प्रेमचंद जी की पुण्यतिथि (8 अक्टूबर) पर विशेष
- डॉ. अमिता प्रकाश
08 अक्टूबर आज प्रेमचंद को
याद करने का विशेष दिन है. आज उपन्यास विधा के युगपुरुष एवं महान कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि है. 31 जुलाई के दिन प्रेमचंद ने लमही में एक फटेहाल परिवार में जन्म लेकर तत्कालीन फटेहाल भारत को न सिर्फ जिया बल्कि उस समाज का जीता-जागता दस्तावेज हमेशा के लिए पन्नों पर दर्ज कर दिया. उस समय जब भारत उपनिवेशवाद और उसकी जनता उपनिवेशवाद की अनिवार्य बुराई सामंतवाद के चंगुल में फंसी छटपटाहट रही थी, उसको अपनी मुक्ति का मार्ग दिख नहीं रहा था वह सिर्फ हाथ-पैर मारकर अपनी छटपटाहट को व्यक्त कर रहा था. उस समय प्रेमचंद आचार्य शुक्ल, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे साहित्यकार महात्मा गांधी के जनांदोलनों को विचारों की ऊर्जा ही प्रदान नहीं कर रहे थे बल्कि जनता को उसकी सामर्थ्य-शक्ति का अहसास कराकर राष्ट्रीय आंदोलनों को सशक्त कर रहे थे.कमोबेश
प्रेमचंद को याद करने के लिए दिन विशेष की जरूरत नहीं है, वह इतने प्रासंगिक हैं कि रोजमर्रा के घटनाक्रम में अनायास ही याद आ जाते हैं. प्रेमचंद-युगीन 2030 के दशक का वह समाज कमोबेश आज भी वैसा ही है, वही छटपटाहट, वही मजबूरी,
वही गरीबी और होरी की भांती तिल-तिल मरते किसान आज भी हमारे समाज का एक कटु किंतु अनिवार्य यथार्थ है, थोड़े-बहुत अंतरों के साथ. इन यथार्थो से भी सबसे कटु व मन को विचलित करने वाला यथार्थ, हमारे मुँह पर तमाचा यथार्थ है कि तब हम विदेशी सत्ता के गुलाम थे किन्तु आज अपनों के द्वारा ही शोषित, वंचित और ठगे जा रहे हैं हास्यास्पद है कि तब हमारे प्रशासक हमारी मर्जी के बिना बनते थे आज हम स्वयं चुन रहे हैं, लेकिन आम जनता के शोषण कि स्थिति कमोबेश वही बनी हुई है.पत्रों
किसान, मजदूर, दलित,
आदिवासी और स्त्रियाँ समाज में तब भी हासिए पर थे आज भी हासिए पर ही हैं. तब हासिए पर जाने का दंश इतना तीव्र नहीं था क्योंकि हमारी तथाकथित सरकारों ने हमें कर्मफल या भाग्यफल जैसे झुनझुने दे रखे थे और हम अपने दुःख-दर्द, विपत्ति को ईश्वर या कर्म का न्याय विधान मानकर होरी की भांति सबकुछ चुपचाप सह लेते थे, आज वह दंश और अधिक गहरा इसलिए है क्योंकि शिक्षा ने हमारे हाथों से झुनझुने तो छीन दिये किन्तु वे सशक्त हथियार या साधन बदले में नहीं दिये जिससे हम उस दंश से मुक्ति पा सकें. प्रेमचंद ने जो तब रचा, वह किसी न किसी रूप में आज भी प्रासंगिक है. उनकी प्रासंगिकता ही उनको सबसे प्रिय कथाकार बनाती हैं. ठाकुर का कुंआ की गंगी तब जितनी विवश और दलित थी क्या हम कह सकते हैं कि वह समाज नहीं है?समाचार
आये दिन अखबारों व समाचार पत्रों में उससे भी अधिक वीभत्स घटनाएँ देखने-सुनने को मिलती हैं, वह भी तब जबकि एक मौन सहमति उन लोगों के द्वारा प्रताड़ना करने वालों को
मिलती है जिनके कंधों पर यह सब खत्म करने की जिम्मेदारी है. हाथरस की बीभत्स घटना हो या कुछ समय पूर्व ही किसी न्यूज चैनल पर चल रही खबर कि यू०पी० में आगरा से 30 किमी दूर एक गाँव में एक अनुसूचित जाति की महिला का शव चिता से उतरवा दिया गया क्योंकि ठाकुरों को यह सहन नहीं हुआ कि अनुसूचित जाति किसी व्यक्ति का शव उनकी शमशान भूमि पर जले, अब यहाँ पर गंगी और इस मृतका के साथ हुए घटनाक्रम पर गौर कीजिये, आप स्वयं निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्रेमचंन्द की गंगी और 2020 की इस अनुसूचित महिला में मूलतः क्या अंतर हैं? हमारी संवेदनाएँ किस हद तक रसातल में जा चुकी हैं.अखबारों
यह बात सत्य है
कि कथा में लेखकीय टिप्पणियाँ कथा के घटनाक्रम के आधार पर होती हैं जबकि निबंधकार के रूप में वह व्यक्तिगत विचारों को स्पष्टता से संप्रेषित कर पाता है. प्रेमचंद का निबंध साहित्य लगभग 1700-1800 पृष्ठों तक फैला है और संभवतः एक आम पाठक ने उसमें से मात्र दो-चार ही निबंध पढ़े होंगे.
