‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की 79वीं वर्षगांठ पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
अगस्त के महीने का भारत की आजादी के आंदोलनों से बहुत पुराना संबंध है. हमें जब आजादी नहीं मिली थी तब आज से 79 वर्ष पूर्व सन् 1942 में इसी महीने में नौ अगस्त को गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के लिए “भारत छोड़ो आंदोलन” (क्विट इंडिया मूमेंट) के रूप में अपनी आखिरी मुहिम चलाई थी जिसे भारत के
इतिहास में “अगस्त क्रांति” के नाम से भी जाना जाता है. वर्ष 2017 में देश नौ अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ मना चुका है. उस उपलक्ष्य में संसद के दोनों सदनों में एक दिन की विशेष बैठक का आयोजन किया गया था और इस दिन संसद के नियमित कामकाज को छोड़कर सांसदों द्वारा केवल देश की आज़ादी प्राप्त करने में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की भूमिका के महत्व पर गम्भीरता से चर्चा की गई थी.महात्मा गांधी
महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में
चले इस विशाल जन आन्दोलन के जरिए अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति चाहने वाले करोड़ो देशभक्तों ने अपना तन मन धन न्योछावर कर दिया था. बाद में इसी आंदोलन ने 1947 में मिली आजादी की नींव भी रखी.गिरफ्तार
“एक देश तब तक
आज़ाद नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते.”
सदस्यों को
8 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी के इस “भारत छोड़ो” आन्दोलन के प्रस्ताव को मुंबई के ऐतिहासिक
‘ग्वालिया टैंक‘ में “अखिल भारतीय कांग्रेस” की कार्यसमिति की बैठक में स्वीकार कर लिया गया और नौ अगस्त से भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हो गई. कांग्रेस के इस ऐतिहासिक सम्मेलन में महात्मा गाँधी ने लगभग 70 मिनट तक भाषण दिया.अपने संबोधन में उन्होंने कहा-सभी
“मैं आपको एक मंत्र देता हूँ, करो या
मरो, जिसका अर्थ है – भारत की जनता देश की आज़ादी के लिए हर ढंग का प्रयत्न करे.”गाँधी जी के बारे में भोगराजू पट्टाभि सीतारामैया ने लिखा है कि “वास्तव में गाँधी जी उस दिन अवतार और पैगम्बर की प्रेरक शक्ति से प्रेरित होकर भाषण दे रहे थे.” उन्होंने इसी सभा में
अंग्रेज़ शासकों की दमनकारी,आर्थिक लूट-खसूट, एवं नस्लवादी नीतियों के विरुद्ध देशवासियों को जगाने के लिए ‘करो या मरो’ का मूल मंत्र दिया था. फिरंगियों को देश से भगाने के लिए “भारत छोड़ो” आन्दोलन की शुरुआत करते हुए तब गाँधीजी ने कहा था-कार्यकारी समिति के
“एक देश तब तक आज़ाद नहीं
हो सकता, जब तक कि उसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते.”कांग्रेस
नौ अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ नारे के साथ भारत छोड़ो आंदोलन का जो शंखनाद किया था उससे अंग्रेजों के राज्य की नींव हिल गई थी. मुम्बई से शुरू हुए इस आंदोलन को दबाने के लिए ब्रितानिया हुकूमत ने पहले से ही पूरी तैयारी कर रखी थी. उसने अगले ही दिन महात्मा गांधी को पुणे के आगा खान पैलेस
में नजरबंद कर दिया. कांग्रेस कार्यकारी समिति के सभी सदस्यों को गिरफ्तार कर अहमदनगर किले में बंद कर दिया गया. लगभग सभी आंदोलनकारी नेता गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन युवा नेता अरुणा आसफ अली हाथ नहीं आईं.उन्होंने नौ अगस्त 1942 को मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में अंग्रेजों के सभी इंतजामों को धता बताते हुए बहादुरी के साथ तिरंगा झंडा फहरा दिया.तभी से यह दिन अगस्त क्रांति दिवस के रूप में प्रसिद्ध हो गया.विप्लव
