Tag: ईजा

कैद होते जंगलों के बीच पतरोल का आतंक

कैद होते जंगलों के बीच पतरोल का आतंक

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—33 प्रकाश उप्रेती आज बात- "पतरौ" और जंगलात की. 'पतरौ' का मतलब एक ऐसा व्यक्ति जिसे सरकार ने ग्राम -प्रधान के जरिए हमारे जंगलों की रक्षा के नाम पर तैनात किया हुआ था. रक्षा भी हमसे और वह भी हमारे जंगलों की. धीरे-धीरे हमें पता चला कि रक्षा की आड़ में हमारे जंगलों पर सरकारी कब्जा हो गया. अब सारे जंगलों को पत्थरों की दीवारों से कैद किया जा रहा था. कैद जंगल एकदम "चिड़ियाघर"(कितना विरोधाभाषी नाम है) की तरह लग रहे थे. हमारे घर के बाहर कदम रखते ही जंगल था. अब तक वो हमारा और हम उसके थे. एक दिन 15-20 लोग आए और उन्होंने हमारे 'छन' (गाय-भैंस-बैल बांधने की जगह) के पास से 'खोई' (दीवार) देना शुरू कर दिया. अब वह जंगल, उसी के पत्थरों से कैद हो रहा था. हम नीचे खड़े होकर बस देख रहे थे. तब तक ये बात गाँव में फैल चुकी थी कि सरकार का ऑर्डर आया है- "अब सब जंगों में खोई चीणि...
एक दौर ऐसा भी था- गुजरे जमाने की चिट्ठी-पत्री का

एक दौर ऐसा भी था- गुजरे जमाने की चिट्ठी-पत्री का

संस्मरण
भुवन चन्द्र पन्त गुजरे जमाने के साथ ही कई रवायतें अतीत के गर्भ में दफन हो गयी,  इन्हीं में एक है- चिट्ठी-पत्री. एक समय ऐसा भी था कि गांव में पोस्टमैंन आते ही लोगों की निगाहें उस पर टिक जाती कि परदेश में रह रहे बच्चों अथवा रिश्तेदारों की कुशल क्षेम वाला पत्र पोस्टमैन ला रहा होगा. खाकी यूनिफार्म में सिर पर खाकी रंग की ही नुकीली टोपी, जिसमें आगे की ओर एक लाल पट्टी लगी होती, तथा कन्धे पर पोस्ट आफिस का ही एक विशेष बैग लटका होता. अपने इलाके में पोस्टमैन खूब इज्जत पाता था, हर कोई घर आने पर उसे बिना चाय पिलाये घर से नहीं लौटाता. अगर मनीआर्डर लाया हो तो आवभगत पक्की. लाने वाले पत्र के मजमून पर पोस्टमैन के साथ व्यवहार होता, अगर अच्छी खबर लाता तो ग्रामीणों से खूब इज्जत बटोरता, लेकिन यदि कोई बुरी खबर वाला समाचार लाता तो लोगों की नजरों से हमेशा के लिए खटक जाता. शायद यही बात प्रख्यात कथाकार शैलेश मटिय...
च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!

च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!

लोक पर्व-त्योहार
डॉ. मोहन चंद तिवारी आज श्रावण संक्रांति के दिन हरेले का शुभ पर्व है. हमारे घर में नौ दिन पहले आषाढ़ के महीने में बोए गए हरेले को आज प्रातःकाल श्रावण संक्रांति के दिन काटा गया. कल रात हरेले की गुड़ाई की गई  उसे पतेशा भी गया.हरेला पतेशने के कुछ खास मंत्र होते हैं,जो हमें याद नहीं इसलिए 'सर्व मंगल मांगल्ये' इस देवी के मंत्र से हम हरेला पतेश देते हैं.   इस बार पिछले साल की तरह हरेले की पत्तियां ज्यादा बड़ी और चौड़ी नहीं हुई, मौसम की वजह से या अच्छी मिट्टी की वजह से कोई भी कारण हो सकता है. कोरोना काल भी इस हरेले के लिए संकटपूर्ण रहा,जितने उत्साह से इसे मनाया जाना था वह सब नहीं हो सका. प्रातःकाल हरेला काटे जाने के बाद मेरी पत्नी ने सबसे पहले हमारे इष्टदेव के मंदिर में मां दुर्गा और इष्टदेव ग्वेल सहित सभी कुल देवताओं और मुकोटी देवताओं को हरेला चढ़ाया. उसके बाद घर-परिवार की सबसे बड़ी और वरिष्ठ...
च्यला देवी थान हैं ले द्वी बल्हड़ निकाल दिए

