स्याल्दे बिखौती : कत्युरीकाल की  सांस्कृतिक विरासत का मेला

स्याल्दे बिखौती मेला : 13-14-15 अप्रैल पर विशेष

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट (Dwarahat) में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला स्याल्दे-बिखौती (Syalde Bikhauti Mela) का ऐतिहासिक मेला पिछले दो वर्षों से कोरोना (Corona Virus) प्रकोप के चलते प्रतीकात्मक रूप से ही मनाया जा रहा था. किन्तु इस वर्ष मेला समिति के निर्णयानुसार मेला विशेष धूम धाम से मनाया because जा रहा है. मेला समिति व नगर पंचायत अध्यक्ष मुकेश साह द्वारा ग्राम प्रतिनिधियों की बैठक में की गई घोषणा के अनुसार लगभग 64 वर्ष पूर्व मेले से अलग हुए ईड़ा, जमीनी वार व पार ग्राम पंचायतें पुन: इस वर्ष स्याल्दे मेले का हिस्सा बनने जा रही हैं. परम्परागत मान्यता के अनुसार इस वर्ष चैत्र मास की अन्तिम रात्रि ‘विषुवत्’ संक्रान्ति 13 अप्रैल को द्वाराहाट से 8 कि.मी. की दूरी पर स्थित विभाण्डेश्वर महादेव में सारी रात बिखौती का मेला लगेगा और अगले दिन वैशाख मास की पहली और दूसरी तिथि को द्वाराहाट बाजार में स्याल्दे बिखौती का मेला आयोजित होगा.

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गौरतलब है कि वर्ष 1958 की बिखौती के बाद नौज्यूला धड़े की ये ग्राम पंचायतें मेले से अलग हो गई थी. मगर इस बार तीनों के गांवों के बुजुर्गों व प्रतिनिधियों ने एक बार फिर लोक परंपरा का अभिन्न हिस्सा बनने का फैसला लिया because है.अब इस मेले में हिस्सा लेने वाले गांवों की संख्या 35 से बढकर 38 हो जाएगी. मेले में आल, गरख व न्यौज्यूला धड़े के थोकदार पुरातन काल से चली आ रही स्याल्दे-बिखौती की परम्पराओं को जीवंत रखते हुए अपनी बारी के अनुसार नगाड़े-निसाणों के साथ ओड़ा भेंटने की रश्म अदायगी करते आए हैं.

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वैसे भी चैत्र और वैशाख के महीने उत्तराखण्ड वासियों के because लिए कुछ विशेष हर्षोल्लास के महीने होते हैं. वसन्त ऋतु के आगमन पर जब चारों ओर हरियाली और बुरांश, प्योली आदि के फूलों की बहार छाई रहती है तो ऐसा लगता है कि मानो प्रकृति परमेश्वरी नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा अपना नव श्रृंगार स्वयं कर रही हो. ऐसे उल्लासमय वातावरण में लोग वन्दनवार, तोरण आदि से अपने घर-द्वार सजाते हैं और इस अवसर पर फूलदेई का त्योहार बड़े हर्षोल्लास पूर्ण ढंग से मनाया जाता है.

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तब यही एक उचित समय होता है हर्षोल्लास प्रकट because करने का, नाच गाने का और आत्मीय भाव से अपनी परंपरागत लोकसंस्कृति से जुड़ने का भी. लगभग इसी समय पाली पछाऊँ क्षेत्र द्वाराहाट की परंपरागत लोक संस्कृति से जुड़ा उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध रंग रंगीला स्याल्दे बिखौती का मेला आता है.

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मेले की तैयारियां आसपास के गांवों में एक महीने पहले से ही शुरु हो जाती हैं. स्याल्दे बिखौती के मेले में हिस्सा लेने वाले झोड़े, लोकगीत लोकनृत्य तथा सरंकार खेलने वाले दलों के विशेष अभ्यास और प्रशिक्षण का दौर भी because गांव गांव में शुरु होने लगता है. लोग जुट जाते हैं नगाड़े निशाणों और मेले में पहने जाने वाले पारंपरिक पोशाकों की व्यवस्था करने में. हर्षोल्लास पूर्ण वातावरण में ग्राम प्रधान के घर से झोड़ों, लोकगीतों और भगनौल गाने का दौर शुरु हो जाता है. हालांकि पलायन के कारण गांव गांव में झोड़ों, लोकगीतों और भगनौल गाने की परंपरा अब टूट चुकी है किंतु पाली पछाऊँ क्षेत्र द्वाराहाट के आसपास के अनेक गांव ऐसे हैं जहां इस परंपरागत लोक संस्कृति को बचाने के लिए आज भी स्याल्दे बिखौती त्योहार की तैयारियां बड़े उत्साह से की जाती हैं.

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मातृभावना से जुड़ने का लोकोत्सव

‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ अर्थात् भूमि माता है और मैं उसका पुत्र हूं कि वैदिक अवधारणा से मातृचेतना का आविर्भाव हुआ है. कुमाऊं के लोकगीतों ने शक्तिपूजा की because इस विश्वव्यापी विराट् अवधारणा को माता और पुत्र के अत्यन्त कोमल और भावना पूर्ण रिश्ते से आज भी बांध रखा है. पाली पछाऊँ के क्षेत्रों में जब भी कोई धार्मिक मेले महोत्सव या संक्रान्ति का आयोजन होता है तो क्षेत्रवासियों की पहली पुकार प्रायः मां जगदम्बा के दरबार में लगाते हुए एक लोकप्रिय झोड़ा ‘खोली दे माता, खोल भवानी धरम केवाड़ा’ को गाए जाने की प्रथा है. इस झोड़ा गीत में माता भवानी से धर्म के द्वार खोलने की प्रार्थना की गई है. उधर देवी मां अपने भक्तों से पूछती है कि पहले यह तो बताओ कि तुम मेरे लिए भेंट-पूजा में क्या क्या लाए हो ? भक्त उत्तर देते हैं कि हम तुम्हारे लिए दो जोड़े निशाण (ध्वजाएं) और दो जोड़े नगाड़े लाए हैं. इस प्रकार अपने भक्तों पर वात्सल्यपूर्ण अधिकार जतलाने की भावना से जैसे मां अपने पुत्रों से बात करती है उसी शैली में देवी और उसके भक्तों का स्नेहपूर्ण शैली में आपसी संवाद इस झोड़े की मूल भावना है-

