Tag: अम्मा

जागर, बूबू और मैं

जागर, बूबू और मैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—49 प्रकाश उप्रेती आस्था, विश्वास का केंद्र बिंदु है. पहाड़ के लोगों की आस्था कई तरह के विश्वासों पर टिकी रहती है. ये विश्वास जीवन में नमक की तरह घुले होते हैं. ऐसा ही "जागर" को लेकर भी है. because "जागर" आस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर भी है. 'हुडुक' सिर्फ देवता अवतार करने का वाद्ययंत्र नहीं है बल्कि पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान का अटूट अंग है. आज इसी 'जागेरी', 'हुडुक' के साथ मैं, और 'बुबू' (दादा). जागरी बुबू जागरी लगाते थे और मैं उनके सानिध्य में सीख रहा था. ईजा को मेरा जागरी लगाना पसंद नहीं था. तब 'जगरी' (जागेरी लगाने वाला) को लेकर समाज में एक सम्मान का भाव तो था लेकिन दूसरों की हाय, पाप, और गाली खाने की गुंजाइश भी हमेशा रहती थी. ईजा को लगता था कि बेटे का भविष्य 'जगरी' बन जाने से तबाह हो जाएगा. but उनको मेरा शहर में पढ़ना या बर्तन धोना मंजूर था ...
अम्मा का वो रेडियो

अम्मा का वो रेडियो

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—31 प्रकाश उप्रेती आज बात- “आम्क- रेडू” (दादी का रेडियो) की. तब शहरों से गाँव की तरफ रेडियो कदम रख ही रहा था. अभी कुछ गाँव और घरों तक पहुँचा ही था. परन्तु इसकी गूँज और गुण पहाड़ की फ़िज़ाओं में फैल चुके थे. इसकी रुमानियत ‘रूडी महिनेक पौन जसि’ (गर्मी के दिनों की ठंडी हवा) थी. क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े सब इसकी गिरफ्त में थे. ‘अम्मा’ (दादी) के लिए यह एक नई चीज थी जिसके बारे में पहले उन्होंने सिर्फ सुन भर रखा था. प्रत्यक्ष दर्शन का यह पहला अवसर था. अम्मा का ज्यादा समय घर पर ही बीतता था. ईजा घर के बाहर का काम देखती थीं तो अम्मा घर पर हमारी रखवाली करती थीं. एक बार बौज्यू (पिता जी) दिल्ली से आए तो बोलता हुआ यन्त्र ले आए. घर में सबको बताया-"इहें रेडू कनि"(इसे रेडियो कहते हैं). उस रेडू को जानने और समझने की जितनी ललक हम में थी उससे कहीं कम अम्मा में भ...
अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—6 प्रकाश उप्रेती इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं. यह एक तरह से घरेलू चक्की है. उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी. पानी की चक्की वालों के पास जाना पड़ता था. वो पिसे हुए का 'भाग' (थोड़ा आटा) भी लेते थे. इसलिए कई बार घर पर ही 'जानहर' चलाकर अनाज पीस लिया जाता था. पहाड़ अधिकतर चीजों में आत्मनिर्भर था. उसके पास अपनी जरूरतों के हिसाब से संसाधन थे और ये समझ भी कि उनका सर्वोत्तम उपयोग किस तरह करना है. तकनीक और मशीनों से बहुत दूर इस समझ के बलबूते ही जीवन चलता था. घर में रोज अम्मा (दादी) जानहर चलाती थीं. अम्मा एक बार में दो समय की रोटी भर के लिए ही पीस पाती थीं. मगर जब अम्मा और ईजा(मां) साथ मिलकर पीसते थे तो फिर कुछ आटा अगले दिन के लिए भी बच जाता था. यह तब ही होता था जब बाहर का कोई काम न हो. नहीं तो ईजा बाहर के कामों में ही लगी रहती थीं. जानहर से बड़ी आवाज ...