
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
“नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पगतल में.
पीयूष स्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में..”
–जयशंकर प्रसाद
8 मार्च का दिन समूचे विश्व में ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. यह दिन महिलाओं को स्नेह, सम्मान और उनके सशक्तीकरण का भी दिन है.
हिंदी के जाने माने महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की उपर्युक्त पंक्तियों से भला कौन अपरिचित है जिन्होंने श्रद्धा और विश्वास रूपिणी नारी को अमृतस्रोत के रूप में जीवन के धरातल में उतारा है. प्राचीन काल से ही हमारे समाज में नारी का विशेष आदर और सम्मान होता रहा है. हमारे पौराणिक ग्रंथों में नारी को पूज्यनीय एवं देवीतुल्य माना गया है. हमारी धारणा रही है कि देव शक्तियां वहीं पर निवास करती हैं जहां पर समस्त नारी जाति को प्रतिष्ठा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. कोई भी परिवार, समाज अथवा राष्ट्र तब तक सच्चे अर्थों में प्रगति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता जब तक वह नारी के प्रति भेदभाव, निरादर अथवा हीनभाव का त्याग नहीं करता है.उत्तराखंड
यह संसार तीन तत्त्वों से चल रहा है – धन, शक्ति एवं ज्ञान से. यानी लक्ष्मी, दुर्गा व सरस्वती ये तीन देवी शक्तियां ही देवशास्त्रीय जगत में इन्हीं तीन सृष्टि संचालक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
इन तीनों शक्तियों की ही हम दीपावली, नवरात्रि और वसन्त पंचमी के अवसर पर विशेष पूजा अर्चना करते हैं.ये वही शक्तियां हम सब में है, हमारे परिवार में हैं और हमारे समाज में हैं, जिनकी हम अवमानना करते हैं,उनका अपमान और निरादर करते हैं, जिसके कारण हम, हमारा परिवार और समाज कमजोर हो रहा है.शक्तिस्वरूपा होने के कारण ही पुरुष से नारी श्रेष्ठ है क्योंकि वह स्वयं पुरुष की जन्मदात्री है. किन्तु पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता ने नारी के सभी मौलिक अधिकार हस्तगत कर लिए हैं,इसलिए आज नारी की पूजा करने से बेहतर यह है कि उसके प्रकृतिप्रदत्त अधिकारों को उसे पुनः लौटा दें,बस इतना भी ईमानदारी से कर दिया जाए नारी सशक्त हो जाएगी क्योंकि वह जन्मजात प्रकृति से ही सशक्त है. पुरुष ने ही उसे अशक्त किया है. मनुस्मृति में कहा गया है-उत्तराखंड
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:.”
अर्थात् जहां नारियों की
पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है.नारी का सम्मान सदा होना चाहिए. यह हमारी भारतीय परम्परा का सनातन विचार है. किंतु आज हम देखते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला आ रहा है.उसे भोग अथवा विज्ञापन की वस्तु समझकर उपभोक्तावादी समाज अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत होकर नारी की शिष्टता, सुन्दरता,उदारता और सहनशीलता का अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु अनुचित लाभ उठाता आया है.उत्तराखंड
डा. हरिनारायण दीक्षित रचित ‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’ महाकाव्य में देवभूमि उत्तराखंड के न्यायदेवता ग्वेलज्यू के समाज चिंतन से जुड़े नारी विषयक उच्च विचार तपोभूमि उत्तराखंड हिमालय के कण कण को गौरवान्वित करते हैं. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उत्तराखंड के न्यायदेवता से सम्बंधित महिला सशक्तीकरण के विचारों की विशेष रूप से चर्चा करना चाहुंगा, जिसका सम्बन्ध न केवल नारी अस्मिता की रक्षा से है,अपितु उस भारत जैसे सभ्य समाज के उदात्त और गौरवशाली समाज चिंतन से भी है. डा.दीक्षित के ‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’ संस्कृत महाकाव्य के अनुसार ग्वेलज्यू द्वारा उपदिष्ट नारी विषयक विचारों के संदर्भ में जन्मभूमि और जन्मदात्री मां इन दोनों में भी जन्मदात्री मां को पहला और सर्वोपरि स्थान दिया गया है. न्याय देवता ग्वेल अपनी माता के परम भक्त पुत्र थे. जैसे ही उन्हें स्वप्न द्वारा ज्ञात हुआ कि उनकी माता कालिंका के साथ उनकी सौतेली माताओं ने अन्याय किया तो वह अपनी माता की रक्षा के लिए काठ के घोड़े में सवार होकर धूमाकोट में पहुंच जाते हैं. ग्वेलज्यू का मानव मात्र को सन्देश है कि बेटे का यह पहला धर्म है कि वह अपनी मां की रक्षा करे.