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मां भवानी से because भक्तों की पुकार
ओहो because गोरी गंगा, भागीरथी कौ,
के भल रेवाड़ा.
ओहो खोली because दे माता,खोल भवानी,
धरम केवाड़ा.

मां अपने भक्तों से because पूछती है

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ओहो क्ये ल्यै रै छै, भेट पखोवा,
क्ये खोलुं केवाड़ा.”

भक्त मां भवानी को because उत्तर देते हैं
ओहो द्वी जोड़ा because निसाण ल्यै रयूं,
खोलि दे केवाड़ा.”

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स्याल्दे बिखौती मेले का इतिहास उत्तराखंड की गौरवशाली लोक परंपरा व संस्कृति से जुड़ा है. यह पर्व कूर्माचल के अतीत,गौरव, राजा एवं प्रजा के बीच बेहतर तालमेल तथा सामरिक कौशल के कुछ बुनियादी सिद्धान्तों पर आधारित because कौतिक भी है जिसे उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट सदियों से एक पुरातन धरोहर के रूप में संरक्षित किए हुए है. चन्द राजाओं के समय रूहेलों के आक्रमण के कारण भी द्वाराहाट अल्मोड़ा क्षेत्र में युद्ध का माहौल गर्माया हुआ था इसलिए रण बाँकुरे स्याल्दे बिखौती मेले के अवसर पर मां शीतला देवी के प्रांगण में अपनी युद्धकला का भी सामूहिक रूप से प्रदर्शन करते थे.

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12वीं सदी से शुरू हुआ स्याल्दे मेला

पं.बद्रीदत्त पाण्डे ने अपने ग्रंथ ‘कुमाऊं का इतिहास’ because में शीतला देवी के मन्दिर निर्माण का काल कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय संवत् 1179 निर्धारित किया है. इन ऐतिहासिक तथ्यों से यह अनुमान लगाना सहज है कि कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय से ही द्वाराहाट में शीतला देवी के मंदिर प्रांगण में स्याल्दे मेले की शुरुआत हो गई थी. कत्यूरी शासकों की वीर रस से भरी स्याल्दे बिखौती की ‘कौतिक’ परंपरा को कालांतर में चंद वंशीय राजाओं ने धरोहर की भांति संरक्षित किया. इसे बतौर विरासत कुमाऊं के 31 परगनों तक विस्तार दिया और गढ़वाल से भी इस मेले के सांस्कृतिक सूत्र जुड़ते गए क्योंकि इस मेले के साथ सामरिक युद्धकला के प्रशिक्षण की भावना भी जुड़ी थी.

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आज पश्चिमी उपभोक्तावादी सोच के कारण यद्यपि नवयुवकों की नई पीढ़ी अपने परंपरागत त्योहारों और मेले उत्सवों के प्रति उदासीन होती जा रही है. पर्वतीय इलाकों में भी महानगरीय संस्कृति के प्रभाव के कारण तीज त्योहारों का रंग because दिन प्रतिदिन फीका पड़ता जा रहा है. मैदानों की ओर निरंतर रूप से पलायन के कारण त्योहारों के अवसर पर उमड़ने वाली लोकसंस्कृति की चमक दमक अब कम होती जा रही है.पर सन्तोष का विषय है कि बागेश्वर में उतरैणी का मेला और द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती का मेला उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति की पहचान आज भी बनाए हुए हैं. द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती मेले के संबंध में कहा जा सकता है कि इस त्योहार के आयोजन में समाज का प्रत्येक वर्ग बड़े उत्साह के साथ बढ़ चढ़ कर अपनी भागीदारी निभाता आया है और महीनों पहले मेले की तैयारी में जुट जाता है. बूढ़े हों या जवान बच्चे हों या महिलाएं प्रतिवर्ष कुछ नई उमंग और नए अंदाज से मेले में हिस्सा लेते हैं.

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गौरतलब है कि द्वाराहाट क्षेत्र के लोग इस मेले के माध्यम से न केवल अपनी पुरातन परंपराओं और कला संस्कृति को जीवित रखते आए हैं बल्कि  यहां के लोकगायकों तथा लोक कलाकारों ने कुमाउंनी साहित्य विशेषकर पाली पछाऊं because के लोक साहित्य की समृद्धि में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया . स्याल्दे बिखौती मेले की एक विशेषता यह भी है कि इस क्षेत्र के लोक गायक हर साल कोई ऐसा नया लोकगीत या कोई नया झोड़ा चला देते हैं जो अपनी समसामयिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है बाद में ये ही झोड़े या लोकगीत पूरे साल लोगों की जुबान में रटते रहने के कारण जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय भी हो जाते हैं.

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सभी उत्तराखंड वासियों को स्याल्दे because बिखौती की हार्दिक शुभकामनाएं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस because कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं.
जिनमें
 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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