गणेश चतुर्थी पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आज गणेश चतुर्थी है. हिंदू धर्म में भगवान गणेश जी को प्रथम पूज्य माना गया है. गणेशजी के जन्म के बारे में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. उस सन्दर्भ में कुमाऊं स्थित देवभूमि उत्तराखंड के पाताल भुवनेश्वर में भगवान गणेश के आदिकालीन इतिहास के सांस्कृतिक और पुरातात्त्विक अवशेष आज भी संरक्षित हैं. यह स्थान श्रद्धालु
भक्तों के लिए बहुत ही पवित्र और गणेश के सांस्कृतिक महत्त्व को उजागर करने वाली देवभूमि है. यद्यपि शैव संस्कृति का मुख्य केंद्र होने के कारण उत्तराखंड में गणेश पूजा एक स्वतंत्र धार्मिक परम्परा के रूप में यहां विकसित नहीं हो सकी किन्तु यहां के शैव मंदिर हों या वैष्णव मंदिर अथवा शाक्त सम्प्रदाय के मंदिर सभी में देवपूजा के अंतर्गत गणपति की पूजा और अर्चना को प्रमुखता से स्थान मिला है.कुमाऊं प्रदेश में चाहे किसी प्रकार की धार्मिक पूजा हो या सामाजिक जनजीवन नामकरण संस्कार, विवाह, व्रतबन्ध, आदि संस्कार गणेश पूजा और गणपति के मंगल गीतों के
द्वारा ही निर्विघ्न सम्पूर्ण माने जाते हैं. कुमाउँनी लोक संस्कृति से अनुप्राणित पूजा-अर्चना गणपति के शगुनाखर से ही शुरु होती है. ऐसे ही एक कुमाऊनी मंगलगीत के बोल हैं-गणेश
“जै जस दॆई, धरती माता,
जै जस दॆई, खॊली का गणॆश,
जै जस दॆई, मॊरी का नारैण,
जै जस दॆई, भुमी का भुम्याल,
जै जस दॆई, पंचनाम दॆवता..”
कत्यूरी
अर्थात् हे धरती माता, हे
द्वार कॆ गणॆश, हे धरती माता कॆ पालक दॆवता, हे पंचनाम दॆवताऒ ! मैं आज जॊ यह मंगल कार्य कर रहा हुँ. तुम यहाँ आकर इस कार्य कॊ सम्पन्न करनॆ के लिए हमें आशीर्वाद प्रदान करॊ, ताकि हमारा यह कार्य निर्विघ्न समाप्त हो सके.राजाओं के
वैदिक परम्परा कॆ अनुसार किसी भी कार्य कॊ आरम्भ करनॆ कॆ पहलॆ मंगलाचरण हॊता है. उत्तराखण्ड में सुहागिन महिलाएं अपनॆ मधुर कंठ सॆ गणॆश जी तथा अन्य दॆवों सॆ
आग्रह करती है कि वॆ इस कार्य कॊ सम्पन्न करनॆ हॆतु उनकी प्रार्थना सुनें तथा उनके कार्य कॊ सफल बनाएं. इस शगुनाखर मंगल गीत में सबसे पहले गणेश जी का ही आह्वान किया जाता है फिर अन्य देवताओं की बारी आती है-परम
“बीजी जावा हे खॊली का गणॆश,
बीजी जावा हे मॊरी का नारैण,
बीजी जावा हे कुंती का पंडौऊं,
बीजी जावा हे नौखंडी नरसिंह.”
