गुरु पूर्णिमा पर विशेष
- डॉ. अरुण कुकसाल
बचपन की यादों की गठरी में यह याद है कि किसी विशेष दिन घर पर दादाजी ने चौकी पर फैली महीन लाल मिट्टी में मेरी दायें करांगुली (तर्जनी) घुमाकर विद्या अध्ययन का श्रीगणेश किया था. स्कूल जाने से पहले घर पर होने वाली इस पढ़ाई को घुलेटा (आज का प्ले ग्रुप) कहा जाता था.
संयोग देखिये कि जिस ऊंगली से हम दूसरों की कमियों की ओर इशारा या उनसे तकरार करते हैं, उसी से हम ज्ञान का पहला अक्षर सीखते हैं.
कुछ दिनों बाद ‘आधारिक विद्यालय, कण्डारपाणी’ असवालस्यूं (पौड़ी गढ़वाल) में भर्ती हुए तो रोज पढ़ने से पहले बच्चे बोलते…… ‘आगे-पीछे बाजे ढोल, सरस्वती माता विद्या बोल’.
घर से स्कूल जाने से पहले सभी बच्चे तमाम कामों में घरवालों का हाथ बांटते. गांव का सयाना जिसकी उस दिन बच्चों को स्कूल छोड़ने की बारी होती वो जोर से धै लगाता ‘तैयार ह्ववे जावा रे’. बस थोड़ी ही देर में पल्या ख्वाला से डिग्गी की ओर जाने वाले रास्ते में सब बच्चे जमा हो जाते. स्कूल जाने के लिए कोई विशेष तैयारी तो करनी नहीं पडती थी. रात के पहने कपड़ों में ही स्कूल जाना होता था. इतवार को जब मां नहलाती थी तभी दूसरे घुले कपड़े बदलने होते थे. पाटी-बुलख्या/झोला, स्याही की दवात, रुमाल में रोटी-सब्जी, ठुंगार और एक सूखी लकड़ी मास्साब जी के भोजन बनाने के लिए हमारे पास होते.
मास्साब जी रास्ते के पेड-पौंधों, फसल के साथ देश-दुनिया की जानकारी भी देते जाते जो हमारे पल्ले क्या आती. फिर भी महसूस होता कि गांव से बाहर कोई ‘देश’ नाम का कोई है, जहां बहुत बड़ी-बड़ी चीजें हैं. मास्टर जी के साथ कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों की चलती-फिरती हमारी यह पाठशाला जब स्कूल पहुंचती तो अच्छी-खासी पढ़ाई पहले ही हो जाती थी.
स्कूल जाते हुए हमारे लिए सबसे बड़ा डर बाघ का था. रास्ते के बुज्जे (झाड़ी) में छिडबिडाहट हुई कि हम बच्चों का सामुहिक क्वींकाट (चिल्लाना) शुरू हो जाता था. साथ आया सयाना यदि कोई फौजी होता तो उसके किस्से रोमांचित करते. समझ में तो आते नहीं थे. रेल क्या मोटर गाड़ी तक तो देखी नहीं थी हमने. तब फौजी के बूट और हैट से नजर ही नहीं हटती थी. नतीजन धड़ाम से चलते-चलते फरक्या (गिर) जाते.
कभी-कभी बड़े मास्साब जी भी हमारे साथ होते. ऐसा तब होता जब वो कुछ दिनों की छुट्टी के बाद अपने गांव से स्कूल लौट रहे होते. रात को अक्सर हमारे घर रुकते, रिश्तेदारी जो ठहरी. उस दिन तो गांव के रास्ते से ही चलते-चलते पढ़ाई शुरू हो जाती. मास्साब जी बड़ी क्लास (4 और 5) के बच्चों को उनकी कक्षानुसार सवाल दे देते. मौखिक उत्तर चलते-चलते बोले जाते. हमको अक्सर पांच तक के पहाड़े जोर-जोर से बोलने होते थे. मास्साब जी रास्ते के पेड-पौंधों, फसल के साथ देश-दुनिया की जानकारी भी देते जाते जो हमारे पल्ले क्या आती. फिर भी महसूस होता कि गांव से बाहर कोई ‘देश’ नाम का कोई है, जहां बहुत बड़ी-बड़ी चीजें हैं. मास्टर जी के साथ कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों की चलती-फिरती हमारी यह पाठशाला जब स्कूल पहुंचती तो अच्छी-खासी पढ़ाई पहले ही हो जाती थी.
