मोहनदास करमचंद गाँधी को बापू और महात्मा गाँधी बनाने वाली ‘बा’ कहाँ

151वीं गांधी जयंती पर विशेष

  • प्रकाश उप्रेती

नैतिक शिक्षा की किताब के पीछे दुबली-पतली, आधी झुकी हुई काया, बदन पर धोती लपेटे,  हाथ में लाठी वाली तस्वीर से जब पहली बार सामना हुआ तो हैड मास्टर साहब ने becauseबताया की ये महात्मा गाँधी अर्थात बापू हैं. यह तस्वीर और स्मृति ही बड़े-होने के साथ बड़ी होती गई.परंतु इनमें कहीं भी ‘बा’ (कस्तूरबा) नहीं थीं. बापू को लेकर बचपन से ही जो समझ बनी उसमें कहीं बा नहीं थीं. जबकि मोहनदास करमचंद गाँधी को बापू और महात्मा गाँधी बनाने में ‘बा’ की बड़ी भूमिका थी. इस बात को स्वयं बापू ने भी बहुत बार स्वीकार किया.संध्या भराड़े अपनी किताब  ‘बा’ में लिखती हैं कि जॉन एस॰ हाइलैंड से बापू ने एक बार कहा, ‘मैंने बा से अहिंसा का पहला सबक सीखा.

नैतिक

एक ओर तो वह मेरे विवेकहीन आदर्शों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी so ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ उन्हें होती उसे चुपचाप सह लेतीं.उनके इस आचरण ने मुझे अपने आप पर शर्म आने लगी और मैं इस मूर्खतापूर्ण विचार से अपना पीछा छुड़ा सका कि पति होने के नाते मैं उन पर शासन करने के लिए जन्मा हूँ.इस तरह वह अहिंसा का पहला पाठ पढ़ाने वाली मेरी गुरु बनीं’.बा के आत्मबल ने ही मोहन को महात्मा बनाया.वह बापू के हर संघर्ष में रहीं और स्वयं भी अपनी एक अलग लकीर खींचीं.

बा

सड़क पर लगी होर्डिंग हो या अखबार butके पन्ने सभी जगह बापू हैं लेकिन बा गायब है. ऐसा आखिर क्यों है! जिस बा को बापू ‘पहली  गुरु’ कह रहे हैं, क्या उसकी आज कोई प्रासंगिकता नहीं है? यह कैसे हो सकता है कि हमें बापू चाहिए बा नहीं! क्या बापू की छाया में बा की काया धुंधली हो जाती है जिसे 21वीं सदी का डिजिटल समाज देख नहीं पाता है ? क्या हमारा समाज नायकों के उत्सव का समाज है जहाँ नायिकाएँ  इतिहास से भी ओझल हो जाती हैं? इन प्रश्नों से टकराए बिना कैसे बापू की जयंती आहुति की जा सकती है.

बापू

कस्तूरबा (बा) के बिना आखिर बापू का उत्सव कैसा क्योंकि बापू का तो मानना था कि ‘बा मेरे जीवन में ताने-बाने की तरह समाई है’.इस ताने-बाने को आखिर क्यों तार-तार किया जा रहा है? soजबकि भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बा की भी बड़ी भूमिका थी .उनका कद बापू की छाया से मुक्त भी था. इस बात बापू ने कई बार दोहराया है. फिर भी हमारा समाज बापू को ‘सेलिब्रेट’ करता है और बा को भुला देता है .

जेल

बा के जेल जाने के बाद becauseसत्याग्रह की गूँज घर-घर तक सुनाई देने लगी और वैश्विक समाज संघर्ष के एक नए स्वरूप से परिचित हुआ. दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष ने बापू को जहाँ दुनियाभर में पहचान दिलाई तो वहीं बा नेपथ्य में रहीं. इसका कारण बापू की छाया और समाज का नजरिया था, जो आज तक बना हुआ है.

छाया

आरंभिक दिनों में बापू के संघर्ष से लेकर अंतिम दौर तक बा उनके साथ खड़ी रहीं. दक्षिण अफ्रीका में जहाँ से बापू ने सार्वजनिक जीवन में कदम रखा और सत्य तथा अहिंसा का प्रयोग किया वहाँ उनके संघर्ष में बा मौजूद थीं. बा की मौजूदगी अपनी पहचान और अस्तित्व के साथ थी. वह बापू की छाया नहीं थी बल्कि हम राही थीं. जीवन because और संघर्ष दोनों के पथ पर. बा ने दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं को सत्याग्रह के लिए तैयार किया और उन्हें अधिकारों के प्रति सचेत भी करती रहीं. बापू के सत्याग्रह को इससे बड़ी ताकत मिली और बापू का संघर्ष घर-घर तक बा के जरिए ही पहुंचा. दक्षिण अफ्रीका में बा को जेल भी हुई लेकिन उन्होंने संघर्ष और सत्य का रास्ता नहीं छोड़ा.

सत्याग्रह

बा के जेल जाने के बाद सत्याग्रह की गूँज becauseघर-घर तक सुनाई देने लगी और वैश्विक समाज संघर्ष के एक नए स्वरूप से परिचित हुआ. दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष ने बापू को जहाँ दुनियाभर में पहचान दिलाई तो वहीं बा नेपथ्य में रहीं. इसका कारण बापू की छाया और समाज का नजरिया था, जो आज तक बना हुआ है.

