शैलेश मटियानी जन्मतिथि पर भावपूर्ण स्मरण

जन्मतिथि (14  अक्टूबर) पर विशेष

  • डॉ. अमिता प्रकाश

“दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही.”

निराला जी की ये पंक्तियाँ जितनी हिंदी काव्य के महाप्राण निराला के जीवन को उद्घाटित करती हैं उतनी ही हमारे कथा साहित्य में अप्रतिम स्थान रखने वाले so रमेश चंद्र सिंह मटियानी का, जिन्हें विश्व साहित्य शैलेश मटियानी के नाम से जानता है. जुआरी बिशन सिंह के बेटे और बूचड़ के भतीजे कि रूप में दुत्कारित यह ’मुल्या छोरा’ किस so प्रकार हिंदी साहित्याकाश का दैदिप्यमान नक्षत्र बना यह अपने आप में कम रोचक कथा नहीं है. उनका साहित्य वस्तुतः उनके जीवन का विस्तार है जो कुछ भोगा वही शब्दों में ढाला. because उनके पास लेखन के लिये इतना भी समय नहीं था कि वह अपने लेखन का सौंदर्यीकरण कर पाते,  दस -बीस पृष्ठ लिखे नहीं कि दो पैसे की चाह में उन्हें छपवाने भेज दिया करते थे.

मत

लेखन उनके लिए जुनून के साथ-साथ so आजीविका कमाने का साधन भी था. लेखन उनके जीवन का लक्ष्य तब बन गया था जब उन्हें “सरस्वती का कीमा काटने वाला’’ कहा गया था. उस दिन दीवार पर because अपना सर but मारकर उन्होंने सरस्वती माँ से न केवल लेखक बनाने की भीख मांगी वरन् प्रण किया कि वह  लेखक बनकर ही रहेंगे. उनके इस प्रण के ही सुखद परिणाम से हिंदी साहित्य ही नहीं विश्व साहित्य को यह अप्रतिम लेखक मिला.

मत

बाड़ेछीना (अल्मोड़ा) के छोटे से कस्बे से विश्व पटल पर छाने वाले इस लेखक के लिये जीवन कितना दुष्कर था, उससे हिंदी का हर पाठक भली भाँति परिचित है. अल्मोड़ा से लेकर इलाहबाद, but मुज्जफरनगर, दिल्ली, मुंबई जहाँ कहीं भी वह गये जीवन ने हर जगह, हर कदम पर उनका कड़ा इम्तिहान लिया. इस इम्तिहान में माँ-बाप के लाड़-प्यार से वंचित, गोर-बछेरू चुगाता, दूसरों की दया पर आश्रित, so लक्ष्मण सिंह तिलारा मास्साब की दया पर पुनः विद्यालय का मुँह देखने वाला, कसाई के निर्मम काम को करने के लिए विवश सहृदय बालक मुंबई व दिल्ली जैसे महानगरों में बरतन धोने से लेकर अन्य निकृष्टतम काम करने को विवश उस आदमी के विभिन्न अवस्थाओं के असंख्य चित्र हैं जो उनके कथा साहित्य में यत्र-तत्र अनायास ही दिख जाते हैं.

मत

लेकिन कहते हैं कि न प्रतिभा साधनों की मोहताज नहीं होती, तो फिर प्रतिभा के शिखरस्थ पुरुष शैलेश मटियानी को कौन रोक सकता था? मात्र तेरह वर्ष की उम्र से अपने साहित्य लेखन की शुरुआत करने वाले शैलेश मटियानी पंद्रह वर्ष की उम्र में एक पुस्तक के लेखक थे. अपनी ’आमा’ के किस्से-कथाओं से कथाओं के so अद्भुत संसार का परिचय पाने वाले बालक रमेश सिंह में कथा कहने की निराली समझ but और विलक्षण शैली थी. जागर कथाओं, पुराण कथाओं और लोक के ताने-बाने से रचा उनका becauseरचना संसार यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा था. वस्तुतः अगर यह कहा जाय कि जीवन की विषम कठोरताओं के बावजूद लेखकीय संवेदनाओं वसुकोमल भावनाओं के संप्रेषण में यह कथाकार अनुपम अद्वितीय है तो अत्युक्ति नहीं होगी.

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नारी मन की संवेदनाओं को because जितनी संजीदगी से मटियानी जी ने अपने लेखन में संजोया वह उससे पहले but नहीं दिखाई देता. यही कारण था कि अनेक आलोचकों ने उन्हें नारी विमर्श का पुरस्कर्ता भी कहा है.

मटियानी जी ने जीवन संघर्षों की उजली आग में अपने साहित्य को तपा कर साँचे में ढाला है. उनके साहित्य में  दलित-दमित मानवता की कराहटें पूर्ण रूप से मुखरित है. because शैलेश मटियानी प्रेमचंद, प्रसाद और यशपाल की परम्परा के कथाकार और उपन्यासकार हैं. वे because कल्पना जीवी नहीं अपितु सत्यान्वेषी यथार्थ के पक्षधर थे. उनका साहित्यिक अवदान अथाह है.

