गर्मियों की छुट्टी और रोपणी की बखत 

  • ममता गैरोला

जून की भीषण गर्मी में पहाड़ स्वर्ग की सी अनुभूति है. खेतों की लहलहाती हवा, धारा (पानी का स्रोत) से बहता ठंडा पानी, लोगों में आपसी मेलजोल और साथ ही सांस्कृतिक रीति-रिवाज पहाड़ों की जीवन शैली का अद्भुत दर्शन कराती है और इस अनुभूति को हम सिर्फ तब ही नहीं महसूस करते जब हम अपने गांव में होते हैं बल्कि तब भी महसूस करते हैं जब हम शहरों में कहीं दो कमरों घर में हो या फिर आलिशान फ्लैट में रह रहे हों, एक बार बस बात शुरू हो जाने पर ही उन यादों में डूब जाते हैं. फिर आज भी मन है कि गांव जाने को आतुर सा होने लगता है.

उत्तराखंड में धान की रोपाई. सभी फोटो: गूगल से साभार

एक वक़्त हुआ करता था जब गर्मी की छुट्टियों में कहीं जाने का मतलब सिर्फ दादी और नानी के घर जाना होता था. और वहां जाना किसी फॉरेन ट्रिप से कम नहीं होता था न जाने कितनी ही मौज- मस्ती और कितने ही एडवेंचर किये हैं हमने वहां, अक्सर दिन में खाना- खाने के बाद कपड़े  लेकर गाड़-गधेरा (गावं में बहने वाली छोटी नदियां) जाना और वह घंटों बिता देना, शाम को पानी भरने धारे जाना और चार डिब्बों को ले जाकर तीन में पानी और एक डिब्बे में छोटी- छोटी मछलियां पकड़ लाना. घर आकर डांट भी खायी और फिर उलटे पांव उन मछलियों को वही पानी में छोड़ आना पूरे-पूरे दिन कुछ न कुछ नए करतब, उन सभी यादों की पोटलियां अब भी दिल के किसी कोने में बचपन के वो दिन दुबारा से जीवंत कर देती  है.

जैसे- जैसे गाड़ी आगे बढ़ने लगती मानो नानी को भी एहसास हो रहा हो और वो दूर से दिख रहे मोड़ो पर नजरे बिछाये अनुमान लगाना शुरू करती अभी यहाँ तक और अभी वहां तक पहुंचे होंगे. वो कभी चौक (आँगन) में तो तिबारी (बालकनी) में आँखे बिछाये होती. 

सुबह के नौ बजे गांव के लिए निकलने वाली गाड़ी और गांव में नानी को हिचकियाँ आने तक का सफर. जैसे- जैसे गाड़ी आगे बढ़ने लगती मानो नानी को भी एहसास हो रहा हो और वो दूर से दिख रहे मोड़ो पर नजरे बिछाये अनुमान लगाना शुरू करती अभी यहाँ तक और अभी वहां तक पहुंचे होंगे. वो कभी चौक (आँगन) में तो तिबारी (बालकनी) में आँखे बिछाये होती.  गांव से  स्टेशन थोड़ा दूर हुआ करता था लेकिन  हार्न की आवाज दूर से ही गावं में लोगो को सूचित कर देती कि उनका कोई अपना बस पहुंच ही रहा है.

स्रोत का पानी

वक्त होता था गर्मी की छुट्टियों का और तब सबसे अच्छी बात जून- जुलाई में गाँव में होने वाली खेती (रोपणी) होती थी. और हाँ मेरे गाँवो की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती जहाँ एकजुटता आपको शादी और त्योहारों में ही नहीं, खेतो में एक साथ काम करते वक़्त भी नजर आती है . वो आँगन जहाँ रिश्तों को पूरा मान- सम्मान दिया जाता था. गांव का कोई भी व्यक्ति हो उन दिनों जब रोपणी का समय होता तब अपने आँगन में गाँव के सभी दाना -सयाणा (बड़े -बुजुर्ग) और नौजवान आकर बैठते सबके हाथों में चाय के बड़े-बड़े स्टील वाले गिलास और फिर चर्चा शुरू जाती. और चर्चा ऐसी जो किसी संसद के सत्र से कम न होता थी. सबकी राय सबके विचारों को सुनकर सहमति होती थी. किस बात पर सहमति?