सहजता
प्रेमचंद को अधिकांशतः हम सिर्फ कथाकार के रूप में पढ़ते और समझते हैं. प्रेमचंद का कथा-साहित्य निश्चित रूप से इतना वृहद, व्यापक और संवेदनशील है कि उनके निबंधकार का
रूप थोड़ा उपेक्षित सा हो जाता है. यदि प्रेमचंद को समग्र रूप से पढ़ा जाय अर्थात उनकी कहानी और उपन्यासों के साथ-साथ उनके निबंधों को भी रखा जाय, तो प्रेमचंद समग्र रूप से हमारे, सामने आते हैं. यह बात सत्य है कि कथा में लेखकीय टिप्पणियाँ कथा के घटनाक्रम के आधार पर होती हैं जबकि निबंधकार के रूप में वह व्यक्तिगत विचारों को स्पष्टता से संप्रेषित कर पाता है. प्रेमचंद का निबंध साहित्य लगभग 1700-1800 पृष्ठों तक फैला है और संभवतः एक आम पाठक ने उसमें से मात्र दो-चार ही निबंध पढ़े होंगे.कथाकार
प्रेमचंद ने अपने निबंधों के माध्यम से बड़ी सहजता के साथ अपने समाज और उसमें अपेक्षित सुधार को पाठकों से साझा किया है, उनका समय वह समय था जब स्त्री शिक्षा
और विधवा विवाह और तलाक जैसे मुद्दे बहस का विषय तो बनने लगे थे किन्तु एक निश्चित ‘स्टैंड’ कोई नहीं ले पा रहा था. स्त्री शिक्षा को लेकर अधिक असमंजसता थी, कि उसे एक ‘आदर्श नारी’ बनाने वाली भारतीय शिक्षा दी जाये या पाश्चात्य शिक्षा? ऐसे में प्रेमचंद स्पष्ट रूप से स्त्री शिक्षा के मुद्दे को स्टैंड के साथ उठाते हैं और लड़कियों को पढ़ाने की वकालत करते हैं. आज जब कुछ लोग प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर सवाल उठाने लगे हैं, कुछ उन्हें दलित विरोधी, स्त्री-विरोधी और ‘परम्परा पोषक’ जैसे अलंकरणों से नवाजकर अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं, उन्होंने या तो प्रेमचंद को समग्रतः पढ़ा नहीं है या तो यह सब साजिशन कर रहे हैं.प्रेमचंद
खैर, बात प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि और स्त्री-पात्रों की हो रही है, तो मैं प्रेमचंद के व्यक्तिगत जीवन के प्रसंग को भी उठाना चाहूंगी, उन्होंने माँ के रूप में विमाता का स्नेह-तिरस्कार
सब झेला तो पत्नी के रूप में उनकी पहली पत्नी से कभी नहीं बनी. हाँ शिवरानी देवी के रूप में उन्हें एक आदर्श सहयोगी मिली. प्रेमचंद के निजी जीवन की इन घटनाओं ने भी प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि निर्मित करने में बड़ी भूमिका निभाई है. प्रेमचंद ने समाज के हर वर्ग को प्रतिनिधित्व अपने कथा साहित्य में दिया है और यथार्थता के आधार पर दिया है. उनके पात्र तब भी जीवंत थे और आज भी जीवंत हैं इसमें कोई दो राय नहीं.जीवन
“नारी का आदर्श है
एक ही स्थान पर त्याग, सेवा और पवित्रता का केन्द्रित होना” और इस कथन के आधार पर प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि को रूढ़िवादी घोषित कर दिया जाता है, किन्तु ऐसा ही अगर होता तो प्रेमचंद न तो सिलिया की जीत का चित्रण करते, न झुनिया जैसी विधवा का और न मालती जैसी प्रगतिशील नारी का.