उत्तराखंड
8 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम नारी और उसकी मातृत्व भावना के सम्मान को महामंडित करने वाले डा.हरिनारायण दीक्षित रचित ‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’
महाकाव्य के निम्नलिखित 8 विशेष पद्यों से अष्ट-मांगलिक नारी सशक्तीकरण और उसके मान सम्मान से सम्बंधित सिद्धांतों की चर्चा को विशेष रूप से रेखांकित करना चाहेंगे, ताकि समूचा विश्व जान सके कि न्यायदेवता ग्वेलज्यू एक पत्थर की मूर्ति को मन्दिर बनाकर पूजने का ही धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं है, बल्कि उनके न्याय विषयक सिद्धांत नारी अस्मिता की रक्षा से जुड़े सामाजिक मूल्यों के भी पुरोधा हैं.उत्तराखंड
डा. हरिनारायण दीक्षित रचित ‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’ में ग्वेल अपनी मां कालिंका को निम्नलिखित जो आठ बातें कह रहे हैं, उनकी प्रासंगिकता आज केवल ग्वेल देवता के भक्तों के लिए
ही नहीं, या उत्तराखंडवासियों के लिए ही नहीं, या भारतवर्ष के नागरिकों के लिए ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लिए भी उपयोगी और अनुकरणीय हैं. ग्वेल देवता के ये सिद्धांत केवल हिंदुओं के लिए ही प्रासंगिक नहीं बल्कि विश्व के तमाम धर्मावलंबियों के लिए भी उतने ही उपयोगी हैं क्योंकि सभी धर्मों ने मातृशक्ति को आराध्य माना है.आइए! ‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’ के वे नारी सशक्तीकरण के आठ मूल्यों या सिद्धांतों को भी जान लें,जो इस प्रकार कहे गए हैं-उत्तराखंड
1. इस संसार में जो व्यक्ति अपनी जन्मदात्री मां की अवहेलना या निरादर नहीं करता है उसकी आशाएं और मनोकामनाएं सदा सफल होती हैं. किंतु जो अपनी जन्मदात्री मां का निरादर या अपमान करता है उसकी आशाएं और मनोकामनाएं कभी सफल नहीं हुआ करती हैं-
“आशा-प्रतिक्षे इह
यो न स्वकीयां जननीमुपेक्षते.
आशा-प्रतिक्षे यह तस्य नश्यतो
यश्च स्वकीयां जननीमुपेक्षते..”
-ग्वल्लदेव.,12.20
2. इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी जन्मभूमि को स्वर्ग से
भी ज्यादा महान् बताया गया है. लेकिन मेरी दृष्टि में अपनी जन्मदात्री मां अपनी जन्मभूमि से भी अधिक महान सिद्ध होती है-“स्वजन्मभूमिर्गदिता
स्वर्गादपीत्यत्र न कोऽपि संशयः.
स्वजन्मभूमेरपि किन्तु मन्मते
गरीयसी स्वा जननीह सिद्ध्यति..”
-ग्वल्लदेव.,12.21
उत्तराखंड
3. बेटे का पहला
धर्म माना गया है कि वह अपनी जन्मदात्री मां की हर प्रकार के कष्टों से रक्षा करे. किन्तु जो बेटा इसके विपरीत आचरण करता है तो उसका यह लोक और परलोक दोनों कलंकित हो जाते हैं-“सुतस्य धर्मः परमो मतोऽस्ति यद्
रक्षेद् ध्रुवं स्वाम् जननीं स सर्वतः.
एतत्प्रतिपाचरणानुसारिणस्–
सुतस्य लोकद्वयमेव दुष्यति..”
