मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है. इनकी लेखक की विभिन्न विधाओं को हम हिमांतर के माध्यम से ‘मंजू दिल से…’ नामक एक पूरी सीरिज अपने पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. पेश है मंजू दिल से… की 26वीं किस्त…
मंजू दिल से… भाग-26
- मंजू काला
‘आज बसंत मनाले.’
आज बसंत की बेला है और भारतीय कैलेंडर के अनुसार माघ महीने की रागिणी अर्थात प्रकृति का रंगारंग उत्सव प्रारंभ होने की घोषणा का दिन. जी. जानती हूँ. आप कहना चाह रहे हैं कि ‘अभी कहाँ बसंत, अभी चारों ओर पतझड़ अपनी शुष्क खड़-खड़ का बेसुरा राग अलाप रहा है. इसने पेड़-पौधों के पत्ते छीनकर हवा में उड़ा दिए, ठंडी हवाएं नग्न खड़े वृक्षों की देह पर तीर-सी चुभो रही हैं. अजीब-सा सूनापन उन्हें घेरकर खड़ा है और आप कहती हैं कि
बसंत तशरीफ ले आए हैं.मंजू काला
अरे., देखिए न वृक्ष अपनी संपदा लुटने पर भी उदास नहीं हैं तो आप क्यों उदास हैं. उनमें जो आस्था का भाव है, वह उन्हें आश्वस्त कर रहा है कि साथियो, घबराओ मत, यह पतझर तो वसंत का अग्रदूत है. झड़ने वाले पीले पत्तों का मोह त्यागो. आने वाले नवीन पर
दृष्टि डालो. कुछ ही समय में तुम्हारे तन पर फिर से नए पत्र-पुष्पों की सज्जा होने वाली है. तो उदास मत होइये, है न रास्ते में बसंत. बस अपने को सजा रहे हैं, सोच रहे हैं, कहीं वसुंधरा मुझे नकार न दे. वो तो धानी चूनर ओढ़े चंचल बनिता-सी गाँव की पगडंडियों पर दौड़ रही है.ज्योतिष
सच में देखिएगा आने वाले समय में झूमते वृक्षों की डालियों पर किलकारी भरते नन्हे शिशुओं से, ललछौंही कमनीय कोपलों के गुच्छे सज जाएंगे, सभी पेड़-पौधे यह नई साज-सज्जा देखकर नई उमंग, नए उत्साह से झूमने लगेंगे व गरमाहट भरी हवाओं के साथ
मिलकर वसंत के गीत गुनगुनाने लगेंगे और कहेंगे – ‘त्याग के बाद प्राप्ति में कितना आनंद है, कितना गौरवपूर्ण संतोष है, यह हमसे जानो न.ज्योतिष
निश्चय ही यदि पुराने का त्याग न हो तो नवीन को कैसे जगह मिलेगी.
तभी तो कविवर सुमित्रानंदन पंत कहते हैं- ‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र. नदिया का पानी अगर बहकर आगे नहीं जाएगा तो उसमें नया पानी कैसे आएगा? यह सतत प्रवाह ही जीवन है. पीले पात न झरे तो हरियाली कैसे आए? वसंत ही तो उन्हें नए वस्त्र पहनाकर हरियाली लाता है..ज्योतिष
बसंत अर्थात ऋतुराज, यह महादानी है, दिल खोलकर रूप-रस, रंग-गंध का खजाना बांटता है. इसके आने पर किसी की झोली खाली नहीं रहती. वन-उपवन का कोई सदस्य इसकी दृष्टि से नहीं छूटता. जंगल हो, बाग-बगीचा हो, कहीं कोई एकाकी खड़ा पेड़ हो या किसी बालकनी के
गमले में उगा नन्हा-सा पौधा, ऋतुराज वसंत समभाव से सबके निकट जाकर देता है.ज्योतिष
जिसकी झोली में जितना समाए, उतना ले लें. नव-नव्यता ओढ़ने का
अधिकार तो सभी को है. इस ऋतुराज के स्वागत में आम के वृक्ष पहले से ही सिर पर बौर के गुच्छे उठाकर खड़े हो जाएंगे. वे हवाओं में सुवास बिखेरकर वातावरण को सुगंधित बनाने लग जाएंगे. कोयल, जो पतझर में अपना गला मांज रही थी, अब पंचम सुर में गाने लगेगी, गुलाब भैया भी कहाँ कम हैं, वे भी अपनी कलियां चटखाने लगेंगे, रस-गंध का लोभी भ्रमर गुनगुन का मद्धम तराना छेड़ने लगेगा, चारों ओर सौंदर्य का झरना-सा उमड़ पडे़गा है न…ज्योतिष