स्कूल की पाटी हम बच्चों की सबसे बड़ी दौलत और शान होती थी. हर घर की रसोई में चूल्हे के पास मोसा (कालिख) का एक डिब्बा होता था. जिससे घर के बच्चे अपनी-अपनी पाटी को काली और चमचमाती बनाते थे. इतवार का दिन पाटी, बुल्ख्या और कलम को दुरस्त करने का होता. कुलसीर गधेरे वाले रास्ते के बगल में बांस के बुज्जे (झाड़ी) के आस-पास अच्छे कमेडे की खान थी. बच्चों में कमेड़ा निकालने की जगह के लिए अघोषित बंटवारा था. पर कभी-कभी किसी दूसरे बच्चे के अतिक्रमण या चोरी-छिपे दूसरे की मानी गयी जगह से कमेड़ा निकालने की कोशिश भर से ही हममें लडाई हो जाती थी जो कि कभी-कभी गेंगवार का रूप भी ले लेती थी. हल्का गीला मोसा को पहले पाटी में रगड़ा जाता. छुट्टी के दिन हर घर के छज्जे/छत में धूप में सूखती पाटियों की खूबसूरत कतार दिखाई देती थी. सूखी पाटी को फिर कुंडजे से रघड़ा जाता. एक धूप और दिखाकर कांच की शीशी/दवात से घोटा लगाया जाता. घोटा लगाने में बच्चे बड़ी कलाकारी दिखाते. महीन और एकसार घोटे से पाटी खूब चम-चमाती. अपने-अपने घर के छज्जे से बच्चे एक-दूसरे पर पाटी चमकाते. यह खेल दिनभर बड़ों की डांट/मार के बाद भी चलता रहता था. फिर कमेड़ा की मिट्टी को छानकर उसे बजनी पत्थर से महीन करते. फिर पानी में उसे घंटों भिगोया जाता. मुलायम डोर को कमेडे में खूब भिगा कर उससे पाटी पर सीधी लाइन खींचने का कमाल अब करना होता था. कलम बांस या रिंगाल की होती. उसकी नोंक बनाने का सरूर किसी-किसी में ही होता था. एक बच्चे के पास चार-पांच कलमें होती. कलम और कमेड़ा की छीना-झपटी गांव के बच्चों की आपस में चलती रहती.
एक दिन तो गजब हो गया. हमारे परिवार से जमनी, नीरू, आशा, मंजू (सभी दीदी) और मेरा नाश्ता एक ही पोटली में बंधा रहता था. हुआ ऐसा कि किसी शिल्पकार बच्चे ने गलती से अपनी पोटली समझ कर हमारी पोटली ले ली और अपनी वहीं छोड़ दी. बस फिर क्या था. दीदियों का फरमान जारी हो गया कि ‘उनकी भिड़ी (छुई) रोटी नि खांण’. मेरी समझ से बाहर था कि हम उनकी भिड़ी रोटी क्यों नहीं खा सकते. मैं बार-बार कहता कि ‘किलै नि खाण वेकि भिडी रव्टटी’.
ताजुब्ब है कि स्कूल के लिए इस महाभारती तैयारी के कामों में बड़े कहीं शामिल नहीं रहते थे. बड़ों का उदासीन रहते हुए बच्चे ये सब अपने-आप खुशी-खुशी करते थे.
कण्डारपाणी स्कूल में बड़ी कक्षायें याने 3, 4 और 5 तो कमरों में लगती और कच्ची-पक्की 1 एवं 2 इनके बराड़ों में. मेन गेट के पास मास्साब लोगों का आफिस और दर्जा 5 का कमरा तो मैदान पार कर दूसरी बिल्डिंग में 3 एवं 4 के कक्षा कक्ष थे. जाड़ों में सभी कक्षायें मैदान में लगती. स्कूल में प्रधानाध्यापक के अलावा एक शिक्षक और थे. दोनों मास्साब जी का ध्यान अक्सर बड़ी कक्षाओं की ओर ही रहता था. हमें तो वे चलते-चलाते ही पढ़ाते थे.
हम बच्चों का ध्यान पढ़ने से ज्यादा मैदान के बाहरी ओर दीवार से सटे बांज के पेड़ की टहनियों में रंग-बिरगें साफों/पुराने कपड़ों में बंधी अपनी-अपनी रोटी-सब्जी की फंची (पोटली) को निहारने में लगा रहता था. मास्साब जी के इशारे पर हाफटाइम की घंटी बजाने कोई बड़ा बच्चा जाने को हुआ नहीं कि हम पेड की तरफ दौड़ लगा देते. देखते ही देखते उस पेड़ के आस-पास पचासों बच्चों की धींगा-मुस्ती होने लगती थी.
