अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस : एकै साधे सब सधे !

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून, 2024) पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

जीवन की डोर साँसों से बंधी होती है इसलिए सामान्य व्यवहार में सांस लेना जीवन का पर्याय या लक्षण के रूप में प्रचलित है. सांस अन्दर लेना और बाहर निकालना एक स्वत:चालित स्वैच्छिक शारीरिक क्रिया है जो शरीर में दूसरी प्रक्रियाओं को प्रभावित करती है और हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर सीधा असर डालती हैं. योग-विज्ञान में साँस लेना सिर्फ शारीरिक अभ्यास नहीं है. वह आध्यात्मिक विकास की राह भी है और तन-मन से स्वस्थ बने रहने का एक सरल नुस्खा भी है. योग के अंतर्गत प्राणायाम में साँस लेने के विभिन्न तरीकों पर विशेष चर्चा की गयी है.  योगियों की अनेक उपलब्धियाँ का आधार साँसों के नियंत्रण में ही छिपा हुआ है. प्राणायाम का अर्थ होता है प्राण का विस्तार और उसकी अभिव्यक्ति.

हमारा मन प्राण के साथ वैसे ही जुड़ा होता है जैसे एक पतंग धागे से जुड़ी रहती है. धागा अच्छी तरह पकड़े रहते हैं या प्राण शक्ति नियंत्रित रहती है तो चंचल मन नियंत्रित और वांछित दिशा में सक्रिय होता  है. साँस का विज्ञान प्राण को नियंत्रण में लाता है जिसके फलस्वरूप मन पर साधक का अधिकार स्थापित होता है. वस्तुतः प्राण की ऊर्जा सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है और शरीर में भी वही व्यक्त होती है. शरीर में प्राण शक्ति के अनेक कार्य हैं. जिनको ध्यान में रख कर पाँच तरह के प्राणों की पहचान की गई है – उदानप्राणसमानअपान और व्यान . उदान लेरीनेक्स के ऊपर के भाग में और विशिष्ट इंद्रियों से जुड़ा होता है. प्राण हृदय के आधार से लेकर लेरीनेक्स तक सक्रिय होता है वाक्शक्ति और श्वसन प्रणाली से जुड़ा है. समान हृदय और नाभि के बीच सक्रिय होता है और पाचन क्रिया से भी जुड़ा है. अपान नाभि के नीचे स्थित रहता है और किडनी तथा  मूत्राशय आदि अन्य अंगों को प्रभावित करता है. व्यान पूरे शरीर में व्याप्त रहता है और सभी पेशियों और जोड़ों के संचालन से जुड़ा होता है. प्राण की ऊर्जा बहुत सूक्ष्म होती है जिसे श्वास के सभ्यास से नियंत्रित किया जाता है. श्वांसों पर नियंत्रण के लिए साँस अंदर लेने और बाहर निकालने, उसे रोकने आदि की गति, अवधि, तीव्रता तथा आवृत्ति आदि में बदलाव किया ज़ाया है. वस्तुतः रोग प्राण शक्ति के प्रवाह में असंतुलन का परिणाम होता है.

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हमारी श्वास–प्रश्वास की प्रक्रिया प्राणिक ऊर्जा का आधार है. हम सब एक दिन में लगभग 20,000 बार सांस लेते हैं. सांस अन्दर लेते समय ह्रदय गति बढ़ जाती है और बाहर निकालते हुए कम हो जाती है. हमारा तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) भी सांस की गति के प्रति संवेदनशील रहता है. हम अच्छी तरह सांस ले कर तनाव में कमी और अन्दर से ऊर्जावान महसूस कर सकते हैं. अपने सांस पर ध्यान देकर स्वास्थ और दीर्घायु पा सकते हैं. रोचक बात यह है कि हम अपनी सांस लेने के क्रम को आवश्यकतानुसार बदल भी सकते हैं और अपनी पूरी शरीर-प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं. सांस का सायास प्रयोग कब शुरू हुआ यह तो मालूम नहीं पर भारत में निश्चय ही इसकी बड़ी पुरानी परम्परा मौजूद रही है. श्रीमद्भगवद्गीता में सांस लेना (पूरक), सांस को छोड़ना (रेचक) और सांस को रोकना (कुंभक) इन तीन प्रक्रियाओं का वर्णन मिलता है. तिबती परम्परा में भी इस पर बल दिया गया है. अनुष्ठान करने में, चिकित्सा में, अध्यात्म और धार्मिक अभ्यास में, ध्यान और शारीरिक कला-कौशल विकसित करने आदि सबमें श्वास-प्रश्वास का महत्त्व पाया गया है. वस्तुत: सांस लेना सिर्फ वायु का भौतिक रूप से गतिशील होना नहीं हैं. इसे ऊर्जा, शक्ति, प्राण, ब्रह्मानंद और आत्मा तक से भी जोड़ा गया है.

योग को अब वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकृति मिल रही है. तंत्रिका तंत्र के आधुनिक अध्ययन योग की श्वास-विधियों के प्रभावों की पुष्टि कर रहे हैं. खेल में तो युद्ध की सी चुनौती होती है. तब पल-पल का मूल्य होता है इसलिए खिलाड़ियों की भी रुचि इस ओर बढ़ रही है और इस पर विचार हो रहा है कि प्राचीन योग की श्वास-नियंत्रण की तरकीबें शरीर को साधने और श्वसन तंत्र को सुदृढ़ करने में कैसे मददगार होंगीं.