अब प्रकृति के ऐसे आनंदमय उत्सव में मनुष्य भाग न ले, ऐसा भला
कैसे हो सकता है. उसके मन में भी सहज ही उमंग-सी छाने लग जाएगी. बर्फीली ठंड की ठिठुरन के बाद वसंत की गुनगुनी हवाएं उसके तन-मन में नई चेतना का संचार कर देगी, उधर हरी घास पर कलरव करते, चहकते पाखी वसंत राग छेड़ने लग जाएंगे. तितलियां फूलों से कानाबाती कर दिल का हाल पूछने लग जाएंगी… और कहेगी- “…कहो कैसी हो, मुटा गयी हो रजाई में बैठे- बैठे, उठो चारों ओर सौंदर्य, आनंद, उल्लास छा रहा है. एफएम सुनो. नहीं तो रेडियो के कल्ट संगीत वाले कार्यक्रम में “रागबसंत” सुनो, अमीर खुसरो को सुनो, गा रहे हैं कि, आज बसंत मनाले सुहागिन…”ज्योतिष
वैसे शास्त्रीय संगीत में बसंत तो पौष मास से ही शुरू हो जाता है, जब भारतीय गायक माघ, फाल्गुन तक तीन महीने बसंत गाते हैं, बहार गाते हैं, हिंडोल बहार, शहाना बहार, गांधारी बहार गाते हैं, शाम में बसंत की आहट सुनाई देने लगती है. हवाओं में खुनकी, फिजा में रंग
बिखरने लगते हैं. बसंत के प्रभाव में कवियों-कलाकारों, संगीतकारों-गुणवंतों का मन गुनगुना उठता है, थिरकने लगता है. यही वजह है कि संगीत में बसंत के नाम से रागों का सृजन हुआ. बैजू बावरा इसके आदि गायक माने जाते हैं…ज्योतिष
‘बसंत ऋतु आई, फूले सकल वन बागन में, फूलवा भंवरू गूंजे, गावन लागी नर-नारी धमार.’ यानी यह धमार का समय है, बसंत का समय है. नवयौवना बन विहंसती है. कहीं फूल खिल उठते हैं, तो कहीं पीली सरसों नई दुल्हन की तरह प्रकृति का श्रृंगार कर
रही होती है. नर्तकों का मन-मयूर नाच उठता है और गायक बसंत के राग गाने लगे लगते हैं, राग बहार की तान छेड़ने लगते हैं. कवियों की रचना-भूमि तैयार हो जाती है और उनकी कविता अंकुर के रूप में फूटने लगती है, चारों तरफ फूलों की महक है और भौंरों की गुनगुनाहट, ऐसी बसंती फिजा में तभी एक अनसुनी धुन सुनाई देती है- संगीत सम्राट बैजू बावरा के धमार की.ज्योतिष
धमार गायकी नायक बैजू के स्वर-ज्ञान के सागर से ही निकली है और ब्रज के होरी गायन की यह नवीन पद्धति फागुनी रंग में मस्ती भरने लगेगी, अब बैजू के संगीत-ज्ञान की अग्नि में तप कर ही गुर्जरी तोड़ी और मंगल गूर्जरी जैसे नए राग निकले हैं, तो
धमार ताल मृदंग पर गूंजने लगेगा. बैजू ने ब्रज के होरी लोकगीत को प्राचीन चरचरी प्रबंध गान के सांचे में ढाला और होरी गायन की संगत में बजने वाली चाचर (चरचरी) ताल दीपचंदी बन गई. होरी की बंदिश पूर्ववर्ती रही और गायन शैली भी लोक संगीत की बुनियाद पर- पहले विलंबित और फिर द्रुत लय में कहरवा के साथ सम से सम मिलाते हुए चरम पर पहुंच कर विश्रांति ओह मेरी समझ से परे.ज्योतिष
कलावती और बैजू का प्रेम जितना निश्छल
और सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ. कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका कलावती से विछोह हो गया. बाद में दोनों कभी भी नहीं मिल पाए. इस घटना ने नायक बैजू को ‘बावरा’ बना दिया.