एक दिन तो गजब हो गया. हमारे परिवार से जमनी, नीरू, आशा, मंजू (सभी दीदी) और मेरा नाश्ता एक ही पोटली में बंधा रहता था. हुआ ऐसा कि किसी शिल्पकार बच्चे ने गलती से अपनी पोटली समझ कर हमारी पोटली ले ली और अपनी वहीं छोड़ दी. बस फिर क्या था. दीदियों का फरमान जारी हो गया कि ‘उनकी भिड़ी (छुई) रोटी नि खांण’. मेरी समझ से बाहर था कि हम उनकी भिड़ी रोटी क्यों नहीं खा सकते. मैं बार-बार कहता कि ‘किलै नि खाण वेकि भिडी रव्टटी’. भूख से हलकान जो था. जिद्द करके उनसे अपनी पोटली ले आया. पर मेरी निर्दयी दीदियों ने उसे उन्हीं को वापस कर दिया और मुझे नहीं खाने दिया. डांटा और मारा अलग से. अब हालत यह कि स्कूल के बाहरी तप्पडों में सब मजे खा और खेल रहे थे और मेरी भूख से जान जाने को थी. अब क्या करूं ? आखिर मेंं दीदियों से नजर बचा के अपनी रोटी ले जाने वाले मित्रों के पास पहुंचा. वे सब तो दोस्त ही थे. साथ स्कूल आना-जाना और साथ खेलना था. पर तब तक वे हमारे नाश्ते की पोटली चट कर चुके थे. अब उनके पास उनकी अपनी पोटली ही थी जिससे निकाल कर वे मजे से भरी रोटी खा रहे थे. मैंने भी उन्हीं के बीच बैठ कर उनकी लाई भरी रोटी खाई . कोशिश थी कि दीदियों को यह बात पता न चले. पर जासूसों की कोई कमी थोड़ी थी. तुरंत दीदियों को पता चल गया. ‘अरुणि न वूं क दगड् रव्टिय खाई’. बस दे दना-दन दीदियों ने चप्पतों की बरसात कर दी थी. धमकी अलग से कि मां और दाजी (दादा जी) को बता देगें. पर उल्टा हुआ. बात मास्टर जी तक पंहुची. मास्टर जी ने दीदियों को जमकर फटकार लगाई. उन्होने क्या बोला, मेरी समझ में तो नहीं आया. पर मुझे यह जरूर लगा कि मैने कोई गलत काम नहीं किया और यह समझ में आया कि सभी बच्चे समान होते हैं.
सामाजिक समरता की पहली सीख देने वाले वो गुरू जी आज भी मन-मस्तिष्क आकर यही सबक देते हैं कि मानव की एक ही जात है ‘इन्सानियत’ बाकी ये सब जो दिखता और होता है वो तो धन्धेबाजों का कमाल है.
पीआईसी, पुरानी टिहरी के ‘जोशी सरजी’-
टिहरी पीआईसी में 10वीं के क्लास टीचर जोशी जी को पढाने का हर वक्त जनून रहता. गणित, बायोलाजी और सांइस शुरू की चारों घण्टी उन्हीं की होती. क्लास में एक-एक पर उनकी पैनी नजर रहती. जिसको सजा देनी होती उस बच्चे को कुसीॅ या स्टूल से उतार कर सबसे आगे जमीन पर बिठा देते. जब तक पूरी क्लास से वे संतुष्ट न होते हमारा हाफ टाइम भी नहीं होता था. कभी-कभी सातवीं घण्टी तक वे लगातार हमें पढाते रहते. इस वास्ते अन्य अध्यापकों से उनकी बहस-तकरार भी हो जाती. पर ‘जोशी सर’ कहां मानने वाले. पढाने का जादू उनके सिर पर हर समय रहता. फीसडे के दिन अन्य कक्षाओं के लड़के मजे से घूमते रहते और हम गणित-साइंस के सवालों से जूझते रहते. स्कूल के बाद भी वे घर पर पढाते. मजाल है कोई उनकी क्लास का लडका शाम को बाजार बेवजह घूमते हुए मिल जाए. पूछते, बाजार क्यों आये हो? संतुष्ट न होने पर चटाक गाल पर धमाका . बाजार में चलते नये लोग चौंकते और पुराने मुस्कराते. पकड़ा गया लड़का सीधे घर का रास्ता नापता नजर आता. हम बाजार में दूर से उनको देखते ही गलियों में लुक (दुबक) जाते. उनके घर की ओर जाना तो दूर नजर उठाने की भी हिम्मत न होती. वर्षों बाद भी बडी क्लासों में पढते हुए यह जानते हुए भी कि ‘जोशी सर’ अब टिहरी में नहीं रहते, उनके किराये वाले घर से गुजरते डर लगा रहता था. ‘जोशी सर’ अब दुनिया में नहीं रहे. पर उनका सबब मेरे मन-मस्तिष्क में ज्यों का त्यों है.
आदर और सलाम आपको ‘जोशी सरजी’.
(लेखक एवं प्रशिक्षक)