‘पृथ्वी दिवस’ पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आज 22 अप्रैल का दिन अंतरराष्ट्रीय जगत में ‘पृथ्वी दिवस’ (Earth Day) के रूप में मनाया जाता है. पृथिवी के पर्यावरण को बचाने के लिए ‘पृथ्वी दिवस’ की स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में की गई थी. ‘पृथ्वी दिवस’ की अवधारणा सभी पहाड़, नदियों, वनस्पतियों, महासागर, ग्राम-नगरों
के पर्यावरण संतुलन की चिंता को अपने आप में समाहित किए हुए.भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो पूरे ब्रह्माण्ड में पर्यावरण की शांति ‘पृथ्वी दिवस’ का मूल विचार है.अंतरराष्ट्रीय जगत
मैंने अपने शोधग्रंथ “अष्टाचक्रा अयोध्या : इतिहास और परंपरा” (उत्तरायण प्रकाशन, दिल्ली, 2006) में ‘भारतराष्ट्र’ की अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए ‘पृथु वैन्य’ के
इतिहास पर भी विस्तार से चर्चा की है.और यह बताने का प्रयास किया है कि हमारे भारत में पृथिवी की रक्षा का विचार लोकतंत्र की रक्षा का भी मूल विचार है.अंतरराष्ट्रीय जगत
भारत में लोकतंत्र का राष्ट्रीय इतिहास ‘भारतराष्ट्र’ की अवधारणा से ही प्रारम्भ होता है और यह भरतवंशी या सूर्यवंशी राजाओं की ऐतिहासिक धरोहर भी है. प्राचीन भारत में ‘राष्ट्र’
की अवधारणा हो या ‘भारतवर्ष’ का नामकरण, राज्य संस्था के उद्भव और विकास की बात हो या पृथिवी की रक्षा और लोकतंत्र की रक्षा की चर्चा तब तक अधूरी ही मानी जाएगी जब तक कि ‘पृथु वैन्य’ की ऐतिहासिक परम्परा का भी आकलन न कर लिया जाए.अंतरराष्ट्रीय जगत
राजा पृथु भारत वंशियों के आदिकालीन वेन के पुत्र थे इसलिए उन्हें ‘पृथु वैन्य’ के नाम से जाना जाता है (ऋ. 8.9.10). शतपथ ब्राह्मण में इसका निर्देश ‘पृथु’ नाम से किया गया है.
किन्तु अथर्ववेद में ‘पृथिन्’ नाम आया है (अ.वे. 8.28.11). प्राचीन ग्रंथों में ‘पृथु वैन्य’ के लिए ‘आदिराज’, ‘प्रथमनृप’, ‘राजेंद्र’, ‘राजराज’, ‘चक्रवर्ति’, ‘विधाता’, ‘इन्द्र’, ‘प्रजापति’ आदि अनेक उपाधियां प्रयुक्त की गई हैं. महाभारत के शांतिपर्व में सोलह श्रेष्ठ राजाओं में ‘पृथु वैन्य’ का भी नाम आया है (म.शां.29.132). वाल्मीकि रामायण में इन्हें अनरण्य का पुत्र तथा त्रिशंकु का पिता कहा गया है.अंतरराष्ट्रीय जगत
हम यहां इन वैदिक प्रमाणों को इसलिए उदधृत करना चाहते हैं ताकि आज के भारतवासियों को यह मालूम हो सके कि जिस पृथिवी माता का दिवस हम आज अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में मना रहे हैं उसका ‘पृथिवी’ नामकरण ‘पृथु वैन्य’ के नाम पर हुआ था. शतपथ ब्राह्मण ( 5.3.4) तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.7.5.1) आदि वैदिक साहित्य में
इसका विशेष उल्लेख आया है. भारत के पौराणिक इतिहास की दृष्टि से ‘पृथु वैन्य’ चाक्षुष मन्वन्तर में पैदा हुए थे. ध्रुव उत्तानपाद राजा के पश्चात् ‘पृथु वैन्य’ का युगारंभ होता है.’पृथु वैन्य’ के पश्चात् पृथ्वी वैवस्वत मनु एवं उसके वंश का राज्य शुरु होता है . एक उदार दान दाता, कृषि का आविष्कर्ता, एवं मनुष्य तथा पशुओं के अधिपति के रूप में वैदिक साहित्य में ‘पृथु वैन्य’ का सम्मान सहित अनेक बार उल्लेख आया है (ऋ.10.93.14, पंच.ब्रा.13.5.19).अंतरराष्ट्रीय जगत