-ग्वल्लदेव.,12.19
उत्तराखंड
4. हे देवि! मां कालिंका ! आप में दया की गंगा दिखाई देती है, आप में कृपा की यमुना दिखाई देती है,और आप में बुद्धि की सरस्वती दिखाई देती है.इस प्रकार है मातृ स्वरूपा मां कालिंका! मुझे तो आप में त्रिवेणी दिखाई देती है-
“देवि! त्वयि दयागंगा
त्वयि कृपाकलिन्दजा.
मेधासरस्वती चापि
त्रिवेणीत्थं विलोक्यते..”
-ग्वल्लदेव.,6.125
5. हे देवि! आप अच्छी नारी के सभी गुणों से भरपूर हैं,
और आप तपोबल से युक्त हैं. इसलिए आप मेरी वंश-बेल को निश्चय से आगे बढ़ाएंगी-“सन्नारिगुणयुक्ता त्वं
त्वं तपस्याबलान्विता.
वर्धयिष्यसि तन्नूनं
मम त्वम् वंशविरुधम्..”
-ग्वल्लदेव.,6.127
6. न्याय
देवता ग्वेलज्यू ने राजा बनते ही सामाजिक आचार संहिता से सम्बंधित जो शासनादेश निकाले उसमें भी साफ हिदायत दी गई है कि जो भी मनुष्य अपनी पत्नी का भरण–पोषण नहीं करेगा वह मेरे राज्य में दण्डनीय होगा. इसी प्रकार अपने पुत्र और पुत्री में भेदभाव रखने वाला पिता भी मेरे राज्य में दण्डनीय माना जाएगा-उत्तराखंड
“यो नात्र भार्या भरणं विधाता
सोप्यत्रदण्ड्योभवितामनुष्यः.
सुते सुताया विभेदकारी
पितापिदण्ड्यो भवितात्र राज्ये॥”
-ग्वल्लदेव.,21.25
7. जो व्यक्ति मेरे राज्य में अपनी पुत्रधु को अपनी बेटी के
समान नहीं मानेगा वह चाहे मूर्ख सास हो या मूर्ख ससुर उसे मेरे राज्य में निंदनीय और दण्डनीय भी माना जाएगा.यहां मेरे राज्य में माता-पिता के धर्म का भी पालन किया जाना चाहिए–“स्नुषां च पुत्रीमिव यो न मन्ता
श्वश्रूजनो या श्वसुरस्स मूढः.
निन्द्यश्च दण्ड्यो भवितात्र राज्ये
धर्मोऽत्र पित्रोरपि रक्षितस्स्यात्॥”
-ग्वल्लदेव.,21.26
8. इसी प्रकार जो पुत्रधु केवल अपने पति को ही
महत्त्व देती हुई कर्तव्यहीन हो कर अपने सास-ससुर की सेवा नहीं करेगी वह भी मेरे राज्य में दण्डनीय मानी जाएगी.क्योंकि स्नेहपूर्ण आत्मीय सम्बन्धों की पवित्र गंगा प्रदूषित नहीं होनी चाहिए-“सेविष्यते नो श्वसुरौ स्नुषा या
कर्तव्यहीना पतिमात्रकामा.
साप्यत्र निन्द्या भविता च दण्ड्या
सम्बन्धगङ्गा नहि दूषितास्यात्॥”
-ग्वल्लदेव.,21.27
दरअसल‚ ‘ग्वलदेवचरितम्’ महाकाव्य के
अनुसार समाज व राष्ट्र की धुरी महिला है. वह मां‚ पत्नी‚ बेटी‚ बहू‚ बहन के रूप में हर परिवार का मूल आधार स्तम्भ है. इसलिए जो भी समाज अपने परिवार के इस मूल स्तम्भ को कमजोर करता है या उसके साथ दुराचार करता है, वस्तुतः वह धर्म और समाज की मूल चेतना को निर्बल कर रहा होता है. इसलिए वर्तमान संदर्भ में महिलाओं का सम्मान करने वाले न्याय देवता ग्वेल के विचार मातृशक्ति के सर्वांगीण विकास और नारी सशक्तीकरण के लिए भी प्रेरणादायी चिंतन है.उत्तराखंड
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)