मत

शैलेश मटियानी ने जीवन संघर्षों की उजली आग में अपने साहित्य को तपा कर साँचे में ढाला है. उनके साहित्य में  दलित-दमित मानवता की कराहटें पूर्ण रूप से मुखरित है. शैलेश मटियानी प्रेमचंद, प्रसाद और यशपाल की परम्परा के कथाकार और उपन्यासकार हैं. वे कल्पना जीवी नहीं अपितु सत्यान्वेषी यथार्थ के पक्षधर थे. because उनका साहित्यिक अवदान अथाह है. 30 से अधिक कहानी संग्रह, 31 उपन्यास 3 संस्करण 12 निबन्ध, अपूर्ण अप्रकाशित उपन्यास 15 बाल साहित्य की पुस्तकें लिखने वाले शैलेश जी विकल्प और जनपक्ष के कालजयी संपादक एवं क्रान्तिदर्शी विचारों के उद्गाता साहित्यकार थे. प्रेमचन्द परम्परा के संवाहक लोकधर्मी लेखक शैलेश मटियानी जी का पूरा नाम रमेशचन्द्र सिंह था. 14 अक्टूबर 1931 को ग्राम बाड़ेछीना जनपद अल्मोड़ा में जन्में मटियानी जी हिन्दी कथा जगत को उत्तराखण्ड की अनुपम देन है. अपने अभाव ग्रस्त अधूरे शिक्षित जीवन की विषमताएं कभी भी उनकी अदम्य लेखकीय जिजीविषा को पराजित नहीं कर पायीं.

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छोटी सी उम्र में अपने छोटे भाई और फ्रॉक पहनकर स्कूल के बाहर चने वगैरह बेचती बहन को छोड़कर कुछ करने की आशा में बाहर निकला यह युवक जहाँ भी गया कठिनाइयों ने because इसका पीछा नहीं छोड़ा. किंतु जिस जिजीविषा से इस लेखक ने सब कष्टों पर पार पाया और सतत् रूप से इन विषम स्थितियों में भी अपने लेखन को जारी रखा वह किसी स्वप्न कथा या ‘पांवड़े’ से कम नहीं “पर्वत से सागर तक’’ नामक उनका यात्रा संस्मरण बाड़ेछीना से इलाहबाद, इलाहबाद से मुज्जफरनगर, वहाँ से दिल्ली और फिर दिल्ली से मुंबई पहुँचने के संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है.

शैलेश मटियानी ने अपने कथा साहित्य में  बेधड़क मानवीय जीवन की गहराइयों को खंगालते हुए हमारे सम्मुख समाज के अन्तर्विरोधों के शिकार निम्न वर्गीय वंचितों, शोषितों एवं भूखें नंगों का दर्द बड़े मनोयोग से उजागर किया है. ‘दो दुखों का एक सुख’, ‘इब्बू मलंग’, ‘जिबूका’, ‘महाभोज’, ‘प्रेत मुक्ति’, ‘गोपाल गफूरन’, अहिंसा but और ‘पोस्टमैन’ सरीखी दर्जनों कहानियाँ उनकी श्रेष्ठ लेखन कला का बेजोड़ नमूना हैं. शैलेश मटियानी ने पर्वतीय अंचलों को अपने कथा साहित्य का आधार बनाया है. कूर्मांचल की स्वाभाविक पर्वतीय शोभा और वहाँ के because निवासियों की निद्र्वन्द्व मानसिक स्थिति, सुख-दुःख का उद्घाटन करना ही लेखक का मूल ध्येय रहा है. ’चिट्ठी रसैन’, चैथी मुट्ठी, हौलदार, मुखसरोवर के हंस तथा एक मूठ सरसों आदि उनकी विशिष्ट आंचलिक कृतियाँ मानी जाती है. सूक्ष्म मनोभावों का वर्णन इनकी कथा शैली की एक विशेषता है.

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लोकजीवन की झांकियों को अपनी कथाओं के माध्यम से उभारने के लिए मटियानी जी ने इसी शैली को माध्यम बनाया है. मटियानी जी की भाषा में आंचलिक शब्दों का प्रयोग स्पष्ट मिलता है. so राजेन्द्र यादव उन्हें रेणु से पहले का और बड़ा आंचलिक कथाकार कहते थे तो यह स्वाभाविक ही था. वस्तुतः राजेन्द्र यादव शैलेश जी के बड़े प्रशंसक थे और उनकी प्रतिभा से बखूबी परिचित भी. वह अकसर कहा करते थे-’’मटियानी हमारे बीच वह because अकेला लेखक है जिसके पास दस से भी अधिक नायाब और बेहतरीन कहानियाँ हैं.’’