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मगर हमारे देश के इतिहास ग्रन्थों में
ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों द्वारा ‘पृथु वैन्य’ और उनकी निर्मिति ‘पृथिवी’ के इस ऐतिहासिक उपाख्यान को जानबूझ कर छिपाया जाता है ताकि मानवीय सभ्यता के इतिहास में योरोप की पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठ और प्राचीन भारतीय सभ्यता को बर्बर आदिवासियों की सभ्यता सिद्ध किया जा सके. वेदों को गड़रियों के गीत कहने वाले पश्चिमी इंडोलॉजिस्ट ‘पृथु वैन्य’ के प्रागैतिहासिक चरित्र को इसलिए भी महत्त्व नहीं देते हैं क्योंकि इस इतिहास चरित्र से उनकी विदेशी आर्य आक्रमण की विकृत इतिहास दृष्टि ही खंडित होने लगती है.अंतरराष्ट्रीय जगत
इस संदर्भ में हम बताना चाहेंगे कि भारत के प्राचीन पौराणिक इतिहास के अनुसार स्वयंभुव मनु के वंशज अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसी पुत्री सुनीथा से हुआ था. वेन उनका पुत्र था. सिंहासन पर बैठते ही वेन ने यज्ञ-कर्मादि बंद कर दिये और वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा. तब वेन के तानाशाही शासन के अत्याचारों से
तंग आकर ऋषियों ने मंत्रपूत कुशों से अत्याचारी राजा वेन को मार डाला.उसके बाद चारों ओर अराजकता और हाहाकार मच गया. ऐसे में राजशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए निःसन्तान मृत वेन की भुजाओं का ऋषि-मुनियों द्वारा मन्थन किया गया जिससे एक दिव्य स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ. पुरुष का नाम ‘पृथु’ रखा गया तथा स्त्री का नाम ‘अर्चि’. वे दोनों पति-पत्नी हुए. भागवत महापुराण (4.15.2,6) में उन्हें भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का अंशावतार कहा गया है.अंतरराष्ट्रीय जगत
भागवत महापुराण (4.13.20) के अनुसार भूमण्डल पर सबसे पहले राज्यसंस्था की नींव डालने के कारण पृथु को पृथ्वी का प्रथम राजा माना गया है. ‘पृथु वैन्य’ ने भूमि को अपनी कन्या मानकर
उसका पोषण किया. इसी लिए ‘भूमि’ को भी ‘पृथुकन्या’ या ‘पृथिवी’ कहते हैं (विष्णु.1.13, ब्रह्मांड.2.37)अंतरराष्ट्रीय जगत
पृथ्वीदोहन और कृषिसभ्यता का उदय
भारतीय सभ्यता और संस्कृति में पृथु के द्वारा पृथ्वी के दोहन की कथा वैदिक वाङ्मय से लेकर महाभारत व पुराणों में परम्परागत रूप से चली आ रही है. इस कथा के अनुसार ‘पृथु वैन्य’
ने ही सर्वप्रथम पृथ्वी को समतल रूप दिया, उसे धन-धान्य से पूरित किया, उसमें अन्नादि उपजाने की कृषि कला से लोगों को परिचित कराया (भागवत पुराण, 4.18.32) और आखेट युग की अराजक युग परिस्थितियों के उपरांत एक नई सुव्यवस्थित मानव सभ्यता की स्थापना भी की.अंतरराष्ट्रीय जगत
कृषि के साथ साथ नगर व्यवस्था का आदि जनक भी ‘पृथु वैन्य’ ही था. इससे पहले लोग पशुपक्षियों और वन्य प्राणियों को मार कर उनका मांस भक्षण करके गुजारा करते थे. पृथ्वी के जैविक
पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए पृथु ने कृषि व्यवस्था और पशुपालन के द्वारा लोगों को अपनी जीवकोपार्जन के गुर सिखाए. राजा पृथु ने लोगों को पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई निधियों जैसे औषधि,धान्य, रस, स्वर्णादि, धातु, रत्न आदि प्राप्त करने की विधि का भी ज्ञान कराया. महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाजन नहीं था, लोग अपनी मनमर्जी से जहां-तहां बस जाया करते थे.अंतरराष्ट्रीय जगत
शतपथ ब्राह्मण में ऐसे घुमन्तु चलते फिरते ग्रामों का उल्लेख मिलता है. लेकिन पृथु ने इधर उधर घुमन्तु कबीलाई लोगों को एक जगह स्थायी रूप से बसने की व्यवस्था कायम की. इस तरह,
ग्राम, पुर, पत्तन, दुर्ग, घोष, व्रज, शिविर, खेट, खर्वट-आदि नई नई आवासीय बस्तियों का निर्माण होने लगा.अंतरराष्ट्रीय जगत
दरअसल ,’पृथु वैन्य’ उपाख्यान के साथ अराजकता से राजनैतिक सुशासन, तानाशाही से लोकतंत्र और प्रजा के अत्याचार से प्रजा के कल्याण का इतिहास भी जुड़ा है. महाराज पृथु अत्यन्त लोक हितकारी चक्रवर्ती सम्राट थे.भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ‘पृथु वैन्य’ का चरित्र इस लिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पृथु ने पृथ्वी के समस्त मनुष्यों एवं प्राणियों को हिंसक पशुओं,चोरों एवं दैहिक विपत्तियों से मुक्त कराया.अपनी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था द्वारा यक्ष राक्षस, द्विपाद चतुष्पाद सारे
प्राणियों के जीवन को सुखकर बनाया . इसने अपने राज्य में धर्म को प्रमुखता दी एवं राज्यशासन के लिए दण्डनीति की व्यवस्था दी. प्रजा की रक्षा एवं पालन, करने के कारण इसे ‘क्षत्रिय’ तथा ‘प्रजारंजक सम्राट’ की उपाधि से विभूषित किया गया (म.शां.59.104-140) पृथु ने हर एक व्यक्ति को अपनी वृत्ति के अनुसार आजीविका का साधन उपलब्ध कराया.इसी कारण ‘पृथु वैन्य’ भारतीय लोकतांत्रिक राज्य संस्था के संदर्भ में मान्य एवं पूज्य बन गए. (ब्रह्मांड.2.37.1-11).अंतरराष्ट्रीय जगत
महाभारत के अनुसार, कृतयुग में धर्म का
राज्य था.अतएव उस काल में दण्डनीति की आवश्यकता नहीं थी.कालान्तर में लोग मोहवश होकर राज्यव्यवस्था को क्षीण करने लगे. इसी कारण शासन के लिए राजनीति, शासनव्यवस्था एवं राजा की आवश्यकता पडी. इस ऐतिहासिक विकासक्रम में पृथु ही पृथ्वी का प्रथम शासक था.अंतरराष्ट्रीय जगत
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार,पृथ्वी में सर्वप्रथम राजा पृथु का ही राज्याभिषेक हुआ.इस राज्याभिषेक के कारण ग्राम्य एवं आरण्यक व्यक्तियों एवं पशुओं का पृथु राजा कहलाया (श.ब्रा.5.3.5.4). इसने ‘पार्थ’ नामक साम की आहुति देकर पृथ्वी का आधिपत्य प्राप्त किया (पं.ब्रा13.5.20). पृथु के राज्याभिषेक के समय भिन्न भिन्न देवों ने इसे विविध प्रकार के उपहार प्रदान किये. इन्द्र ने अक्षय्य धनुष एवं स्वर्ण मुकुट, कुबेर ने स्वर्णासन,यम ने दण्ड, बृहस्पति ने कवच, विष्णु ने सुदर्शन चक्र, रुद्र ने चन्द्रबिम्बांकित तलवार, त्वष्टा ने रथ और समुद्र ने शंख दिया .