ज्योतिष
बैजू ने ‘कुंजन ने रचयो रास’ जैसे ध्रुपद रचे, जिनसे आज
भी ध्रुपद गायक अपने गायन को सजाते हैं, तो छोटे-छोटे धमार की रचना भी की, जिसकी गायन शैली का आधार ध्रुपद अंग ही रखा. रचना केवल फाग पर आधारित और रस श्रंगार, वह भी सिर्फ संयोग वियोग को उसमें बहुत कम जगह दी गई…ज्योतिष
ध्रुपद की तरह आलाप, फिर बंदिश और उसके बाद डेढ़ गुन, सवा गुन, पौने दो गुन जैसी विभिन्न लभैरव थाट के राग बसंत के पूर्वांग में भैरव और उत्तरांग में भैरवी के स्वर लगते हैं, यानी भैरव और भैरवी के बीच रागों का पूरा एक ‘इंद्रधनुष’ चलता है. चाल में भी परज
और ललित जैसे रागों से मिलता-जुलता यह राग आरोह-अवरोह की वक्र सीढ़ियां बनाता है, जिससे जाहिर है कि यह राग बेहद जटिल है. कलाकार मंच पर भले इस राग को कभी-कभार ही सुनाते हों, मगर सुनाते जरूर हैं. गिरिजा देवी बसंत में ही यह खयाल गाती थीं. कि- ‘फगवा ब्रज देखन को चलो री’ज्योतिष
उस्ताद अली अकबर खान की सरोद से भी निकल कर बसंत
फागुनी मस्ती में खो जाता था. पं. जसराज भी बसंत के दिनों में बसंत गाकर फिजा में बसंती रंग घोल देते थे. राग बहार में ‘सघन घन बेली फूल रही’ गाने वाले खयाल गायक भी आपको आसानी से मिल जाएंगे. ऐतिहासिक पुस्तकें बताती हैं कि बैजू बावरा जब राग बहार गाते थे, तो फूल खिल उठते थे और मेघ, मेघ मल्हार या गौड़ मल्हार से आसमान में बादल छा जाते और बारिश होने लगती थी…ज्योतिष
मध्यकाल के कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज और ग्वालियर के
जयविलास महल के साक्ष्य बताते हैं कि बैजू बावरा का जन्म सन 1542 में शरद पूर्णिमा की रात को हुआ था. कुछ विद्वान उनके मध्यप्रदेश के चंदेरी में जन्मे होने की बात कहते हैं, लेकिन साक्ष्य बोलते हैं कि चंदेरी उनकी क्रीड़ा-कर्मस्थली रही. वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों ‘मृगनयनी’ और ‘दुर्गावती’ में भी इसी बात का उल्लेख मिलता है. दस्तावेजों में उनका नाम कहीं बैजनाथ प्रसाद तो कहीं बैजनाथ मिश्र मिलता है, लेकिन उनके बचपन का नाम बैजू ही बताया जाता है…ज्योतिष
कहते हैं कि युवावस्था
में ही उनके मन की तरंगों के तार नगर की कलावती नामक नर्तकी से जुड़ गए थे, लेकिन कलावती और बैजू का प्रेम जितना निश्छल और सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ. कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका कलावती से विछोह हो गया. बाद में दोनों कभी भी नहीं मिल पाए. इस घटना ने नायक बैजू को ‘बावरा’ बना दिया. वृंदावन के स्वामी हरिदास ने उन्हें संगीत की सरगम सिखा दी और बावरे बैजू प्रेम को संगीत का आठवां स्वर मानने लगे. उनके इसी आठवें स्वर ने ‘तार सप्तक’ में पहुंच कर ‘सुर के संग्राम’ में अपने ही गुरु भाई संगीत सम्राट तानसेन को पराजित किया था.