लड़ना होगा और आगे बढ़ना होगा

  • भावना मसीवाल

एक ओर देश कोरोना महामारी से जुझ रहा है, दूसरी ओर अपराध की बढ़ती जघन्य से जघन्य घटनाएँ आपको भीतर तक उद्वेलित कर देती हैं. हम अपने आसपास कितने सुरक्षित हैं इसका अंदाजा लूटपाट, हत्या और यौन शोषण की बढ़ती घटनाओं से लगाया जा सकता है. जिसमें बुजुर्ग से लेकर बच्चें तक असुरक्षित है. यह असुरक्षा घर से बाहर ही नहीं बल्कि घर के भीतर भी बढ़ी है. नेशनल क्राइम ब्यूरो रिपोर्ट के अनुसार पॉक्सो कानून के तहत 2017 में 32,608 और 2018 में 39,827 बाल यौन शोषण के मामले दर्ज हुए थे. इनके अतिरिक्त बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं जिन्हें परिवार सामाजिक सम्मान की आड़ में दर्ज ही नहीं कराता है.

नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन 109 बच्चे यौन शोषण से शोषित होते हैं. 2018 में 21,605 बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएँ दर्ज हैं, जिसमें 21,401 लड़कियाँ व 204 लडकें हैं. यह आकड़ा बताता है कि बच्चों के प्रति आपराधिक गतिविधियों को रोकने के लिए 2009 में बना पॉक्सो कानून भी कारगर नहीं हो सका. यह आकड़ा तो केवल बच्चों के साथ शोषण का है.

नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन 109 बच्चे यौन शोषण से शोषित होते हैं. 2018 में 21,605 बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएँ दर्ज हैं, जिसमें 21,401 लड़कियाँ व 204 लडकें हैं. यह आकड़ा बताता है कि बच्चों के प्रति आपराधिक गतिविधियों को रोकने के लिए 2009 में बना पॉक्सो कानून भी कारगर नहीं हो सका. यह आकड़ा तो केवल बच्चों के साथ शोषण का है. बच्चों के साथ ही लड़कियों और महिलाओं के साथ भी अपराध बढ़ा है. क्योंकि आज के समय में अपराधियों में कानून के प्रति डर नहीं देखा जाता है इसका मुख्य कारण दोषियों को देरी से सज़ा मिलना और लोगों में कानून के प्रति असंतोष भाव है. इसके साथ ही समाज का लैगिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होना भी है.

सभी सांकेतिक फोटो गूगूल से साभार

हमारे समाज में बच्चों का बचपन कितना असुरक्षित है. इसे अपराध की बढ़ती घटनाओं से जाना जा सकता है, जहाँ कुछ माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष तक की बुजुर्ग महिला से बलात्कार किया जाता है. दिल्ली में अगस्त माह में एक बच्ची के साथ रेप होता है, सितंबर माह में ही दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में एक नौ साल की लड़की से नाबलिकों द्वारा रेप किया जाता है. मुजफ्फरपुर में एक लड़की अगवा कर ली जाती है. समयपुर बादली में तेरह साल की लड़की का रेप होता है. वहीं इसी माह में एक नब्बे वर्ष की बुजुर्ग महिला का भी रेप होता है. इन घटनाओं से देखा जा सकता है कि हमारा समाज उत्थान की ओर जा रहा है या अपने पतन का इतिहास लिख रहा है.

मैं कब खुद को सुरक्षित महसूस कर पाऊँगी?’ मेरे पास इसका एक ही जवाब था खुद को इतना मजबूत बनाओं की अपने लिए और दूसरों के लिए लड़ सको. क्योंकि आज जिस दौर में हम जी रहे हैं वहाँ कानून भी लाचार हो गया है और मीडिया को तो टी.आर.पी की दीमक खा चुकी है. उसके लिए जो बिकता है वही दिखता का सिद्धांत कार्य करता है.

नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश के भीतर ही हर दिन 109 बच्चे यौन शोषण और रेप से गुजरते हैं, कितने केस महिलाओं के साथ होते हैं जिन पर चर्चा नहीं होती या वह परिवार व सामाजिक डर से छिपा दिए जाते हैं. कितने अगवा करके मार दिए जाते हैं. बच्चों और महिलाओं के साथ अपराध की बढ़ती घटनाओं को रोकने में कानून भी अपनी भूमिका का सही निर्वाह नहीं कर रहा है. तभी तो आज एक आम स्कूल से निकलकर कॉलेज जाने वाली लड़की सवाल करती है कि ‘हम सुरक्षित कहा हैं?

आप कहते हैं हमारे लिए कानून बना है उसमें बहुत सारे बदलाव भी आए हैं. लेकिन मैं तो रोज इस तरह की घटनाओं को अपने आसपास देख और सुन रही हूँ. आप ही बताइए जब दिल्ली जैसा महानगर जहाँ सभी तरह के अवेयरनेस कार्यक्रम होते हैं, जो दूर-दराज के गाँवों व कस्बों से अधिक सशक्त भी है. बताइए यहाँ जब इतनी सारी बलात्कार की घटनाएँ घट रही हैं तो गाँवों और कस्बों की क्या स्थिति होगी? दिल्ली में तो घटना के होने पर ट्यूटर और फेसबुक के माध्यम से इंसाफ की गुहार लगा ली जाती है. जहाँ कुछ भी नहीं वहाँ क्या होता होगा? जो कानून हमारी सुरक्षा के लिए बने हैं उसके अलावा क्या कानून में इन अपराधों को रोकने के लिए नहीं बना है?

मैं कब खुद को सुरक्षित महसूस कर पाऊँगी?’ मेरे पास इसका एक ही जवाब था खुद को इतना मजबूत बनाओं की अपने लिए और दूसरों के लिए लड़ सको. क्योंकि आज जिस दौर में हम जी रहे हैं वहाँ कानून भी लाचार हो गया है और मीडिया को तो टी.आर.पी की दीमक खा चुकी है. उसके लिए जो बिकता है वही दिखता का सिद्धांत कार्य करता है. ऐसे में बलात्कार यौन शोषण की घटनाएँ मीडिया के लिए आम घटना बन कर रह जाती है जिसकी खाल उघाड़कर वह अपनी टी.आर.पी का भूसा नहीं भर सकती है. ऐसे में परिवार व समाज को सोचना है कि क्या वह अपने बच्चों को घर में बंद करके सुरक्षित रख सकता है या उन्हें इस यथार्थ के साथ मजबूत बनाकर अपने आत्मसम्मान की लड़ाई के लिए आगे बढ़कर जीना सिखाता है और इस लैंगिक विभेद को समाप्त करने में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है.

(उत्तराखण्ड के मासी गाँव में जन्म, जो इनके नाम से पहचाना जा सकता है. पहाड़ से दिल्ली फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा तक का विद्यार्थी एवं शोधार्थी जीवन. महिला मुद्दों को लेकर सक्रिय भागीदारी एवं पत्र-पत्रिकाओं व दैनिक राष्ट्रीय अख़बारों में स्वतंत्र लेखन. वर्तमान समय में दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध कॉलेज के अंतर्गत अतिथि शिक्षक के रूप में कार्य.)

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