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राज्याभिषेक होने के उपरांत पृथु ने प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे ब्रह्मावर्त में सौ अश्वमेध करने का संकल्प किया. निन्यायवे यज्ञ पूरे ही जाने के बाद इन्द्र को शंका हुई कि, कहीं यह मेरा इन्द्रासन न छील ले. इसलिए उसने यज्ञ के अश्व को बारंबार चुराने का प्रयास किया. इस पर क्रोधित होकर पृथु इन्द्र का वध करने को उद्यत हुआ.
दोनों में संघर्ष न हो, इस भय से बृहस्पति तथा विष्णु ने मध्यस्थ होकर, दोनों में मैत्री कराई.भागवत महापुराण के अनुसार अत्रि ऋषि की सहायता से पृथु-पुत्र विजिताश्व ने इन्द्र को पराजित किया था (भा.4.19). तभी पृथु ने महर्षियों को आश्वासन दिया,कि ‘मैं धर्म के साथ राज्य करुँगा.आप मेरी सहायता कीजिये’. महर्षियों ने इसे अपना आशीर्वाद देते हुए ‘तथास्तु’ कहा. तत्पश्चात् शुक्र इसके पुरोहित बने और वालखिल्य-सारस्वत्य,गर्ग-सांवत्सर,अत्रि-वेदकारक, नारद-इतिहास, सूत,मागध और बंदिजन ये ऋषिगण इनके ‘अष्टमंत्री’ के रूप में प्रसिद्ध हुए.महाभारत में इसका उल्लेख आया है-“पुरोधाश्चाभवत्तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः.
मन्त्रिणो वालखिल्यास्तु सारस्वत्यो गणो ह्यभूत्.
महर्षिर्भगवान्गर्गस्तस्य सांवत्सरोऽभवत्.
आत्मनाष्टम इत्येव श्रुतिरेषा परा नृषु.
उत्पन्नौ बन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ..”
–महा.शान्ति.59.116-118
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पृथु की लोकमंगलकारी राजप्रतिज्ञा
महाभारत के अनुसार राज्याधिकार प्राप्त करने से पहले ऋषियों ने ‘पृथु वैन्य’ से जो शपथ ग्रहण करने को कहा,वह निस्संदेह हजारों वर्ष पुरानी राजतंत्र के जमाने की घटना है.किन्तु आज के संदर्भ में वह कितनी लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों की दृष्टि से प्रासंगिक है,इस पर भी खास गौर करने की जरूरत है.ऋषियों के आदेश पर राजा पृथु राज्य ग्रहण से पहले शपथ लेते हुए कहते हैं-
“नियतो यत्र धर्मो वै,तमशङ्कः समाचर.
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प्रियप्रिये परित्यज्य, समः
कामक्रोधौ न लोभं च,मानं चोत्सृज्य दूरतः
यश्च धर्मात्प्रविचलेल्लोके कश्चन मानवः॥
निग्राह्यस्ते स बाहुभ्यां शश्वद्धर्ममवेक्षतः.
प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व, मनसा कर्मणा गिरा॥
पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत्.”