च्यला देवी थान हैं ले द्वी बल्हड़ निकाल दिए

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—32 प्रकाश उप्रेती आज बात-"उमि" की. कच्चे गेहूँ की बालियों को आग में पकाने की प्रक्रिया को ही 'उमि' कहा जाता था. गेहूँ कटे और उमि न पके ऐसा हो ही नहीं सकता था. उमि पकाने के पीछे का एक भाव 'तेरा तुझको अर्पण' वाला था. साथ ही गेहूँ कटने की खुशी भी इसमें शामिल होती थी. गेहूँ काटना तब एक सामूहिक प्रक्रिया थी. गाँव वाले मिलकर एक -दूसरे के 'ग्यों' (गेहूँ) काटते थे. बाकायदा तय होता था कि "भोअ हमर ग्यों काट ड्यला, आघिन दिन त्यूमर" (कल हमारे गेहूँ काट देंगे, उसके अगले दिन तुम्हारे). सुबह से लेकर शाम तक सब खेत में ही रहते थे. वहीं सबके लिए खाना-पानी-चाय जाती थी. 'पटोक निसा' (खेत की दीवार की तरफ) बैठकर सब साथ में खाते थे. गाँव में जिसकी भी भैंस दूध देने वाली होती थी उनके वहाँ से छाँछ आ जाती थी. छाँछ पीने के बाद ईजा लोग बोलते थे- "गोअ तर है गो, त्यूमर भैंस रोज...
झोला भर बचपन

झोला भर बचपन

संस्मरण
हम याद करते हैं पहाड़ को… या हमारे भीतर बसा पहाड़ हमें पुकारता है बार-बार? नराई दोनों को लगती है न! तो मुझे भी जब तब ‘समझता’ है पहाड़ … बाटुइ लगाता है…. और फिर अनेक असम्बद्ध से दृश्य-बिम्ब उभरने लगते हैं आँखों में… उन्हीं बिम्बों में बचपन को खोजती मैं फिर-फिर पहुँच जाती हूँ अपने पहाड़… रेखा उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. हम यहां पर अपने पाठकों के लिए रेखा उप्रेती द्वारा लिखित ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ नाम की पूरी सीरिज प्रकाशित कर रहे हैं… आज प्रस्तुत है उनकी 15वीं किस्त ... ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—15 रेखा उप्रेती अभाव किसे कहते हैं हम नहीं जानते थे. जो था उसी को जानते और उसके होने से भरा-पूरा था अपना बचपन. भौतिक संसाधनों से शून्य, सुविधाओं की दृष्टि से महा विपन्न लेकिन प्रकृति की अनमोल नेमतों और प...
अम्मा का वो रेडियो

अम्मा का वो रेडियो

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—31 प्रकाश उप्रेती आज बात- “आम्क- रेडू” (दादी का रेडियो) की. तब शहरों से गाँव की तरफ रेडियो कदम रख ही रहा था. अभी कुछ गाँव और घरों तक पहुँचा ही था. परन्तु इसकी गूँज और गुण पहाड़ की फ़िज़ाओं में फैल चुके थे. इसकी रुमानियत ‘रूडी महिनेक पौन जसि’ (गर्मी के दिनों की ठंडी हवा) थी. क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े सब इसकी गिरफ्त में थे. ‘अम्मा’ (दादी) के लिए यह एक नई चीज थी जिसके बारे में पहले उन्होंने सिर्फ सुन भर रखा था. प्रत्यक्ष दर्शन का यह पहला अवसर था. अम्मा का ज्यादा समय घर पर ही बीतता था. ईजा घर के बाहर का काम देखती थीं तो अम्मा घर पर हमारी रखवाली करती थीं. एक बार बौज्यू (पिता जी) दिल्ली से आए तो बोलता हुआ यन्त्र ले आए. घर में सबको बताया-"इहें रेडू कनि"(इसे रेडियो कहते हैं). उस रेडू को जानने और समझने की जितनी ललक हम में थी उससे कहीं कम अम्मा में भ...
दीमक, मिट्टी और म्यर पहाड़

दीमक, मिट्टी और म्यर पहाड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—30 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'धुड़कोटि माटेक'. मतलब दीमक के द्वारा तैयार मिट्टी की. पहाड़ में बहुत सी जगहों पर दीमक मिट्टी का ढेर लगा देते हैं. एक तरह से वह दीमक का घर होता है लेकिन दीमक उसे बनाने के बाद बहुत समय तक उसमें नहीं रहते हैं. बनाने के बाद फिर नया घर बनाने चल देते हैं. वह मिट्टी बहुत ही ठोस और मुलायम होती थी. कुछ ही ऐसी जगहें होती थीं जहां दीमक मिट्टी का ढेर लगाते थे. अमूमन वो जगहें वहाँ होती थीं, जहाँ धूप कम पड़ती हो, सीलन हो या कटे हुए पेड़ की जड़ों के आस-पास. हमारे गाँव में आसानी से 'धुड़कोटि माट' नहीं मिलता था. ईजा बहुत दूर 'भ्योव' (जंगल) के पास एक 'तप्पड' (थोड़ा समतल बंजर खेत) से 'धुड़कोटि माट' लाती थीं. घर 'लीपने' (पोतना) के लिए मिट्टी चाहिए होती थी. ईजा महीने दो महीने में एक बार गोठ, भतेर लीपती थीं. 'देहे' (देहरी) चूल्हा,  और 'उखोअ' (ओ...
चौमासेक गाड़ जैसी…