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नारी टूटन, स्वतन्त्र मानसिकता, because शहरी जीवन निम्न मध्यम वर्ग का संघर्ष आदि उनके कथा साहित्य के मुख्य विषय है. उनके कथा साहित्य की भाषा सरलता सहजता एवं प्रवाहात्मकता लिए हुए हैं. लोकोक्तियों एवं मुहावरों को भी उनके लेखन में देखा जा सकता है- because “अब देखिए चौधरी धरी ब्रजपाल से अपनी हकीकत छिपाना दाईयों से पेट छिपाना है.”  भाषा मर्मज्ञ होने से तथ्य और कथ्य को काट छांट व तराशकर प्रयोग में लाने का कौशल भी उनके पास था.

नारी टूटन, स्वतन्त्र मानसिकता, शहरी जीवन निम्न मध्यम वर्ग का संघर्ष आदि उनके कथा साहित्य के मुख्य विषय है. उनके कथा साहित्य की भाषा सरलता सहजता एवं प्रवाहात्मकता लिए हुए हैं. because लोकोक्तियों एवं मुहावरों को भी उनके लेखन में देखा जा सकता है- “अब देखिए चौधरी धरी ब्रजपाल से अपनी हकीकत छिपाना दाईयों से पेट छिपाना है.”  भाषा मर्मज्ञ होने से तथ्य और कथ्य को काट छांट व तराशकर because प्रयोग में लाने का कौशल भी उनके पास था. उनमें करुणा की गहरी पकड़ थी और मानवीय संवेदनाओं की मार्मिक समझ जैसे कि उनकी कृतियाँ ‘बावन नदियों का संगम’, ‘मुठभेड़ अंहिसा’, ‘चंद औरतों का शहर’, ‘चैथी मुट्ठी’ आदि में स्पष्ट झलकता है.

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बम्बई के अनुभवों को उन्होंने उत्कृष्ट कथा साहित्य में रूपान्तरित कर दिया जो उनके भाषा प्रयोग शिल्प और कहानी कला का ही चमत्कार था. अनेकों भाषाओं पर उनकी साधिकारिक पकड़ but उनके लेखन में स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होती है. उनकी लम्बी कहानी ‘उपरान्त’ चिंतक, विचारक लेखक लियो तोल्सतोय के उपन्यास ‘डैथ ऑफ इवान ईविच’ की याद दिलाती है. यह कहानी उन्होंने हल्द्वानी में रहते हुये तब लिखी थी because जब वह अपने पुत्र की मृत्यु से अवसाद और भयानक सिरोवेदना से गुजर रहे थे.

शैलेशbecause जी के कथा साहित्य में अद्भुत सघनता और दृश्यात्मक के साथ ‘सच’ की सच्ची तस्वरी उभरती है. एक ऐसा अद्भुत स्कैच बनता है जो उनमें कथा साहित्य से होता हुआ because उनके व्यक्तित्व को पकड़ता है.so संवेदनशीलता के महारथी मटियानी ने भोगे हुए यथार्थ को जिस शिल्प के साथ अपने रचना संसार में पिरोया वह बेजोड़ है.  

शैलेश जी के कथा साहित्य में अद्भुत सघनता और दृश्यात्मक के साथ ‘सच’ की सच्ची तस्वरी उभरती है. एक ऐसा अद्भुत स्कैच बनता है जो उनमें कथा साहित्य से होता हुआ उनकेso व्यक्तित्व को पकड़ता है. संवेदनशीलता के महारथी मटियानी ने भोगे हुए यथार्थ को जिस शिल्प के साथ अपने रचना संसार में पिरोया वह बेजोड़ है. इसी कारण but उनका कथा साहित्य सामाजिकता एवं  व्यक्ति को केन्द्र में रखकर रचा गया. मानव संवेदनाओं की महीन कारीगरी उनकी रचनाओं को महान बना देती है. मटियानी जी because के लेखन और जीवन को प्रतिबिम्बित करती उन्हीं की कविता की चंद पंक्तियां हैं जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समेटती हैं– “अपंखी हूँ मैं उड़ा जाता नहीं/गगन से नाता जुड़ा पाता नहीं/ हर डगर पर हर नगर पर बस मुझे/चाहिये आधार धरती का….’’

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सदा धरती का आधार लिए यह महान so कथाकार जिसे जीवन में उपेक्षाओं और कठिनाइयों के कुछ नहीं मिला लेकिन because उसके बावजूद जो लेखन और जीवन के मायने सिखा गया,  25 अप्रैल 2001 को अपने रचित लेखन संसार की अनंतता में खो गया.

(लेखिका रा.बा.इं. कॉलेज द्वाराहाट, अल्मोड़ा में अंग्रेजी की अध्‍यापिका हैं)

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