‘पूष क त्यार’: एक नहीं अनेक आयाम

दिनेश रावत

देवभूमि उत्तराखण्ड के सीमांत उत्तरकाशी का पश्चिमोत्तर रवाँई अपनी सामाजिक—सांस्कृतिक विशिष्टता के लिए सदैव ही विख्यात रहा है. इस लोकांचल में होने वाले पर्व—त्योहारों की श्रृंखला जितनी विस्तृत है, सामाजिक—सांस्कृतिक दृष्टि से उतनी ही समृद्ध है. पर्व—त्योहारों के आयोजन में प्रकृति व संस्कृति, ऋतु व फसल चक्र की गहरी छाप दिखती है. फिर चाहे वह आयोजन के तौर—तरीके हों या इन अवसरों पर बनने वाले विशेष भोजन, सभी मौसमानुकूल ही बनते हैं. इस दौरान जो रंग दिखते हैं वह बहुत ही न्यारे और प्यारे हैं. ‘पूष क त्यार’ यानी ‘पौष के त्योहार’ इस लोकांचल में होने वाले पर्व—त्योहारों में प्रमुखता से शामिल हैं. माघ माह तक इनकी रंगत बनी रहने पर इन्हें ‘माघी मघोज’ या ‘मरोज’ भी कहते हैं.

पौष माह में इस अंचल की अधिकांश पर्वत श्रृंखला बर्फ की चादर ओढ़ लेती हैं. कई बार बर्फ की वहीं श्वेद चादर घाटी या तलहटी में बसे गाँव—घरों को भी अपने आगोश में ले लेती है. पहाड़ियों से बहती बर्फिली बयार लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन जाती है. लोग एक प्रकार से घरों में कैद हो जाने को विवश हो जाते हैं. खेत—खलिहान, घर—आँगन बर्फ से पटे होने पर खेती—किसानी, पशु—मवेशियों सम्बंधी कार्यों में भी कुछ समय के लिए ठहराव—सा आ जाता है. फलत: दिन—रात जी—तोड़ मेहनत करते लोकवासियों को आराम—विश्राम के लिए भी सहज समय सुलभ हो जाता है. ससुराल विवाही हुई कई लड़कियों जिन्हें ‘द्यियाण्यिाँ’ कहते हैं, उन्हें भी पाल्यों सहित मायके आने का अवसर मिल जाता है. प्रकृति प्रदत्त इन्हीं परिस्थितियों को अवसरों में तब्दील करते हुए क्षेत्रवासी त्यार यानी त्योहार मनाने लग जाते हैं. जो ‘पूष क त्यार’ या पौष के त्योहार के रूप में प्रसिद्ध—प्रचारित—प्रसारित हैं.

महाराज! कृपा करके मुझे छोड़ दीजिए. लटकू त्यार सुनकर राजा के मन में उत्सुकता जागी और उससे पूछा कि यह कौन—सा या कैसा—त्योहार है? तो उसने राजा को लटकू, चूरियाच, कीसर, हतली, अदको के बारे में बताया. यह भी कहा कि त्योहारों के लिए मेरी ​बहिन—भांजे, बुआ—भाई, नाते—रिश्तेदार, आस—पड़ौस के सभी इक्टठे होकर त्योहार मनाने की तैयारी में जुटे होंगे. महाराज! कहीं ऐसा ना हो कि मेरे घर न पहुँचने पर वह भी व्यथित होकर त्योहार ना मनाएं. यह सुनकर राजा का हृदय द्रवित हो उठा और उसे पाँच दिन के लिए घर भेज दिया गया था.

