श्रीकोट का ‘गुयां मामा’

  • डॉ. अरुण कुकसाल

मानवीय बसावत में जीवन के because कई रंग दिखाई देते हैं. ये बात अलग है कि कुछ रंगों को हम अपनी सुविधा से सामाजिक मान-प्रतिष्ठा देकर गणमान्य बना देते हैं. और, कुछ रंग सामाजिक जीवन में बिखरे-गुमनाम से यहां-वहां दिखाई देते हैं. वे अपने आपको समेटे, पर पूरी संपूर्णता के साथ मदमस्त जीवन जीते हैं. यद्यपि दुनियादारी में फंसे लोग उनके प्रति बेचारगी और सहानुभूति के भाव से ऊपर नहीं उठ पाते हैं. but लेकिन ऐसे मस्त फक्कडों की जीवंतता सामान्य लोगों को हैरान करती है. जिस दिन वो न दिखे तो उससे उपजा खालीपन मन को कचौटता है. ऐसे ही हैं श्रीकोट के ‘गुंया मामा’ जो हर शहर-देहात के वो चेहरा हैं जिनसे चंद ही लोग सही पर वे बे-पनाह मोहब्बत और सम्मान करते हैं.

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फक्कड़ी का मस्तमौला because बादशाह ‘गुयां मामा’ बोलते कम और हंसते ज्यादा है, दुनिया पर और अपने आप पर. बरस 72 में 27 की उमर की उमंग उनके चेहरे पर विराजमान है. ढ़लान की उम्र ने चलने-फिरने में थोड़ा दिक्कत जरूर की है पर मन की रौनक से उम्र का क्या वास्ता? ताउम्र दिन-रात फक्कड़ी में जीने वाले ‘गुयां मामा’ के बारे में आप जानना चाहेंगे.

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आप श्रीकोट (श्रीनगर गढ़वाल) में रहते हैं और ‘गुयां मामा’ को नहीं जानते. ये तो ताज्जुब वाली बात है. फक्कड़ी का so मस्तमौला बादशाह ‘गुयां मामा’ बोलते कम और हंसते ज्यादा है, दुनिया पर और अपने आप पर. बरस 72 में 27 की उमर की उमंग उनके चेहरे पर विराजमान है. ढ़लान की उम्र ने चलने-फिरने में थोड़ा दिक्कत जरूर की है पर मन की रौनक से उम्र का क्या वास्ता? ताउम्र दिन-रात फक्कड़ी में जीने वाले ‘गुयां मामा’ के बारे में आप जानना चाहेंगे. तो फिर देर किस बात की-

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देवप्रयाग के पास ही है कोठी गांव.but कोठी के कोटियाल हुए ‘गुयां मामा’. रामसेवक कोटियाल नाम रखा माता-पिता ने अपने एकलौते पुत्र का. पर जगत में पहचान मिली ‘गुयां मामा’ से. ‘गुयां’ नामकरण की भी अजब कहानी है. वैसे यह बात अजब आज के जमाने के हिसाब से हुई. पचास साल पहले हमारे समाज में यह सामान्य चलन रहा होगा. बडे-बुर्जुगों से ऐसे किस्से हम और आपने बहुत सुने होंगे. तब के जमाने में because अपने बच्चे पर किसी और की बुरी नजर न लगे इसलिए उसका कोई बिगड़ा नाम रख लेते थे. इस टोटके के वशीभूत होकर दिखावे के रूप में बच्चे की परवरिश में लापरवाही भी रखी जाती थी. ताकि बुरा चाहने वालों और अनिष्टकारी प्रेतात्माओं की नजर बच्चे पर न जाए.

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इसी अंधविश्वास का शिकार बचपन में रामसेवक कुटियाल भी हुए. उनके मां-पिताजी की उनसे पहले की संतानें पैदा होते ही प्रभु को प्यारी हो जाती थी. जब उनका जन्म हुआ तो ये so सोचकर इस बच्चे पर किसी की बुरी नजर न लगे, ऐसा ही टोटका अपनाया गया. नतीजन, पैदा होते ही ‘गुयां’ नाम (किसी काम का नहीं/बेकार) उनका हो गया. चलो, नाम तो बाद में उनका सुधर भी जाता परन्तु मां-पिताजी ने परवरिश में ऐसी लापरवाही बरती कि पढ़ने-लिखने और हुनर से उनका नाता ही नहीं जुड़ पाया.

