— दिनेश रावत
देवभूमि उत्तराखंड के दिव्यधाम सदियों के लोगों के आस्था एवं विश्वास के केन्द्र रहे हैं. सांसारिक मोह-माया में फंसा व्यक्ति, आत्मीकशांति की राह तलाशते हुए अन्ततः इसी क्षेत्र का रूख करता है. कारण पंचब्रदी, पंचकेदार, पंचप्रयाग तथा अनेकानेक देवी-देवताओं के दैवत्व से दैदीप्यमान, ऋषि-मुनियों के तपोबल से तरंगित, पांडवों के पराक्रम को प्रतिबिंबित करती और प्राणी जगत को नवजीवन प्रदान करती गंगा, यमुना, अलकनंदा मंदाकिनी, भागीरथी, भिलंगना जैसी पावन सलीलाओं की सतत् प्रवाहमान अमृतमय जलधाराएं. उत्तराखंड के चार धामों में यमुनोत्री का महत्त्व इसलिए बढ़ जाता है कि इन चारों धामों की यात्रा का शुभारंभ यहीं से अर्थात माँ यमुना का पावन आशीष और सूर्य कुंड की तप्त जलधारा में स्नान करने के साथ ही माना जाता है. स्यानाचट्टी, रानाचट्टी, हनुमानचट्टी, नारदचट्टी से होते हुए जानकीचट्टी वह अंतिम पड़ाव है, जहां तक तीर्थयात्री वाहनों से पहुंच सकते हैं. जानकीचट्टी से 5 किमी की एक खड़ी पगडंडी जहां कालिन्दनी पर्वत से निकलने वाली पावन सलिला यमुना की उद्गम स्थली यमुनोत्री पहुंचाती है, वहीं दूसरा मार्ग खरसाली गांव को मुड़ जाता है, जो कि मोटर मार्ग से जुड़ा है.
अक्षय तृतीया को मां यमुना जहां अपने पावन धाम यमुनोत्री में विराजमान होकर देश—विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं को अपने आशीष से आप्लावित करते हुए धन्य व सद्मार्ग प्रशस्त करती, वहीं यमुना के भाई शनिदेव इस महत्वपूर्ण अवसर पर अपनी भगिनी यमुना को यमुनोत्री तक पहुंचाकर और विधिवत् मंदिर में विराजने के पश्चात वापस लौट आते हैं.
खरसाली! यानी रवांई क्षेत्र के यमुना उपत्यका क्षेत्र का अंतिम गांव और मां यमुना का शीतकालीन प्रवास स्थान। जहां मां यमुना की भोगमूर्तियां, यमुनोत्री धाम के कपाट बंद होने पर शीतकालीन प्रवास के दौरान विराजती है. अर्थात भईयादूज से लेकर अक्षय तृतीया खरसाली गांव में अवस्थित प्राचीन यमुना मंदिर में ही मां यमुना की भोगमूर्तियां विराजती हैं और यहीं पर उनका विधिवत् पूजन-अर्चन सम्पन्न होता है. प्राचीन परम्पंरानुसार अक्षय तृतीया के दिन शुभलग्नानुसार विधि-विधानानुसार मां यमुना शंख ध्वनी, घंटा-घड़ियालों की टंकार, ढोल-बाजों के साथ जयकारें भरे उद्घोषों के बीच श्रद्धालुओं के अपार जन-शैलाव के साथ यहीं से यमुनोत्री धाम के लिए प्रस्थान करती है। इस दौरान नर-नारियों के अतिरिक्त इस यात्रा का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं मां यमुना के भाई और लोकपूजीत शनि महाराज. प्रकृति की अनुपम छटांओं के बीच दृष्य देखते ही बनता है. घाटियों से टकराते जयकारों के उद्घोष मानों देवलोग का आशीष लेकर पुनः लोकवासियों को अपने आशीर्वाद से आप्लावित कर रही हो. अक्षय तृतीया को मां यमुना जहां अपने पावन धाम यमुनोत्री में विराजमान होकर देश—विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं को अपने आशीष से आप्लावित करते हुए धन्य व सद्मार्ग प्रशस्त करती, वहीं यमुना के भाई शनिदेव इस महत्वपूर्ण अवसर पर अपनी भगिनी यमुना को यमुनोत्री तक पहुंचाकर और विधिवत् मंदिर में विराजने के पश्चात अपने मूल निवास जो कि इसी खरसाली गांव में अवस्थित है, वापस लौट आते हैं.