योग की परम्परा में प्राणिक ऊर्जा को नियमित करने और सकारात्माक रूप से संचारित करने के लिए प्राणायाम पर बल दिया गया है. चिकित्सा जगत की इसमें बहुत दिनों तक कोई ख़ास रूचि न थी. बीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते यह स्पष्ट हुआ कि श्वांस लेने और निकालने के दर (रेट) का स्वास्थ पर सीधा प्रभाव पड़ता है. दमा (अस्थमा) वस्तुत: श्वांस की कमी से जुडा है. उच्च रक्त चाप की चिकत्सा में भी यह लाभप्रद पाया गया है. अब इसे वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकृति मिल रही है. तंत्रिका तंत्र के आधुनिक अध्ययन योग की श्वास-विधियों के प्रभावों की पुष्टि कर रहे हैं. खेल में तो युद्ध की सी चुनौती होती है. तब पल-पल का मूल्य होता है इसलिए खिलाड़ियों की भी रुचि इस ओर बढ़ रही है और इस पर विचार हो रहा है कि प्राचीन योग की श्वास-नियंत्रण की तरकीबें शरीर को साधने और श्वसन तंत्र को सुदृढ़ करने में कैसे मददगार होंगीं . इस पर भी शोध हो रहा है कि शरीर किस तरह अच्छी तरह आक्सीजन का उपयोग करे और कार्बन ड़ाई आक्साइड को सहने की क्षमता को बढाये.

श्वांस के महत्त्व की लोकप्रियता के बावजूद अभी भी ज्यादातर लोग जीवन के इस आधारभूत पक्ष पर उचित ध्यान नहीं देते हैं. यदि यह स्वायत्त तंत्रिका तंत्र की बात न होती तो बहुत  से लोग इसलिए अकाल ही कालकवलित हो जाते कि वे काम के वक्त साँस लेना भूल गए. सांस सभी लेते हैं इसलिए अच्छी तरह सांस लेना जरूरी हो कर भी ध्यान में नहीं आता. सांस का व्यायाम सबके लिए बेहद जरूरी है. काम ज्यादा हो, समयाभाव हो और आप श्वसन पर पर ध्यान देना चाहते हैं ताकि स्वास्थ्य सुधरे तो सबसे पहली बात है मुंह के बदले नाक से सांस लेने का अभ्यास करना चाहिए . इसमे आक्सीजन को रक्त में फ़ैलाने के लिए अधिक मौक़ा मिलता है इससे 10-20 प्रतिशत अधिक आक्सीजन मिलती है.

सांस लेने के तरीके को बेहतर बनाने के लिए मुद्रा (पाश्चर) पर भी ध्यान देना होता है. खराब पाश्चर सांस लेने को बाधित करता है और व्यवधान वाले सांस लेने के तरीके से पेशीय प्रणाली प्रभावित होगी. पाश्चर को ठीक करने के लिए डायफ्राम पर गौर करना. जब सांस अन्दर लेते हैं तो डायाफ़्राम नीचे जाता है, फेफड़ों में दबाव में अंतर आता है और वह वायु अन्दर खीचता है. जब सांस छोड़ते हैं तो वह बाहर की ओर जाती है, डायफ्राम ऊपर जाता है और वायु बाहर जाती है. यहीं पर स्वाभाविक सांस लेने का रहस्य है- अंदर सांस लेना सक्रिय है और बाहर निकालना निष्क्रिय. सतही ढंग से वक्ष से सांस लेने की तुलना में दयाफ्रोम से सांस लेना कई तरह से फायदेमंद है. यह मानसिक या शारीरिक थकान से उपजे तनाव को कम करता है. सांस से प्रतिरक्षा तंत्र स्वस्थ और सशक्त होता है. अभ्यास के साथ सांस लेने पर नियंत्रण तनाव के प्रति प्रतिक्रया को प्रभावित करता है. यह एक बहुत बड़ी शक्ति. इसके लिए योग में प्रयुक्त एक अभ्यास उपयोगी है जिसमें सांस अन्दर बाहर एक संख्या तक गिन कर करते हैं. सांस की उपयुक्त आरामदायक लम्बाई का पता चलता है और जब यह पता चल जाय तो लय को धीमा किया जा सकता है. यह प्रणाली शर्रर को चुस्त दुरुस्त रखने जरूरी है. इसे अवसाद और दुश्चिन्ता की चिकित्सा में भी उपयोगी पाया गया है.

अपनी मानसिक प्रक्रियाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण सहायता आप मस्तिष्क और अन्य महत्वपूर्ण अंगों के लिए आक्सीजन उपलब्ध करा कर कर सकते हैं. इसकी कुंजी सांस लेने की दर में है. धीमी और आराम की  सांस लेना लाभप्रद है. तीव्र और छिछली सांस ठीक विपरीत प्रभाव वाली होती है. जब आप नाक से सांस बाहर निकालते हैं तो अधिक कार्बन रखते हैं मुंह से निकालने की अपेक्षा, इसलिए ज्यादा से ज्यादा नाक से सांस लेना का अभ्यास करना चाहिए. इससे होमोग्लोबीन से कोशिका में आक्सीजन का जाना बढ़ जाता है रक्त प्रवाह भी सुधर जाता है. ठीक तरह से सांस लेना स्वास्थ्य की कुंजी है. सचेत रूप से सांस लेना एक प्राचीन विषय है और आज की ताजी शब्दावली में स्वसन-अभ्यास (ब्रीद वर्क) एक अध्ययन विषय बन चुका है.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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