आराध्य
पाताल भुवनेश्वर में आदि गणेश का सिर
उत्तराखंड के कुमाऊं में अल्मोड़ा से 160 किमी. की दूरी पर पिथौरागढ़ में स्थित गंगोलीहाट कस्बे में पहाड़ी के मध्य स्थित पाताल भुवनेश्वर गुफा गणपति गणेश जी की आस्था से जुड़ा एक अद्भुत पौराणिक स्थल है, जहां गणेश जी की उत्पत्ति से सम्बंधित इतिहास का माहात्म्य पर्वत शिलाओं में अंकित है. पौराणिक मान्यता के
अनुसार यहां गणेश जी का असली कटा हुआ मस्तक विद्यमान है जिन्हें आदि गणेश भी कहा जाता है. मान्यता है कि एक बार भगवान शिव ने क्रोधवश गणेशजी का सिर धड़ से अलग कर दिया था, बाद में माता पार्वतीजी के कहने पर भगवान गणेश को हाथी का मस्तक लगाया गया था, लेकिन जो मस्तक शरीर से अलग किया गया, वह शिव ने इस पाताल भुवनेश्वर गुफा में रख दिया था.लोकदेवता
पाताल भुवनेश्वर गुफा में भगवान गणेश की शिलारूपी मूर्ति के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला शताष्टक दल ब्रह्मकमल भी सुशोभित है. इस ब्रह्मकमल से भगवान गणेश के शिलारूपी
मस्तक पर दिव्य जल की बूंदें स्वयमेव टपकती रहती हैं. जल की बूंदें आदि गणेश के मुख में गिरती हुई दिखाई देती हैं.मान्यता है कि यह ब्रह्मकमल भी भगवान शिव ने ही यहां स्थापित किया था.पाताल
स्कंदपुराण में वर्णन आया है कि स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान रहते हैं और अन्य देवी-देवता उनकी स्तुति करने यहां आते हैं यह भी बताया गया है कि त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफा में आ गए थे तो उन्होंने इस गुफा के अंदर महादेव शिव सहित 33
कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किए थे. द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलयुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य का 822 ई. के आसपास इस गुफा से साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया था.भुवनेश्वर
इस पाताल भुवनेश्वर की गुफा में सृष्टि के आदिकाल से ही चारों युगों के प्रतीक रूप में चार पत्थर भी स्थापित हैं. इनमें से एक पत्थर जिसे कलियुग का प्रतीक माना जाता है, वह धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है. माना जाता है कि जिस दिन यह कलियुग का प्रतीक पत्थर दीवार से टकरा जाएगा, उस दिन कलियुग का अंत हो जाएगा.
गणपति गणेश जी के इस मुख्य मंदिर में केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ के भी दर्शन होते हैं. बद्रीनाथ में बद्री पंचायत की शिलारूप मूर्तियां हैं जिनमें यम-कुबेर, वरुण, लक्ष्मी, गणेश तथा गरुड़ शामिल हैं. तक्षक नाग की आकृति भी गुफा में बनी चट्टान में नजर आती है. इस पंचायत के ऊपर बाबा अमरनाथ की गुफा है तथा पत्थर की बड़ी-बड़ी जटाएं फैली हुई हैं.गुफा में
गणपति मूर्तियों का कलात्मक वैशिष्ट्य
कुमाऊं पुरातत्त्व विशेषज्ञ के.पी. नॉटियाल के अनुसार कुमाऊं क्षेत्र में मूर्तिकला के वैशिष्ट्य की दृष्टि से तीन प्रकार की गणेश मूर्तियां मिलती हैं,जो द्वार की चौखट,नीचे और दीवारों पर
दर्शाई गई हैं. कुमाऊं क्षेत्र में गणपति गणेश की सबसे पहली मूर्ति काशीपुर के चैती मंदिर से मिली है. इस मंदिर में लिंटल्स के टूटे हुए टुकड़े पर गणपति को दर्शाया गया है. 7वीं-8वीं शताब्दी ई.के काशीपुर के एक छोटे से मंदिर में स्थापित गणेश प्रतिमा इसलिए भी विशेष महत्त्वपूर्ण है,क्योंकि यह पहली मूर्ति है,जिसमें गणपति को पद्मासन मुद्रा में दर्शाया गया है.उनके चार हाथ हैं,जिनके पीछे क्रमशः बाएं और दाएं हाथ में एक परशु (कुल्हाड़ी) और एक गदा (गदा) है.आगे के हाथों को गोद में रखा गया है.भगवान
मुकुट एक साधारण गोल टोपी की तरह दिखाई देता है. सूंड झुकने के बजाय सीधे नीचे आती है और अंत में पतली हो जाती है. यह छवि इसलिए भी उल्लेखनीय है,क्योंकि