–महा.शान्ति.59.109-112
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अर्थात् में नियत धर्म को निर्भयता के साथ आचरण में लाऊँगा.अपनी,रुचि तथा अभिरुचि को महत्त्व न देकर समस्त प्राणियों के साथ समता का व्यवहार करुँगा.मैं,काम, क्रोध, लोभ और अभिमान
को छोडकर धर्मच्युत व्यक्तियों को शाश्वत धर्म के अनुसार दण्ड दूँगा. मैं मनसा वाचा कर्मणा बार बार प्रतिज्ञा करता हूँ कि प्रजा जन को ‘भौमब्रह्म’ समझकर उसका पालन करुँगा.अंतरराष्ट्रीय जगत
राजनीति की दृष्टि से इस पृथु वैन्य द्वारा प्रतिज्ञा में ‘नियतधर्म’ यानी राजधर्म एवं ‘शाश्वतधर्म’ यानी मानव धर्म के पालन पर जो बल दिया गया है,वह वर्त्तमान संदर्भ में भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण
और अनुकरणीय है. आज भारत में लोकतंत्र है किंतु यह गुणवत्ता की दृष्टि से ‘पृथु वैन्य’ द्वारा हजारों वर्ष पूर्व प्रतिपादित राजधर्म से बराबरी नहीं कर सकता है.यह देखने की बात है कि आज किस तरह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी राजनैतिक दलों ने और संकीर्ण मनोवृत्ति के धार्मिक संगठनों ने देश का माहौल बिगाड़ रखा है? इनसे अच्छा तो हमारे देश का हजारों वर्ष पुराना राजतंत्र का जमाना था जिसकी लोकतांत्रिक आस्था मानवतावादी मूल्यों के आधार पर प्रजा पालन में तत्पर थी और राजा अपनी प्रजा की ‘भौमब्रह्म’ की भावना से पालना करता था.अंतरराष्ट्रीय जगत
राज्य में विभिन्न धर्मो के मानने वाले
व्यक्ति हो सकते हैं, पर राजा उन सबको एक सूत्र में बांधकर जिस राजधर्म के द्वारा अपना राजकाज चलाता है वह समन्वयवादी, समतामूलक और सर्वजनहिताय होना चाहिए.अंतरराष्ट्रीय जगत
प्राचीन भारत में राज्याभिषेक के समय की गई पृथु वैन्य की प्रतिज्ञा में ‘नियत’ एवं ‘शाश्वत’ धर्म के पालन से यही तात्पर्य है कि राजा सदा अपनी प्रजा की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करेगा और शाश्वत धर्म के मानवीय मूल्यों के अनुसार ही राजकाज चलाएगा. ‘पृथु वैन्य’ की यह प्रतिज्ञा इग्लैण्ड आदि की राज्य-प्रतिज्ञा से भी बहुत कुछ
मिलती जुलती है.अन्तर केवल इतना है,कि वहां की प्रतिज्ञा किसी विशेष धर्म-प्रणाली में ही आबद्ध है,पर पृथु द्वारा ग्रहण की गयी उपर्युक्त राज प्रतिज्ञा अखिल मानव-धर्म को ही राजधर्म मानकर उसे ही प्रतिस्थापित करने की बात कहती है. कालिदास के रघुवंश में प्राप्त रघु राजा की प्रशस्ति में भी,‘प्रकृति रंजन’ प्रजा का ‘विनयाधान’ एवं ‘पोषण’ आदि शब्दों द्वारा यही कल्पना दोहरायी गयी है. महाभारत के अनुसार, पृथु के अश्वमेध यज्ञ में अत्रि ऋषि ने राजा पृथु को ‘प्रथमनृप’, ‘विधाता’, ‘इंद्र’ और ‘प्रजापति’ कहकर इसका महामंडन किया है.आज भारत सहित समूचे वैश्विक धरातल पर जल‚ जंगल और जमीन जैसे मूलभूत प्राकृतिक संसाधनों का इतनी निर्ममता से संदोहन किया जा रहा है‚ जिसके कारण प्राकृतिक
जलचक्र गड़बड़ा गया है.
‘पृथु वैन्य’ को किस प्रदेश का
स्वामी या राजा माना जाए निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है किंतु महाभारत से ज्ञात होता है कि उसने मगध और आनूप प्रदेश की भूमियां क्रमशः ‘मागध’ और ‘सूत’ को दान स्वरूप दीं थीं. इसलिए ‘पृथु वैन्य’ का राज्य मगध में अवश्य रहा होगा-“आत्मनाष्टम इत्येव श्रुतिरेषा परा नृषु.