श्रृंखलाबद्ध तरीके से मनाए जाते हैं त्योहार

सर्द हवाओं के बीच सम्पन्न होने वाले पौष के त्योहार ‘लटकू’, ‘चूरियाच’ या ‘चूराई’, ‘कीसर’, ‘हतली’ व ‘अदको’ त्योहारों का सम्मुचय है. जो परंपरागत ढंग से श्रृंखलाबद्ध बनाए जाते हैं. हर दिन कुछ विशेष व्यंजन बनाए जाते हैं. पौष त्योहारों की रंगत 25 गते पौष से शुरू होकर माघ ‘मघोज’ तक बनी रहती है. पहले दिन ‘लटकू’ मनाया जाता है. लटकू के दिन बाड़ी बनाने की परंपरा प्रचलित है. बाड़ी खूब पकाया—खाया जाना वाला प्रमुख व प्रसिद्ध पहाड़ी व्यंजन है, जो गेहूं के आटे से बनता है. इसे ‘लटक—कू बाड़ी’ कहते हैं. पौष्टिकता से भरपूर बाड़ी को सुस्वादू बनाने के लिए उसके साथ घी, शहर, गुड़ का घोल आदि मिलाकर खाते हैं. किवदंति है कि राजशाही के जमाने भी यदि कोई व्यक्ति बंदीगृह में बंद होता था तो पौष त्योहारों के लिए उसे भी पाँच दिन के लिए छोड़ दिया जाता था. ऐसा तब से होने लगा जब किसी व्यक्ति ने राजा से अनुनय—विनय किया कि—’लटक—कू बाड़ी खातू, छोड़ी देन महाराज!!’ अर्थात् आज लटकू त्योहार है. मुझे भी लटक—कू बाड़ी खाना था. महाराज! कृपा करके मुझे छोड़ दीजिए. लटकू त्यार सुनकर राजा के मन में उत्सुकता जागी और उससे पूछा कि यह कौन—सा या कैसा—त्योहार है? तो उसने राजा को लटकू, चूरियाच, कीसर, हतली, अदको के बारे में बताया. यह भी कहा कि त्योहारों के लिए मेरी ​बहिन—भांजे, बुआ—भाई, नाते—रिश्तेदार, आस—पड़ौस के सभी इक्टठे होकर त्योहार मनाने की तैयारी में जुटे होंगे. महाराज! कहीं ऐसा ना हो कि मेरे घर न पहुँचने पर वह भी व्यथित होकर त्योहार ना मनाएं. यह सुनकर राजा का हृदय द्रवित हो उठा और उसे पाँच दिन के लिए घर भेज दिया गया था.

चूरियाच के दिन बनती हैं बेडलीरोटी

पौष त्योहार के दूसरे दिन ‘चूरियाच’ मनायी जाती है. चूरियाच के दिन दाल भरी रोटी बनायी जाती है. रोटियों के अंदर उड़द, मसूर, भंगजीर, पोस्त दानें आदि भरे जाते हैं. भरी रोटियों को ‘बेडली रोटी’ कहते हैं. कुछ लोग दोहरी रोटी भी बनाते हैं, जिन्हें ‘दुनली’ कहते हैं. चूरियाच को ‘चूरोल’, ‘चूरैल’ या ‘चूरोई’ भी कहते हैं.

कीसरकी खिचड़ी और खिचड़ी का घी

तीसरे रोज यानी 27 गते पौष ‘कीसर’ होता है. कीसर के दिन कोई खीर तो कोई खिचड़ी बनाते हैं. खिचड़ी में अखरोट, भंगजीर, पोस्त के बीज (दाने) भुनक सिलबट्टे में पीसकर मिश्रण तैयार करके मिलाया जाता है. कीसर की खिचड़ी में नमक नहीं डलता है. घी का विशेष महत्व होने पर लोकवासी ‘कीसर’ के लिए पहले से ही पर्याप्त घी जमा किए रहते हैं.

परिजनों में ऐसे बंटता है कीसरका घी

कीसर के दिन जिस तरीके से घी का बंटवारा होता है वह गौरतलब है— घी को किसी खुले बर्तन में निकाल लिया जाता हैं. बंटवारा समान हो इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है. बंटवारे में बहु—बेटियों को पुरुषों की अपेक्षा दुगुना घी दिए जाने की परम्परा प्रचलित है, जिससे लोक विशेष में प्रचलित महिला सम्मान सम्बंधी भाव—स्वभाव का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. इसमें ससुराल विवाही हुई लड़कियाँ भी समान हिस्सेदार होती हैं फिर चाहे वे उस दौरान मायके में उपस्थित हों या नहीं. अनुपस्थिति की स्थिति में उनके हिस्से का घी सुरक्षित रखकर माघ ‘दोफारी’ के साथ ससम्मान लड़की ससुराल पहुँचा दिया जाता है.

मंदिर में प्रसाद स्वरूप बंटती है खिचड़ी

क्षेत्र के महासू मंदिर में कीसर के दिन रात्रि जागरण होता है. प्रसाद स्वरूप खिचड़ी बनती—बंटती है. कीसर के अगले दिन ‘हतली’ होती है.

हतलीके दिन भेड़ तथा अदकोके काटे जाते थे बकरे

‘हतली’ के दिन कई गाँवों में भेड़—बकरी काटी जाती हैं. लोग सुबह के समय आटे की ‘लगड़ी’ तथा शाम को सीड़ें बनाकर त्योहार मनाते हैं. परंपरानुसार भेड़ व बकरी काटने के दिन भी तय हैं, जैसे—’हतली’ के दिन भेड़ और ‘अदको’ के दिन बकरा काटा जाता है. चूल्हे पर दिन में ​यदि मांसाहार भोजन बनता है तो शाम का भोजन बनाने से पहले चूल्हे को गौमूत्र से लीप यानी नहलाकर साफ किया जाता है. अगले दिन ‘अदको’ होता है. ‘अदको’ के दिन बकरा काटने वाले लोग बकरा काटते हैं और शाम को पुन: चूल्हा—चौका साफ करके पूरी—पकौड़े—प्रसाद (हल्वा) बनाकर त्योहार मनाते हैं.