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‘गुयां मामा’ का पुश्तैनी काम बद्रीनाथ में पण्डागिरि हुई. लिहाजा, बचपन में इधर-उधर भटकने के बाद किशोरावस्था में पिताजी के साथ पण्डागिरी से जुड़ गए. because यात्रा सीजन में बद्रीनाथ और सर्दियों में देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में ‘गुयां’ जी का जीवन गुजरने लगा. परन्तु माथे पर फक्कड़ी का चक्र जो बना था. इसलिए एक जगह वे क्यों रहते? पैदल कहीं के कहीं निकल जाते फिर महीनों बाद वापस घर आना होता था.

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देवप्रयाग से बद्रीनाथ और ऋषीकेश because पैदल आना-जाना जीवन में कई बार हुआ. घर-गृहस्थी और जमीन-जायदाद से कभी मोह ही नहीं हुआ. जब तक मां-पिताजी जिन्दा थे तो कोई विशेष परेशानी नहीं हुई. परन्तु मां-बाप गुजरने के बाद पैरों के नीचे धरती और सिर के ऊपर खुला आसमान ही उनका अपना था. मतलब की दुनिया से तो वो कब का किनारा कर चुके थे.

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गुयां जी को श्रीकोटी ननिहाल because में भान्जा कहने वाले अब तो गिनती के ही होगें पर मामा कहने वाले चारों ओर हैं. असली बात यह भी है कि बचपन से उन्हें ‘गुयां मामा’ कहने वाले भी अब बुजुर्ग हो गए हैं. उनके खाने-पीने, पहने और रहने की व्यवस्था में श्रीकोट के लोग पीछे नहीं रहते हैं.

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श्रीकोट (श्रीनगर गढ़वाल) ननिहाल because हुई इसलिए यहां रहना उन्हें बचपन से ही प्रिय था. बचपन से जवानी तक महीनों ननिहाल में रहते गुजर जाते थे. मां-पिताजी के मृत्यु के बाद कुछ काम-धाम करने की कभी इच्छा ही नहीं हुई. मन हुआ किसी होटल या दुकान में कुछ महीने काम कर लिया. काम करने से मन भर गया तो जहां मन हुआ वहां की ओर चल दिए. फिर महीनों गायब. कहने को तो घर-गांव और बद्रीनाथ में because पुश्तैनी जमीन-जायदाद हुई. पर कौन दुनियादारी के लफड़े में पड़े. जिन्दगी में आवारगी से बढ़कर और कौन सी दौलत है ? मतलब फकीरी के सामने किसी भी दौलत की क्या हैसियत है. कुछ साल पहले तक भाई-बंध कभी-कभार मदद कर जाते थे. अब तो कई साल से उनकी तरफ से भी ‘जय श्रीराम’ ही हो गया है.

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श्रीकोटियों का कहना है कि because तकरीबन पिछले चालीस-पचास सालों से ‘गुयां मामा’ श्रीकोट का अहम हिस्सा हैं. गुयां जी को श्रीकोटी ननिहाल में भान्जा कहने वाले अब तो गिनती के ही होगें पर मामा कहने वाले चारों ओर हैं. असली बात यह भी है कि बचपन से उन्हें ‘गुयां मामा’ कहने वाले भी अब बुजुर्ग हो गए हैं. उनके खाने-पीने, पहने और रहने की व्यवस्था में श्रीकोट के लोग पीछे नहीं रहते हैं.

सुबह से शाम because तक ‘मामा ठीक हो’/‘खाना खा लिया’/‘कोई दिक्कत तो नहीं है’/‘कुछ लाना तो नहीं है’ कहने वालों की आवाज सुनते-सुनते ही उनका पूरा समय मजे से कट जाता है. तभी तो दिन हो या रात ‘गुयां मामा’ को श्रीकोट में कहीं भी-कभी भी उसकी मधुर मुस्कराहट के साथ देखा जा सकता है. अपने आप में मदमस्त उनकी ख्यालों की दुनिया में हम जैसे दुनियादारी की चिल्ल-पों में फंसे लोगों का कोई मतलब नहीं है.

(लेखक एवं प्रशिक्षक)

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