चौमासेक गाड़ जैसी…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—29 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'सडुक' (सड़क) और 'गाड़' (नदी) की. हमारा गाँव न सड़क और न ही नदी के किनारे है. सड़क और नदी से मिलने के मौके तब ही मिलते थे जब हम दुकान, 'ताहे होअ बहाने'(नदी के करीब के खेतों में हल चलाने) और 'मकोट (नानी के घर) जाते थे. हमारे कुछ खेत जरूर सड़क और नदी के पास थे लेकिन ईजा ने शुरू से ही इन दोनों के प्रति मन में भय बैठा रखा था. बाकी रहा-सहा भय उन कहानियों ने पैदा कर दिया जो हमने गांवों वालों के साथ-साथ ईजा व 'अम्मा' से सुनी थीं. कुछ नदी में डूबने और डुबाने के किस्से तो कुछ नदी के ऊपर बने पुल में बच्चों की बलि देने के थे. सड़क हमको आकर्षित जरूर करती थी लेकिन गाडियाँ डराती भी थीं. खासकर भयंकर आकार वाले 'ठेल्य' (ट्रक). उनका आगे का हिस्सा बहुत ही डरावना होता था. साथ ही तेज निकलती कार और झूलती हुई जीप से भी डर लगता था. सड़क पर सिर्फ ...
घुल्यास की दुनिया

घुल्यास की दुनिया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—28 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'घुल्यास' की. घुल्यास मतलब एक ऐसी लकड़ी जो पहाड़ की जिंदगी में किसी बड़े औजार से कम नहीं थी. लम्बी और आगे से मुड़ी हुई यह लकड़ी खेत से जंगल तक हर काम में आगे रहती थी. बगीचे से आम, माल्टा, और अमरूद की चोरी में इसका साथ हमेशा होता था. इज़्ज़त ऐसी की इसे नीचे नहीं बल्कि हमेशा पेड़ पर टांगकर ही रखा जाता था. ईजा इससे इतने काम लेती थीं कि हमारे पेड़ पर कम से कम चार-पांच अलग-अलग कद-काठी, लकड़ी व वजन के घुल्यास हमेशा टंगे रहते थे. हम भी सूखी लकड़ी लेने ईजा के साथ-साथ जाते थे. ईजा कहती थीं- "हिट म्यर दघे, मैं कच लकड़ काटूल तू उनों पन बे सूखी लकड़ चाहे ल्याले". हम भी ईजा के साथ चल देते थे. घुल्यास के लिए दाड़िम, भिमु, तिमूहुँ, गौंत, गीठी और मिहो की लकड़ी अच्छी मानी जाती थी. इसका कारण इन पेड़ों का मजबूत होना था. घुल्यास के लिए लकड़ी का मजबूत...
बाघ जब एकदम सामने आ गया

बाघ जब एकदम सामने आ गया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—27 प्रकाश उप्रेती आज किस्सा 'बाघ' का. बाघ का हमारे गाँव से गहरा नाता रहा है. गाँव में हर किसी के पास बाघ के अपने-अपने अनुभव और क़िस्से हैं. हर किसी का बाघ से एक-दो बार तो आमना -सामना हुआ ही होगा. अपने पास भी बाघ को लेकर कुछ स्मृतियाँ और ढेरों क़िस्से हैं. हमारे घर में 'कुकुर' (कुत्ता) हमेशा से रहा है. पहले हम बकरियाँ भी पाला करते थे. बाघ के लिए आसान और प्रिय भोजन ये दोनों हैं लेकिन वह गाय और बैलों पर भी हमला करता है. मेरी याददाश्त में हमारे 9 कुत्ते, 2 बकरी, 4 गाय और 1 बैल को बाघ ने मारा. मैं इन सबका गवाह रहा हूँ. जब भी बाघ ने इनको मार उसके बाद हमें बस हड्डियाँ ही नसीब हुई थी. कुछ महीने पहले ही छोटी सी गाय को फिर बाघ ने मार दिया. इसलिए बाघ 'अन्य' की तरह न चाहते हुए भी हमारे ताने-बाने में दख़ल दे ही देता है. ईजा अच्छे से छन के दरवाजे पर 'अड़ी' (ए...