बंद कमरों में छोड़ातो खुले आँगन में तांदीकी धूम

पौष त्योहारों में मौसमानुकूल खान—पान ही नहीं बल्कि आस—पड़ोस या ग्राम समाज के लोग और नाते—रिश्तेदारों की सामूहिक उपस्थिति के चलते गीत—संगीत—नृत्य भी साथ—साथ चलता रहता है. खाते—पीते, नाचते—गाते, आपसी सुख—दु:ख साझा के यह इतने सुखद पल होते हैं कि इन्हें लेकर वर्षभर लोगों में उत्सुकता बनी रहती है. सभी घरों में शाकाहार—मांसाहार सभी प्रकार के व्यंजन बनते हैं. आस—पड़ौस के लोग जिस घर में बैठ जाएं वहीं से आनंद—उत्सव मनाने का दौर शुरू हो जाता है. गीत—संगीत—नृत्य के दौरान घर के अंदर ही लोग एक गोल घेरे में बैठ जाते हैं. लोकवादक गीत के बोलों के अनुरूप ताल बजाते हैं. ढोल—बाजों के गहरे तालों के साथ गीत गाए जाते हैं. घर में बैठकर ही लोग गीत के बोलों के साथ कई बार एकल—युगल तो कई बार जब सामूहिक नृत्य करने लगते हैं तो दृश्य देखते ही बनते हैं. माकूल मौसम हो तो उत्साही युवाओं की टोलियाँ कई बार खुले आँगन में आकर तांदी गीत गाने से भी नहीं चूकते हैं. इस दौरान गाए जाने वाले लोकगीतों में छोड़े व लामण प्रमुखता से शामिल हैं. छोड़ा गीतों में एक व्यक्ति जहाँ गीत का मुखड़ा उठाकर शुरुआत करता है तो शेष लोग उसके स्वर से स्वर मिलाते हैं, जिसे ‘भौण पुरयाणा’ कहते हैं. सप्ताहभर तक चलने वाले गीत—संगीत—नृत्य, आनंद—अनुरंजन, मेल—मिलाप तथा विविध प्रकार के लोकरंगों को देख मानस मात्र ही नहीं बल्कि प्रकृति भी हँसती—मुस्कुराती, नाचती—गाती—थिरकती दिखाई देती है.

‘हतली’ और ‘अदको’ के दिन जो लोग भेड़—बकरी काटते हैं उसके लिए सभी गाँव समाज या आस—पड़ौस के लोग एक साथ एकत्रित होकर एक के बाद एक करते हुए नाचते—गाते, खाते—खेलते हुए ग्राम्यजनों की टोली एक के बाद एक करते हुए सभी घरों तक पहुँचती हैं. शुरुआत अधिकांशत: बड़ें बुजुर्ग या सयाणे के घर से होती है. त्योहारों के लिए कटने वाली बकरियों पर काटने से पहले स्थानीय देवी—देवताओं के नाम से भीगे चावल जिन्हें ‘ज्यूँदेव’ कहते हैं, डाले जाते हैं. जिसे ‘बाकरू धुणाणू’ कहते हैं. बकरा यदि अपने ऊपर पड़े ज्यूँदेव नहीं झाड़ता है यानी ‘धुणिंदू ना’ तो उसे जबरन नहीं काटा जाता है बल्कि छोड़ दिया जाता है.

सहचर्य का भाव जगाता सरोकार

बकरे का हिस्सा जिन लोगों तक अनिवार्यत: पहुँचाया जाता है उनमें भेड़—बकरी चराने वाले भेडाल, बाजा बजाने वाले बाजगी, खेती—किसानी के लिए औजार तैयार करने वाले लोहार, कुम्हार, पशु—मवेशी, घोड़ा—खच्चर चलाने वाले सहयोगी तथा नाते—रिश्तेदार खास कर दियाण्यिों के अतिरिक्त गाँव—समाज में निवास कर रहे ऐसे परिवारों जिनका किन्हीं कारणों से त्योहार नहीं होता, हिस्सेदार होते हैं और उनका हिस्सा बहुत ही अदब के सा​थ उनके घर पहुँचा दिया जाता है या उन्हें अपने घर खाने पर आमंत्रित किया जाता है. हालांकि वर्तमान में बदलाव के बीच लोगों ने इससे बचना शुरू कर दिया है और त्योहार के लिए भी बाजार पर आश्रित हो गए हैं लेकिन कई क्षेत्रों में यह आज भी अपने मूल स्वरूप को बनाए हुए है.