गणेश प्रतिमाओं की बैठने की सामान्य मुद्राएं प्रायः महाराजलीला और अर्धपर्यंक की होती हैं. लेकिन यह आकृति पूर्ण पद्मासन में विराजमान है. गणेश प्रतिमा में इस प्रकार की मुद्रा बहुत कम देखने को मिलती है. (के पी नॉटियाल, द आर्केलियोजी ऑफ कुमाऊँ,पृ.145,चित्र-55)गणेश
नॉटियाल ने द्वाराहाट के एक मंदिर से शक 1103 या 1181 ई.की प्राप्त गणेश की मूर्ति का भी मूर्तिकला की दृष्टि से विशेष विवरण प्रस्तुत किया है. एक अज्ञात शिलालेख से युक्त इस
गणपति की मूर्ति (नॉटियाल,चित्र 56) में चार हाथ हैं. सामने का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में रखा हुआ है,जबकि पीछे के दाहिने हाथ में गदा है.सामने वाले बाएं हाथ में मोदक का बर्तन और पीछे लता दर्शाई गई है. सूंड बाईं ओर झुकी हुई है.ललाटशीर्ष
कुमाऊं तथा गढ़वाल से नृत्य-गणपति की मुद्रा को दर्शाने वाले भगवान् गणेश की प्रतिमाएं भी मिली हैं. इस प्रकार की समान प्रतीकों से युक्त गणेश प्रतिमाएं बैजनाथ और जोशीमठ में
मिलती हैं.हालाँकि इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाली मूर्तियां कुमाऊं क्षेत्र से अधिक नहीं हैं. इस प्रकृति के दो उदाहरण उपलब्ध हैं. पहला जोशीमठ में है,जबकि दूसरा बैजनाथ में. जोशीमठ की इस नृत्य गणपति की प्रतिमा (नॉटियाल,चित्र 57) में आठ भुजाएँ हैं. ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ में एक साँप है. मध्य गज-हस्त मुद्रा में है.गनाई
इन मंदिरों के द्वार का ललाटशीर्ष में भी गणेश जी की आकृति अंकित रहती है. इनके अलावा जालली,मासी मोटर मार्ग में स्थित बिल्वेश्वर महादेव और द्वाराहाट स्थित
विभांडेश्वर महादेव एवं नागार्जुन मंदिर में भी अति भव्य गणपति गणेशजी की काले पाषाण की ऐतिहासिक मूर्तियां मंदिर में प्रतिष्ठित हैं.
चौखुटिया में
गणेश :कत्यूरी राजाओं के परम आराध्य देव
आज मैं गणेश चतुर्थी के
अवसर पर पाली पछाऊं स्थित द्वाराहाट के भी कुछ गणेश पूजा के सांस्कृतिक अवशेषों के बारे में मित्रों को संक्षिप्त जानकारी देना चाहूंगा जिसके चित्र मैने हाल के वर्षों में अपनी द्वाराहाट यात्रा के दौरान लिए थे. इन चित्रों का पुरातात्त्विक अध्ययन भी विद्वानों द्वारा नहीं किया गया है.स्थापित
दरअसल, गणेश कत्यूरी राजाओं के परम आराध्य लोकदेवता रहे थे. उनके द्वारा निर्मित द्वाराहाट के जितने भी ऐतिहासिक मंदिर या प्राचीन नौले हैं उनमें गणेश की पाषाण मूर्ति का
अवश्यमेव अंकन मिलता है. इन मंदिरों के द्वार का ललाटशीर्ष में भी गणेश जी की आकृति अंकित रहती है. इनके अलावा जालली,मासी मोटर मार्ग में स्थित बिल्वेश्वर महादेव और द्वाराहाट स्थित विभांडेश्वर महादेव एवं नागार्जुन मंदिर में भी अति भव्य गणपति गणेशजी की काले पाषाण की ऐतिहासिक मूर्तियां मंदिर में प्रतिष्ठित हैं.करवाई
द्वाराहाट के पार्श्ववर्ती धार्मिक स्थलों में ‘च्युंटिया गणेश’ नामक स्थान भी गणपति गणेश से सम्बंधित दर्शनीय स्थलों में सम्मिलित है. राहुल सांकृत्यायन के अनुसार राजा सोमदेव ने शक संवत 1271 (1349 ईस्वी) में एक रमणीय नौला द्वाराहाट में बनवाया था और एक भव्य गणेश की मूर्ति शक संवत 1276 (1354 ईस्वी) में गनाई
चौखुटिया में स्थापित करवाई थी. सम्भवतः इसी गणपति के नाम पर चौखुटिया स्थित ‘गणाई’ गनाई के रूप प्रसिद्ध हुआ. द्वाराहाट विभांडेश्वर मोटरमार्ग में मैनोली के निकट एक कत्यूरी राजाओं द्वारा बनाया गया प्राचीन गणेश का नौला भी है जिसमें पुरातात्त्विक महत्त्व की गणेश और विष्णु की मूर्तियां अंकित हैं.आठ दस वर्ष पहले मैंने इस नौले को देखा था. किंतु आज यह नौला जीर्ण-शीर्ण खंडहर में बदल गया है.रामजस
उत्तराखंड से सम्बंधित गणपति
गणेश के सांस्कृतिक इतिहास की इस संक्षिप्त जानकारी के साथ सभी मित्रों को गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं.कॉलेज
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक
पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)