 

अरे भई ! दिन तय होते थे किस दिन किसके खेत को रोपा जायेगा और जो तय हो जाता था तो फिर बिना कहे ही उस दिन सारे लोग खेत में पहुँच जाया करते थे. ख़ेतो में पानी नहरों से जाता था. तो अक्सर ये भी तय होता था कि दिन में पानी पूरा नहीं हो पाया तो रात में खाना खाने के बाद खेतों में पानी लगा आएंगे… आज शहरों के परिप्रेक्ष्य में ये सब बातें सपनों सी लगती है.

अब आती थी हमारी बारी हम बच्चे कैसे खुद को रोक पाते. नानी से मामा -मामी से माँ जिद होती कि खेत में जाना है. घर के बड़े किसी तरह से हमें समझाया करते कि खेत दूर है गिर जाओगे थकान लग जाएगी. लेकिन बचपन में थकान ये सुनना किसे होता था . नानी के आगे पीछे उनको मनाने के लिए घूमना और फिर जब हम न मानते तो  किसी तरह से हमें  यह कह दिया जाता कि दिन जो खेत में खाना और  चाय लेकर आएगा तुम लोग  उनके साथ आ जाना.

 

और फिर क्या रोपणी का दिन और सुबह से तैयारियां शुरू खेत में रोपाई करने वाले सभी लोगों के लिए रोटी, आलू- प्याज की सब्जी, हलवा और केतली भर के चाय बनायीं जाती. और हम भी इंतजारी में होते कब ये बने और हमें भी जाने का मौका मिले. बनने के बाद सब कुछ बांध कर खेत में पहुचाया जाता. जिसने भी गांव में रोपणी  के समय वो खाना खाया हो यकीन के साथ कह सकती हूँ वो मिठास अभी तक वो भूला नहीं होगा. खाना लेकर जाने वाले के साथ हम बच्चे भी तैयार हो जाया करते वो ही एक जरिया भी हुआ करता था हमारा खेत तक पहुँचने का.

टेढ़ी- मेढ़ी पगडंडियों से होते हुए खेतों तक पहुँचने का रास्ता मन में और भी उत्साह भरता. खेत में काम करते हुए लोगों को दूर से ही आवाज लगाई जाती, और फिर खेत में पहुंचकर सभी लोग हाथ पैर  हो धोकर एक पंगत (लाइन) में बैठ कर मालू के पत्तल में रोटी सब्जी और हलवा खाते.  फिर क्या था एक बार वहां पहुँचने का मतलब रोपणी वाले खेत के पानी में तो उतरना ही था. बड़ों के द्वारा हमें डराया भी जाता नीचे मत आओ दूर से देखो कीड़े मकोड़े होंगे कोई चीज काट लेगी. लेकिन फिर भी, किसी न किसी बहाने से उस पानी में उतर जाना.

दूसरे दिन सुबह नींद खुलते ही कभी पानी भरने के लिए धारा, तो कभी गाड़… ऐसी बहुत सी यादें जो जीवन का अभिन्न हिस्सा सा है और जो सबसे हसीं भी है. बचपन और उसकी एक-एक याद जो न तो इंसान कभी भूलना चाहता है और न भुला पाता है.

और अब तो जब तक पूरा खेत नहीं हो जाता वापस कौन जाये तब पूरे खेत को रोप दिया जाता. वहीँ शाम हो जाती और घर जाने की तैयारी होने लगती तो हम लोग भी साथ हो लिया करते.सभी लोगों में  दिन भर का काम  जो थकान और नींद लेकर आता था उसका कोई जवाब ही नहीं था और सच मानिये हमें भी थकान ऐसी कि जैसे हम खेतों को रोप आये हों, खाना खाने के लिए रात को कितनी ही आवाजें दी जाती और हम नींद में मस्त होते. और  फिर ?? फिर क्या…

दूसरे दिन सुबह नींद खुलते ही कभी पानी भरने के लिए धारा, तो कभी गाड़… ऐसी बहुत सी यादें जो जीवन का अभिन्न हिस्सा सा है और जो सबसे हसीं भी है. बचपन और उसकी एक-एक याद जो न तो इंसान कभी भूलना चाहता है और न भुला पाता है.

(लेखिका एक शिक्षण संस्थान में कार्यरत हैं. स्वतंत्र लेखन में अभिरूचि एवं कई पत्र/पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.)

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1 Comment

  • Rauthan

    गांव की याद दिला दी, वैसे भी इस बार हम लोग दिल्ली से कहीं नहीं निकल पाए रहे हैं, तो यादें और भी अखर रही है.

    धन्यवाद

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