यमुनोत्री धाम के कपाट अक्षय तृतीया से लेकर भईयादूज तक देश—विदेश से पहुंचने वाले श्रृद्धालुओं के लिए खुले रहते हैं. भईयादूज के दिन ही यमुनोत्री अवस्थित मां यमुना के मंदिर के कपाट बंद होते हैं और इसी दिन नियत तिथि व सयम के अनुसार मां यमुना की अपने शीतकालीन प्रवास स्थली खरसाली के लिए वापसी होती है. छः माह तक उच्च हिमालयी क्षेत्र में अवस्थित यमुनोत्री धाम से वापस लौटने पर क्षेत्रवासी व मां यमुना के भाई शनिदेव पुनः बहिन की अगुवाई के लिए अपार हर्षोल्लासमय माहौल के साथ यमुनोत्री जाते हैं और वहां से शनिदेव एवं यमुना की भोगमूर्तियां खरसाली के लिए प्रस्थान करती हैं. मान्यता है कि भईयादूज के दिन मां यमुना भी अपने भाई शनि के आगमन की प्रतीक्षा में रहती है. इस प्रकार से यह भाई-बहिन के प्यार व स्नेह के पर्व की महत्ता में भी श्रीवृद्धि करता है.
खरसाली! जनकी चट्टी से 1 किमी दूरी पर अवस्थित है. जहां एक छोर पर मां यमुना का दिव्य एवं भव्य मंदिर है, तो दूसरे छोर पर शनिदेव का. संयोग देखिए भईयादूज के दिन शनिदेव अपनी बहिन यमुना को यमुनोत्री से वापस खरसाली लेकर आते हैं और उसके कुछ ही दिनों बाद आने वाले मार्गशीर्ष माह में खुद साधना में लीन हो जाते हैं. अर्थात शनिदेव मंदिर के कपाट भी बंद कर दिये जाते हैं. यमुना सहोदर शनिदेव के इस एक मात्र मंदिर के कपाट भी इस अवधि में बंद रहते हैं. जो प्रकृति के हरितिमायुक्त हो जाने अर्थात् ऋतुराज बंसत आरम्भ के साथ ही बैशाखी पर्व के अवसर पर जन दशनार्थ खोले जाते हैं. शनिदेव को लोकवासी ‘सोमेश्वर’ नाम से ही अभिहित करते हैं. सोमेश्वर मूलतः गीठ पट्टी के बारह गांव के आराध्य देव हैं. इसलिए कपाटोद्घाटन के दिन अपने आराध्य ईष्ट का दर्शनपान करके खुद को कृतार्थ करने के लिए लोकवासियों में एक खासा उत्साह रहता है. आस्था एवं विश्वास से लबालव लोकवासियों के मन में अपने ईष्ट के दर्शनपान हेतु उमड़े जन-शैलाव से आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि देवभूमि के लोगों में देवी-देवताओं के प्रति आस्था की जड़ें कितनी गहरी हैं.
क्षेत्र के इस एक मात्र शनि मंदिर की निर्माण अवधि आदि के सम्बंध में यद्यपि कोई लिखित व स्पष्ट उल्लेख शायद ही उपलब्ध हो, मगर लोकमत और मंदिर कि निर्माण शैली एक नज़र में ही अपनी कथा बयां कर देती है कि यह नूतन न होकर काफी प्राचीन है.
