसान की खबर आते ही उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से लेकर हर पत्रकार एवं आम लोगों द्वारा उन्हें अपने—अपने स्तर और ढंग से श्रद्धांजलि दी गई. हिमांतर.कॉम दिनेश कंडवाल को श्रद्धासुमन अर्पित करता है. कंडवाल जी का जाना हम सभी के लिए बेहद पीड़ादाय है. उनको विनम्र अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि… मनोज इष्टवाल पहली मुलाक़ात 1995....... स्थान चकराता जौनसार भावर की ठाणा डांडा थात. गले में कैमरा व एक खूबसूरत पहाड़ी महिला के साथ “बिस्सू मेले” में फोटो खींचता दिखाई दिया यह व्यक्ति. गले में लटका कैमरा Nikon F-5 . मैं अचम्भित था कि चकराता में यह जापानी, चीनी या फिर कोरियन व्यक्ति कैसे आया व इनके सम्पर्...
पप्पू कार्की: सुरीली आवाज का जादूगर

पप्पू कार्की: सुरीली आवाज का जादूगर

संस्मरण
चारु तिवारी हम लोग उन दिनों राजधानी गैरसैंण आंदोलन के लिये जन संपर्क करने पहाड़ के हर हिस्से में जा रहे थे. हमारी एक महत्वपूर्ण बैठक हल्द्वानी में थी. बहुत सारे साथी जुटे. कुमाऊं क्षेत्र के तो थे ही गढ़वाल के दूरस्थ क्षेत्रों से भी कई साथी आये थे. हमारे हल्द्वानी के साथी सीए सरोज आनंद जोशी ने कहा कि बैठक शुरू होने से पहले कुछ गीत गा लेंगे. हम अपने कार्यक्रमों को जनगीतों से ही शुरू भी करते हैं. उन्होंने कहा कि मैं कुछ अच्छे गाने वालों से बात करता हूं. बैठक शुरू होने से पहले हारमोनियम के साथ गीत बजा- ‘पहाडा ठंडो पांणी, सुण कसि मीठी वाणी छोड़न नी लागनी... हाय... छोड़न नी लागनी.’ वह पूरी तरह गीत में डूब कर. लय, सुर, मिठास और भाव-भंगिमा के साथ गाया गीत आज भी स्मृतियों में ज्यों का त्यों है. लगता है कहीं आसपास गीत गा रहा है पप्पू. उसमें शालीनता प्रकृति प्रदत्त थी. बहुत कोमल और बहुत उन्...
रामलीला पहाड़ की

रामलीला पहाड़ की

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—6 रेखा उप्रेती रंगमंच की दुनिया से पहला परिचय रामलीला के माध्यम से हुआ. हमारे गाँव ‘माला’ की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी उस इलाके में. अश्विन माह में जब धान कट जाते, पराव के गट्ठर महिलाओं के सिर पर लद कर ‘लुटौं’ में चढ़ बैठते तो खाली खेतों पर रंगमंच खड़ा हो जाता. उससे कुछ दिन पहले ही रामलीला की तालीम शुरू हो चुकी होती. देविथान में एक छोटी-सी रंगशाला जमती. सोमेश्वर से उस्ताद जी हारमोनियम लेकर आते और गीतों का रियाज़ चलता. सभी भूमिकाएँ पुरुष ही निभाते… डील-डौल के साथ-साथ अच्छा गाने की प्रतिभा तय करती कि कौन किसका ‘पार्ट खेलेगा’. छोटी छोटी लडकियाँ सिर्फ सखियों की भूमिका निभातीं. मेरी दीदियाँ अपने-अपने समय में कभी राधा, कभी कृष्ण, कभी गोपी बनकर रामलीला के पूर्वरंग का सक्रिय हिस्सा बन चुकी थीं. मैं सिर्फ दर्शक की भूमिका में रही. पूर्वरंग के अलावा दो अन्य स्थलों पर स...
जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए 'लॉक डाउन' ने सभी को 'वर्क फ्राम होम' के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीवन क...