उत्पन्नौ बन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ..
समतां वसुधायाश्च स सम्यगुपपादयत्.
वैषम्यं हि परं भूमेरासीदिति ह नः श्रुतम्..”
–महा. शान्ति.,59.118-119
चिंता की बात यह है कि ‘पृथु वैन्य’ के इस इतिहास को हमारे हिंदुत्व वादी संगठनों ने भी भुला दिया है जिसके कारण भारत आज पर्यावरण संकट,ग्लोबलवार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है. आज भारत सहित समूचे वैश्विक धरातल पर जल‚ जंगल और जमीन जैसे मूलभूत प्राकृतिक संसाधनों का इतनी निर्ममता से संदोहन
किया जा रहा है‚ जिसके कारण प्राकृतिक जलचक्र गड़बड़ा गया है. भारत के लगभग अस्सी प्रतिशत गांव कृषि एवं पेयजल के लिए आज भी भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं परन्तु बढ़ती आबादी तथा व्यावसायिक योजनाओं के कारण जल की मांग बढ़ती जा रही है तथा जलापूर्ति के स्रोत दिन-प्रतिदिन घटते जा रहे हैं.चिन्ता का विषय यह भी है कि पर्यावरण विज्ञान का एक गौरवशाली इतिहास रखने वाला भारत जैसा देश पर्यावरण समस्या का निदान और समाधान रखने में असमर्थ रहा है. तपोवन संस्कृति का पुरोधा हमारा यह प्रकृति-उपासक देश अपने ही देश में पर्यावरण के प्रति इतना संवेदन शून्य हो चुका है जिसकी वजह से आज हमारे पास पीने के लिए शुद्ध जल नहीं है और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा का सर्वथा अभाव है. नदियों के प्रदूषण ने एक ज्वलंत समस्या का रूप धारण कर लिया है.
जंगल कटते जा रहे हैं और जल के प्राकृतिक स्रोत नष्ट हो रहे हैं.समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि पिछले अनेक वर्षों से देश के अनेक राज्य भीषण सूखा और जल संकट की मार झेल रहे हैं.पश्चिम में पृथ्वी दिवस के रूप में पर्यावरण संरक्षण तथा पृथ्वी बचाओ का आन्दोलन आज से 48वर्ष पहले 1970 में शुरु हुआ है किन्तु भारत एक ऐसा देश है जिसने आठ हजार वर्ष पहले
पर्यावरण संरक्षण को ‘राष्ट्र धर्म’ बना दिया था. ‘ऋग्वेद’ में ‘धर्म’ की जो सनातन परिभाषा दी गई है उसके अनुसार कोई भी राष्ट्र यदि अपना भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास चाहता है तो उसे सर्वप्रथम ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाले ‘ऋत’ एवं ‘सत्य’ नामक प्रकृति के नियमों तथा संसाधनों की रक्षा को अपना प्रधान ‘धर्म’ मानना होगा-अंतरराष्ट्रीय जगत
“तानि धर्माणि
-ऋग्वेद‚ 10.90.16
दरअसल‚ धरती को माता और द्युलोक
को पिता मानने का पर्यावरणवादी विचार उसी ‘भारतराष्ट्र’ के अनुयायियों का हो सकता है जो स्वरूप से प्रकृतिमूलक हो. वस्तुतः अपने देश को तथा अपनी जन्मभूमि को मातृतुल्य मानने की अवधारणा का विकास ऋग्वेद के काल में इसी लिए हुआ ताकि पृथ्वी के पर्यावरण की मातृभाव से रक्षा हो सके-“बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्”
–ऋग्वेद‚ 1.164.33
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आइए आज ‘पृथ्वी दिवस’ के अवसर पर हम
सब इस ‘पृथ्वीमाता’ की भावना से जुडें और अपने गौरवशाली ‘भारतराष्ट्र’ को प्रदूषण से मुक्त करें.अंतरराष्ट्रीय जगत
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)