हालांकि गांधी जी ने शांति और अहिंसा के साथ आंदोलन करने को कहा था लेकिन इसके बावजूद देश में कई स्थानों पर विस्फोट हुए,सरकारी इमारतों को जला दिया गया, बिजली काट
दी गई तथा परिवहन और संचार सेवाओं को ध्वस्त कर दिया गया. अंग्रेज इस आंदोलन से बुरी तरह बौखला गए थे और उन्होंने सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया. देश में एक लाख से अधिक लोगों की गिरफ्तारी की गई. भारी हिंसा,आगजनी और लूटपाट के कारण इस आंदोलन को विरोधी खेमों की कटु आलोचना का भी सामना कर पड़ा.ऐसा
ब्रिटिश सरकार ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय हुए विद्रोहों का पूरा दोष महात्मा गाँधी पर थोप दिया. गाँधी जी ने इन बेबुनियाद आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि ‘करो या मरो’ मेरा वक्तव्य अहिंसा की सीमा में था. गाँधी जी ने अपने ऊपर लगे आरोपों को सिद्ध कराने के लिए सरकार से निष्पक्ष जांच की मांग की और 10 फ़रवरी,
1943 से उन्होंने उसके लिए 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया. उपवास के तेरहवें दिन ही गाँधी जी की स्थिति बिल्कुल नाजुक हो गयी. ब्रिटिश सरकार उन्हें मुक्त न करके उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगी. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ‘आगा ख़ाँ महल’ में उनके अन्तिम संस्कार के लिए चन्दन की लकड़ी की व्यवस्था भी कर दी गयी थी. सरकार की इस बर्बर नीति के विरोध में वायसराय की कौंसिल के सदस्य सर मोदी, सर ए.एन. सरकार एवं आणे ने इस्तीफ़ा दे दिया था.इतिहास में
‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ अंग्रेजों का साथ देने वाले कुछ संगठनों की वजह से भले ही देश को उस समय स्वतन्त्र न करवा पाया हो, लेकिन इसका दूरगामी प्रभाव यह पड़ा कि इसे भारत
की स्वाधीनता के लिए किया जाने वाला अन्तिम निर्णयात्मक जन आंदोलन माना जाने लगा जिसमें गांव गांव और नगर नगर से समस्त भारतवासियों की भागीदारी रही थी और यह घटना विश्व व्यापी इतिहास के सुनहरे अक्षरों में लिखी जाने वाली घटना बन गई.राज के
दरअसल, अगस्त, 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन ने विश्व के कई देशों को भी भारतीय जनमानस की आजादी के आन्दोलन’ के साथ खड़ा कर दिया था. तब चीन के तत्कालीन
मार्शल च्यांग काई शेक ने 25 जुलाई,1942 ई. को संयुक्त राज्य अमेरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट को पत्र में लिखा-भारत में ब्रिटिश
“अंग्रेज़ों के लिए सबसे श्रेष्ठ नीति
यह है कि वे भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दे दें.” रूजवेल्ट ने भी इसका समर्थन किया. सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आन्दोलन के बारे में लिखा-भारत छोड़ो आंदोलन
“भारत में ब्रिटिश राज के
इतिहास में ऐसा विप्लव कभी नहीं हुआ, जैसा कि पिछले तीन वर्षों में हुआ,लोगों की प्रतिक्रिया पर हमें गर्व है.”किया गया
दरअसल, भारतीय राजनीति में गाधी के आगमन से पहली बार राष्ट्र को यह अहसास हुआ कि शक्ति अपने से बाहर नहीं है इसका संचयन अपने भीतर ही किया जा सकता है.
