इस साल बचुली बूबू दो तीन महीनों के लिए अपने मैत आई थी. कितना कुछ बदल गया था पहाड़ में अब हरे भरे ऊँचे पहाड़ भी जगह जगह उधरे पड़े थे. पहाड़ों के बीच में
गगन चुम्बी बिजली या मोबाईल के टावर खड़े थे. जंगल में चरती गाएँ भी अब कहीं नजर नहीं आ रही थीं. खेत भी या तो बंजर थे जिनमें जंगली घास उग आई थी या फिर ‘बरसीम घास’ चारे के लिए बो दी गई थी.बचुली बूबू को याद आने लगे अपने पुराने दिन जब बाबू बड़बाज्यू का श्राद्ध करते थे कितनी
तैयारी होती थी, पहले दिन से ही पंडित जी को याद दिला दी जाती थी, आस पास की बहन बेटियों को निमंत्रण दिया जाता था, बिरादरी के लोग तो आते ही थे.
ज्योतिष
अनाज बोना तो छोड़ ही दिया था लोगों ने क्योंकि सरकार की तरफ से किसी वर्ग को मुफ्त में और किसी को नाममात्र की कीमत पर अनाज बंट रहा था. कौन मूर्ख होगा जो खेतों में
काम करेगा, उसके लिए बैल पालेगा और हलिया रखेगा? और तो और घर के बाग बगीचों में भी कुछ नहीं उगा था क्योंकि अब इन सब कामों के लिए किसके पास समय है? सब मिलता है बाज़ार में घर से भी अच्छा. क्या बुराई है गांवों में भी शहरों की तरह आराम की जिंदगी जीने में ? बचुली बूबू हर समय अपने ज़माने को याद करती रहती थी, उनको यह बदलाव कुछ अच्छा नहीं लग रहा था.ज्योतिष
अब बूबू का वापस अपने घर मुंबई जाने का समय आया तो भाई ने बड़े स्नेह से रोक लिया और कहा, दीदी दो दिन बाद बाबू का सराद है उसके बाद जाना. संयोग से इस बार आई थी तो रुकना ठीक समझा इसलिए तुरंत मान गई. बचुली बूबू को याद आने लगे अपने पुराने दिन जब बाबू बड़बाज्यू का श्राद्ध करते थे कितनी तैयारी होती थी, पहले दिन से ही पंडित जी को याद दिला दी जाती थी, आस पास की बहन बेटियों को निमंत्रण दिया जाता था, बिरादरी के लोग तो आते ही थे. रात से ही बड़ों के लिए मांस भिगो दिए जाते थे, दाल चावल साफ किए जाते थे, पूरी रसोई के बर्तनों को मांज कर चमका दिया जाता था, शुद्धता का पूरा ध्यान रखा जाता था.
मैं छोटी थी पर कुछ काम जैसे तिमिल के पत्ते लाना, दाड़िम के दाने निकलना, पञ्च मेवा के लिए अखरोट के दाने निकलना मेरा काम था. जितनी भी चीजें बनती थी सब घर की ही होती थी,
दाड़िम की चटनी, मूली/ककड़ी का पीला रायता, खीर, बड़े, पूरी, दाल भात सब. घर की चीजों में अपनी मेहनत लगी होती थी और पितरों के प्रति श्रद्धा भाव भी.
ज्योतिष
सुबह उठते ही ईजा नहा कर पूरा घर लीप कर देली में जौ डाल देती थी. बाबू तो एक एक सामान खुद ही रखते थे कहीं कोई भूल ना हो जाए. मैं छोटी थी पर कुछ काम जैसे तिमिल के पत्ते लाना, दाड़िम के दाने निकलना, पञ्च मेवा के लिए अखरोट के दाने निकलना मेरा काम था. जितनी भी चीजें बनती थी सब घर की ही होती थी,
दाड़िम की चटनी, मूली /ककड़ी का पीला रायता, खीर, बड़े, पूरी, दाल भात सब. घर की चीजों में अपनी मेहनत लगी होती थी और पितरों के प्रति श्रद्धा भाव भी था. आज भी याद हैं आस पड़ोस की भाभियाँ सुबह ही सिलबट्टे में दाल मसाले पीस कर चली जाती थी.ज्योतिष
जब सराद शुरू होता तो मन्त्रों से व धुपैन खुशबू से पूरा घर महक उठता था. रसोई में ईजा के अलावा कोई और नहीं जा सकता था. जब तक सराद करके पंडित जी खा नहीं लेते तब तक घर में सब भूखे रहते थे. उनके जाने के बाद ही सब बड़े ही चाव से स्वादिष्ट भोजन करते थे, पितरों का परसाद कहा जाता था खाने को.