बात यदि शनि व यमुना के संबंध की जाये तो इसके लिए अपने पौराणिक धर्मग्रंथों का सिंहवालोकन करने पर स्पष्ट होता है कि शनि सूर्य पूत हैं. सूर्य का विवाह विश्वकर्मा (त्वष्टा) की पुत्री संज्ञा से होता है. संज्ञा से सूर्य वैवस्वत मनु, यम तथा यमी (यमुना) तीन संताने होती हैं। सूर्य का अत्यधीक तेज होने के कारण संज्ञा उसे सहन नहीं कर पाती. जिसके चलते वह अपने मायके जाने का मन बना लेती है. लेकिन सूर्य को इस बात का पता न चले इसके लिए वह एक योजना बनाकर अपने ही रूप-आकृति, वर्ण की अपनी छाया को वहां पर स्थापित करके स्वयं अपने पिता के घर होते हुए ‘उत्तरकुरू’ में जाकर छिपकर वडवा (अश्वा) का रूप धारण कर अपनी शक्ति वृद्धि हेतु तप करने लग जाती है. सूर्य इस बात से अनविज्ञ हैं. वह छाया को ही अपनी पत्नी मान रहे हैं और उससे सावर्णि मनु, शनि, तपती तथा विष्टि (भद्रा) चार संताने होती हैं. छाया अपने पुत्र-पुत्रियों से अधिक प्यार-दुलार करती है किन्तु संज्ञा की संतानों से नहीं. माता छाया के तिरस्कार से दुःखी होकर एक दिन यम अपने पिता सूर्य से कहता है- तात! यह हम लोगों की माता नहीं हो सकती क्योंकि ये हमेशा हम लोगों की उपेक्षा करती है, ताड़ना करती है, जब कि सावर्णि मनु आदि से भरपूर लाड़-प्यार करती है। यहां तक की इस माता ने मुझे शाप तक भी दे डाला है जो कि एक मां अपने संतान को कभी भी नहीं दे सकती है। यम की बात सुनकर सूर्य क्रोधित हो जाते हैं और छाया के केश पकड़कर पूछते हैं कि- सच-सच बताओ तुम कौन हो? सूर्य के क्रोध को देख छाया भयभीत हो जाती है और सारी बात सूर्य को बता देती है। जिसे सुनते ही सूर्यदेव विचलित हो जाते हैं और तत्काल अपनी सहधर्मिणी संज्ञा से मिलने को संज्ञा के पिता के घर पहुंच जाते हैं. परिवारजनों से संज्ञा के बारे में जानकारी लेते हैं. संज्ञा के पिता ने सूर्य को बताया कि भगवन! संज्ञा आपके तेज को सहन न कर पाने के कारण अश्वा (घोड़ी) का रूप धारणकर उत्तरकुरू में तपस्या कर रही है. विश्वकर्मा खरादकर सूर्य के तेज को कम कर देता है। अब सूर्य सौम्य शक्ति से सम्पन्न भी अश्वरूप से वडवा (संज्ञा-अश्विनी) के पास उससे मिलते हैं. वडवा ने पर पुरुष के स्पर्श की आशंका से सूर्य का तेज अपने नासा छिद्रों से बाहर फेंक दिया। उसी से दोनों अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ, जो देवताओं के वैद्य हुए। नासा से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम नासत्य भी पड़ा. सूर्य के इसी तेज के अन्तिम अंश से रेवन्त नामक पुत्र हुआ. इस प्रकार भगवान सूर्य का विशाल परिवार यथास्थान प्रतिष्ठित हो गया. यथा- वैवस्वत मनु वर्तमान (सावतें) मन्वन्तर के अधिपति हैं. यम, यमराज व धर्मराज के रूप में जीवों के शुभाशुभ कर्मों के फलों को देने वाले, यमी अर्थात यमुना नदी के रूप में जीवों के उद्धार में लगी है. अश्विनी कुमार (नासत्य-दस्त्र) देवताओं के वैद्ध, रेवन्त निरन्तर भगवान सूर्य की में सेवारत् हैं. सूर्य पुत्र शनि नौ ग्रहों में प्रतिष्ठित है। तपती का विवाह सोमवंशी अत्यन्त धर्मात्मा राजा संवरण से हुआ, जिनसे कुरूवशं के स्थापक राजर्षि कुरू का जन्म हुआ. इन्हीं से कौरवों की उत्पत्ति हुई. विष्टि भद्रा नाम से नक्षत्र लोक में प्रविष्ट हुई. सावर्णि मनु आठवें मन्वन्तर के अधिपति होंगे.
खरसाली स्थित इस मंदिर को जहां लोकवासी शनिदेव का मंदिर मानते हैं और इससे जुड़ी परम्पराएं भी इस ओर इशारा करती है, परन्तु कुछ लोक अपने लोक देवता के लिए शनि के स्थान पर सोमेश्वर शब्द का प्रयोग भी करते हैं. जिससे यह स्पष्ट कर पाना कठिन है कि शनिदेव सोमेश्वर हुए या सोमेश्वर शनिदेव. फिर भी नामों की इस भिन्नता के बीच भी लोकवासियों की आस्था, विश्वास और लोक परम्पराओं में किसी भी प्रकार की कोई कमी नज़र करती है. दैवीय शक्ति से सम्पन्न इस मंदिर की दिव्यता या विशिष्टता ही कहें कि लोग आज भी इस और अनायास ही खींचे चले आते हैं और मंदिर में प्रवेश करते ही आस्था से इस प्रकार लबालव हो जाते हैं कि कई लोग न चाहते हुए भी नतमस्तक हो ही जाते हैं. इसे लोक की विशिष्टता कहें चाहे लोक देवताओं के प्रति लोकवासियों की आस्था परन्तु वस्तुस्थिति यही है, जो वर्षों से यथावत् प्रचलन में है.
Thanks for Great knowledge given by you.