उन्होंने देशवासियों से कहा कि ब्रिटेन के पास अपनी कोई शक्ति नहीं है जिस पर हमारी गुलामी का शासन-भवन टिका है.अपना सहयोग खींच लो यह भवन निराधार होकर गिर जाएगा.इसी प्रयोजन से गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध तीन बड़े अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन किए ,सत्याग्रह की लड़ाइयां लड़ी और एक विशाल ब्रिटिश राज्य को पराजित करते हुए अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश कर दिया.प्रयास
भारत छोड़ो आंदोलन की सफलता और असफलता को लेकर इतिहासकारों में परस्पर मतभेद हैं. पर इतना तो सभी मानते हैं कि इस आंदोलन ने अंग्रेजी शासन की कमर
तोड़कर रख दी थी. बापू की इस आखिरी लड़ाई को उस समय देश की पूरी जनता का भरपूर समर्थन मिला था.
करने का भी
स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षपूर्ण वर्षों में गांधी जी से प्रेरणा लेकर ऐसे समर्पित हजारों लाखों देश सेवकों की जमात पैदा हो गई थी जो देश सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार थी.उस समय गाधी टोपी पहनऩे वालों को लोग पीड़ित जनों का त्राता व जनता का रक्षक मानऩे लगे थे.पहली बार सार्वजनिक जीवन में विशेष कर
राजनीति के क्षेत्र में सचाई, सरलता, साधुता तथा सदाचार को महत्त्व दिया जाने लगा. गांधी चिन्तन की एक खास विशेषता यह है कि इसने राजनैतिक और धार्मिक विप्लवों के कारण भूली बिसरी भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार किया. सदियों के बाद पहली बार भारतवासियों को यह अनुभूति कराई कि मनुष्य केवल रोटी खाकर नहीं जी सकता बल्कि उसकी सांस्कृतिक पहचान भी स्वतंत्रतापूर्वक जीने के लिए बहुत जरूरी खुराक है. गाधी जी ने धर्म में मानव की श्रद्धा और आस्था को पुनर्जीवित किया और इस संकल्प को मजबूती प्रदान की कि मनुष्य की क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए आत्मा को बेचा नहीं जा सकता.छोड़ो आंदोलन
भारत छोड़ो आंदोलन की सफलता और असफलता को लेकर इतिहासकारों में परस्पर मतभेद हैं. पर इतना तो सभी मानते हैं कि इस आंदोलन ने अंग्रेजी शासन की कमर तोड़कर रख
दी थी. बापू की इस आखिरी लड़ाई को उस समय देश की पूरी जनता का भरपूर समर्थन मिला था. पर विडम्बना यह भी रही कि अंग्रेजी हुकूमत का परोक्ष रूप से साथ देने वाले और उनकी चापलूसी करने वाले तत्कालीन विभिन्न राजनीतिक दलों तथा साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाले धार्मिक संगठनों ने इस आन्दोलन का समर्थन नहीं किया.बदनाम
इस आन्दोलन के समय हिंसक गतिविधियों को भड़का कर इसे बदनाम करने का भी प्रयास किया गया. गांधी जी और कांग्रेस को मोहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग, वामपंथियों और कुछ धार्मिक संगठनों से कटु आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. राजनीतिक दलों के इन आपसी मतभेदों से लाभ उठाते हुए ‘फूट
डालो और राज करो’ की कूटनीति में कुशल अंग्रेज शासक 1944 के शुरू तक इस आंदोलन को कुछ समय के लिए दबाने में सफल रहे. इससे बहुत से राष्ट्रवादी अत्यंत निराश भी हुए. यदि देश के सभी दलों ने गांधी जी के इस आंदोलन का उस समय एकजुट होकर समर्थन किया होता तो शायद हमें आजादी सन 1947 में नहीं बल्कि पांच साल पहले सन 1942 में ही मिल गई होती. तब उस समय भारत का मानचित्र भी कुछ और ही होता और देश का विभाजन भी नहीं हुआ होता.आंदोलन
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)