बर्तनों का ढेर लग जाता था सारी बहुएं बर्तन मांजती थी, बेटियां पैर पसार बातों में लग जाती थी, सब निबटते शाम ही हो जाती थी. इसी तरह के आयोजन की आस में थी आज भी बचुली बूबू.ज्योतिष
बूबू ने देखा पहले दिन से तो कोई तैयारी भी नहीं चल रही सराद की, सुबह क्या क्या करेंगे ये लोग, याद दिला बैठी अरे मांस तो भिजाओ, दही जमाओ ये काम तो पहले दिन से ही करने पड़ेंगे. अरे लली चिंता मत करो, सब हो जाएगा, अब इतना टाइम किस के पास है, सब आ जाएगा बाजार से. अब सुबह हो गई, झाड़ू पोछा हो गया. मैंने कहा जरा सकुन के लिए देली लीप दो गोबर से. जा रे पिंटू, माथ की आंटी से थोडा गोबर मांग ला. छी मैं नहीं लाऊंगा गाय की पॉटी,
करना क्या है आपको इससे? देली लीपनी है, ले ये थैली पकड़ इसी में डाल के देंगे, तू हाथ मत लगाना. गोबर आ गया, अब जौ भी मिल गए बड़ी मुश्किल से देली लीपने का काम पूरा हुआ.चलो पहले मैगी बनाओ फिर बनेगा सराद का खाना. सच में कोई झंझट ही नहीं फटाफट खाना बनाने लगे सब मिलकर, पंडित जी आये आधे घंटे में काम निबटाया, तब तक खाने की टेबल लग चुकी थी सबने एक साथ खाया. फटाफट जूठे दोने पत्तल कूड़े में डाल कर तुरंत सब साफ कर दिया. बच्चे कहने लगे पापा आज की पार्टी बहुत अच्छी थी.
ज्योतिष
थोड़ी देर में भाई बाज़ार से थैले भर-भर कर सामान लेकर आ गया, चाख में सब फैलाया और बड़े गर्व से बोला देख दीदी! अब ऐसे होते हैं काम! अब गाय पालने की कोई झंझट नहीं करता, दूध, दही, घी, दही बड़े का पैकिट,पनीर,मटर सब ले आया. और तो और खाने के बर्तन भी डिस्पोजेबल ले आया. और भी
तो दिख रहा कुछ, वो भी तो दिखा. ये तो बच्चों का नाश्ता है मैगी, बच्चे भूखे नहीं रह सकते ना इतनी देर तक. चलो पहले मैगी बनाओ फिर बनेगा सराद का खाना. सच में कोई झंझट ही नहीं फटाफट खाना बनाने लगे सब मिलकर, पंडित जी आये आधे घंटे में काम निबटाया, तब तक खाने की टेबल लग चुकी थी सबने एक साथ खाया. फटाफट जूठे दोने पत्तल कूड़े में डाल कर तुरंत सब साफ कर दिया. बच्चे कहने लगे पापा आज की पार्टी बहुत अच्छी थी.अपने मन को भी समझाया बदलाव के
साथ साथ काम भी तो हो ही रहे हैं, जैसे भी किया बाबू का सराद किया मेरे भाई ने. भाई को पास बिठा कर बोली, भुली इसी के हर साल सराद करनें रए, कभै झन छोड़िए पितरों आशीर्वाद पानै रए.
ज्योतिष
बचुली बूबू ठगी सी रह गई, फिर
अपने मन को समझाने लगी, बदलाव तो शहरों में भी बहुत हुए हैं तो गांवों में क्यों नहीं होंगे? पर सराद को तो श्राद्ध ही कहते हैं शहरों में इनके बच्चे पार्टी क्यों कह रहे थे? इतना तो बताना ही चाहिए श्राद्ध और पार्टी में क्या अंतर होता है.ज्योतिष
अपने मन को भी समझाया बदलाव के
साथ साथ काम भी तो हो ही रहे हैं, जैसे भी किया बाबू का सराद किया मेरे भाई ने. भाई को पास बिठा कर बोली, भुली इसी के हर साल सराद करनें रए, कभै झन छोड़िए पितरों आशीर्वाद पानै रए.ज्योतिष
(सेवानिवृत विभागाध्यक्षा हिंदी, मेयो कॉलेज गर्ल्स स्कूल अजमेर)