विदेशी

1922 में जब विदेशी becauseकपड़ों का परित्याग कर स्वदेशी का संघर्ष बापू ने चलाया तो ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें जेल में डाल दिया. बापू के जेल जाने के बाद बा ने उस पूरे आंदोलन को जीवित रखा और गुजरात के गाँव-गाँव का दौरा कर बापू का संदेश लोगों तक पहुंचाया. साथ ही जगह- जगह पर विदेशी कपड़ों की होली भी जलवाई. बा के व्यक्तित्व में नेतृत्व के सभी गुण थे.

सक्रिय

1915 में बा और बापू स्वदेश लौट आए. स्वदेश लौटने के बाद बापू ने भारत भ्रमण किया तो बा ने पारिवारिक संरचना में स्त्री की स्थितियों को जानने व समझने में समय लगाया. becauseबा अब एक परिचित नाम था. भारत लौटने के बाद बा भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय हो गईं. चंपारण सत्याग्रह, खेड़ा सत्याग्रह, और राजकोट संघर्ष में बा की सक्रिय सत्याग्रही की भूमिका रही. यह भूमिका बापू के संघर्ष से अलग थी और कई बार बापू की गैर मौजूदगी में बा ने ही स्वतन्त्रता संग्राम को आगे बढ़ाया .1917-18 में जब बापू ने किसानों के दमन और शोषण के खिलाफ चंपारण becauseआंदोलन चलाया तो उसमें सक्रिय और मुखर तौर पर बा नज़र आती हैं. बा ने महिलाओं को संघर्ष से जोड़ा और उनकी दुख तकलीफ़ों को समझने का प्रयास किया.

सक्रिय

आरंभ से ही बापू के आंदोलनों में महिलाओं की बड़ी भागीदारी रही. इसका कारण थीं बा. 1922 में जब विदेशी कपड़ों का परित्याग कर स्वदेशी का संघर्ष बापू ने चलाया तो ब्रिटिश हुकूमतbecause ने उन्हें जेल में डाल दिया. बापू के जेल जाने के बाद बा ने उस पूरे आंदोलन को जीवित रखा और गुजरात के गाँव-गाँव का दौरा कर बापू का संदेश लोगों तक पहुंचाया. साथ ही जगह- जगह पर विदेशी कपड़ों की होली भी जलवाई. बा के व्यक्तित्व में नेतृत्व के सभी गुण थे. इसका एक परिचय तब मिलता है जब 1930 में दांडी मार्च के बाद बापू जेल चले गए और उन्हें जिस सभा को संबोधित करना था उसे फिर बा ने संबोधित किया और बापू का संदेश लोगों तक पहुंचाया. इसके बावजूद बा ‘नायक’ नहीं है.

बा

बापू का जो त्याग और समर्पण राष्ट्र के लिए था उससे रत्ती भर कम बा का नहीं था .उनके जीवन का भी काफी समय जेल में बीता .जीवन के अंतिम दिनों में भी वह जेल में ही थीं. becauseउनकी सामाजिक सक्रियता के कारण 1932-33  में उनका अधिकांश समय जेल में बीता. लेकिन इन सब के बाद भी उनका संघर्ष जारी रहा. 1939 में उन्होंने राजकोट रियासत के विरोध में सत्याग्रह किया और फिर जेल जाना पड़ा. बा का संघर्ष किसी मायने में बापू से कम नहीं है .बा और बापू के बीच में जो सामाजिक संघर्षों की साझेदारी थी उसमें बा की भूमिका बड़ी अहम थी. because बा, पारिवारिक साझेदारी के साथ सामाजिक संघर्ष में थीं जबकि बापू सबकुछ त्यागकर महात्मा के रूप में. इसलिए बा का संघर्ष कई मायनों में देश, समाज के लिए बापू से बड़ा था. उसके बावजूद भी बा नेपथ्य में ही रहीं और हैं.

आज

आज एक तरफ बापू हैं तो बा सिरे गायब जबकि बापू, बा के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते थे. आशा प्रसाद ने अपनी किताब ‘कस्तूरबा, कमला, प्रभावती’ में बा के becauseअंतिम क्षणों का जिक्र करते हुए बापू के हवाले से लिखा है कि- ‘बा के बिना जीवन की मैं कल्पना नहीं कर सकता. मैं चाहता था कि बा मेरे रहते चली जाए, ताकि मुझे चिंता न रहे कि मेरे बाद उसका क्या होगा. वह मेरे जीवन का अविभाज्य अंग थी. उसके जाने से जो सूनापन पैदा हो गया है, वह कभी नहीं भर सकता’. बापू का सूनापन आज भी बरकरार है. यह सूनापन तब-तब और बढ़ता जाता होगा जब-जब हम बापू को धूमधाम से याद करते हैं और बा को भुला देते हैं.

बापू को याद करने की जो हमारी because रस्मी योजनाएँ रहीं उनसे हमने बापू के सुनेपन को और बढ़ाया ही. अगर हम वाकई में बापू को याद रखना चाहते हैं तो हमें बा को याद रखना होगा क्योंकि बिना बा के बापू का उत्सव अधूरा ही है.

बा

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)

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