इस हिमालयी लोकांचल में पौष त्योहारों की प्रसांगिकता इसलिए भी अधिक है कि क्षेत्रवासियों के आजीविका के मुख्य साधन कृषि व पशुपालन होने के कारण यहाँ के वासिंदे वर्ष अपने दैनिक कार्यों में इस कदर जुटे रहते हैं कि उन्हें आराम—विश्राम के लिए वक्त निकालना बेहद मुश्किल हो जाता है. इन दिनों भेड़—बकरियों के साथ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले भेड़—बकरी पालक भी घर लौट आते हैं. पूरा परिवार एक साथ होता है. गाँव में खूब चहल—पहल बनी रहती है. इसी का लाभ उठाते हुए लोकवासी जीवन की तमाम व्यस्ताओं व विषमताओं को विस्मृत कर पखवाड़े भर तक खाते—खेलते, हँसते—मुस्कुराते, नाचते—गाते हुए आनंद—उत्सव मनाकर अपनी शारीरिक—मानसिक थकान दूर करते हुए आगे के लिए एक नई संजीवनी प्राप्त करते हैं.

स्वयं ही नहीं बल्कि मधुमक्खियों को विश्राम देने के लिए बंद कर दी जाती हैं खोटियाँ

लोग स्वयं के लिए ही आराम—विश्राम नहीं करते बल्कि अपने घरों की खोटियों (मधुमक्खी पालन का स्थान) को भी कुछ समय के लिए इसलिए बंद कर देते हैं कि हमारे समान ही यह मधुमक्खियाँ भी निरंतर जी—तोड़ मेहनत करती रहती हैं और इस दौरान और इस दौरान यदि हम आराम—विश्राम कर रहे हैं तो इन्हें भी कुछ पल के लिए आराम—विश्राम दिया जाए. लोक प्रचलित इस परम्परा से लोकवासियों की सहृदयता व संवेदनशीलता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

दामाद को भेंट की जाती है जिकुड़ी

पौष त्योहारों में यदि कोई परिवार बकरा काटता है तो बकरे का दिल परिवार के ज्येष्ठ दामाद को भेंट किया जाता है. जो इस बात का प्रतीक होता है कि परिवार के जितने भी नाते—रिश्ते हैं उन सब में से प्रिय व सम्मानीय परिवार के वे दामाद हैं जिन्हें माता—पिता ने पुत्री के रूप में अपने कलेजे का टुकड़ा दिया हुआ है. ज्येष्ठ दामाद ही उसके हिस्से करके अन्य दामादों व परिजनों में बांटता है.

पौष त्योहारों की रंगत ऐसी कि माह बीत जाता है परंतु त्योहार की रौनक खत्म नहीं होती. 7 गते माघ ‘सुतरयाण’ और 8 गते माघ ‘खोढ’ मनाया जाता है. लोकगीत की इन पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं—

सात सुतरयाण आठ खोढए झड़ लागिई तिबारियों मांजी.
मेरऐ बांठे की बसोढ़ीए तू धरया बुइऐ कोठारू पांजी..

अर्थात सात गते सुतरयाण और आठ गते के खोढ को याद करते हुए विवाहिता अपनी माँ को संदेश भिजवाती है कि आज बहुत बारिश हो रही है जिस कारण मेरा पहुँचना संभव नहीं है इसलिए माँ! मेरा जो हिस्सा होगा उसे कोठार यानी भंडार गृह में मेरे आने तक सुरक्षित रखे रखना. सुतरयाण और खोढ़ के दिन उन्हीं बकरियों के सिर व पैरों को पकाया जाता है.

सांसारिक चहल—पहल से दूर प्रकृति की गोद में बसा लोक के प्रति आस्थावान यह वही क्षेत्र है जो वर्तमान की आबोहवा के बीच भी अपनी प्रथा—परम्परा, मत—मान्यता, आस्था—विश्वास, रीति—नीति, आचार—विचार, राग—रंग, आनंद—अनुरंजन, संस्कार—सरोकारों को जीवंत बनाए हुए है. मौसम व माकूल समय में त्योहार मनाने की प्रकृति व संस्कृति को इस हिमालयी लोकांचल का वैशिष्टय कहा जा सकता है.

(लेखक कविसाहित्यकार एवं वर्तमान में अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं)

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