परतंत्र
माँ, पत्नी, बहन, प्रेमिका,
शिक्षिका, वेश्या, जितने रूप महिलाओं के हो सकते हैं वे सब प्रेमचंद के साहित्य में दृष्टिगोचर होते हैं, और उनका विश्लेषण बुद्धिजीवी कुछ रटे-रटाये उद्धरणों के आधार पर कर देते हैं, उनमें से एक उद्धरण जो अक्सर दोहराया जाता है वह है- “नारी का आदर्श है एक ही स्थान पर त्याग, सेवा और पवित्रता का केन्द्रित होना” और इस कथन के आधार पर प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि को रूढ़िवादी घोषित कर दिया जाता है, किन्तु ऐसा ही अगर होता तो प्रेमचंद न तो सिलिया की जीत का चित्रण करते, न झुनिया जैसी विधवा का और न मालती जैसी प्रगतिशील नारी का.अपने
दरअसल एक बंधे-बंधाये ढांचे में रखकर हम प्रेमचंद को जब तक पढ़ेंगे तब तक हमारी दृष्टि संकुचित और सीमित
ही रहेगी. प्रेमचंद जब लिख रहे थे उस समय और आज भी समाज में वुधिया, धनिया, सिलिया, मालती, सोना, रतन आदि सभी स्त्रियाँ मिलती हैं और उसी हाड़-मांस की बनी मिलती हैं जिससे वो सारी स्त्रियाँ बनी थी. उनमें मानवमात्र की सभी सबलताएं और निर्बलताएं मौजूद हैं. धनिया का चरित्र होरी से कहीं अधिक मुखर है, जो अपने परिवार के लिए हर प्रकार का त्याग करती है और अंत में हाथ आती है सिर्फ निराशा, दुख और वैधव्य. इस कोरोना काल में कई धनियाओं को सड़कों पर जूझते, संघर्ष करते तथा अपने अधिकार के लिए आवाज उठाते हुए भी देखा, भले ही वह आवाज धनिया की ही आवाज की भांति नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह रह गई.सुमन
मालती के संदर्भ में फिर
एक वही रटा-रटाया उद्धरण लिया जाता है- “बाहर से तितली और अंदर से मधुमक्खी” और इस आधार पर प्रेमचंद को संकुचित स्त्री दृष्टि वाला घोषित कर दिया है. मालती जैसे सशक्त चरित्र को रचने वाले इस रचनाकार के प्रति यह अन्याय नहीं तो और क्या है? मालती, तितली है अपनी सुंदरता और कमनीयता में, जो जैविक रूप से स्त्री होती है, और साथ ही साथ स्वतन्त्रता स्वच्छंदता में, जो नारी का अधिकार है, ठीक वैसी ही स्वच्छंदता और स्वतन्त्रता जैसे पुरुष को प्राप्त है, प्रेमचंद मालती के चित्रांकन द्वारा कितनी बड़ी क्रांतिकारी परिवर्तन की बात कर रहे हैं, यह दृष्टव्य है. मालती पढ़ी-लिखी महिला जो अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है और वह उन निर्णयों का साधिकार लेती भी है, चाहे वह मेहता के साथ रहने का निर्णय हो या उसे त्यागने का.वाले
सेवासदन की सुमन
अपने परतंत्र जीवन से बेहतर उस वेश्या के जीवन को मानती है जो स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जी ही नहीं सकती बल्कि अपने निर्णय भी ले सकती है. आज के स्त्री विमर्श के मुख्य बिन्दु को सर्वप्रथम स्वर दिया प्रेमचंद ने. आज के समाज में ‘सुमन’ का व्यक्तित्व निखरा है और आत्मनिर्णय, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास से लबालब जीवन के हर क्षेत्र में दस्तक देती नारी के कई प्रारम्भिक पाठ प्रेमचंद की नारी पात्रों में परिलक्षित होती है. ‘गबन’ की जालपा को आभूषण प्रिय नारी के रूप में सदियों से यह विद्वत समाज पढ़ता और पढ़ाता आ रहा है किन्तु जालपा के त्याग और स्वाधीनता संग्राम में अपने पति को दिये गये सहयोग को कहीं रेखांकित नहीं किया जाता. इसी उपन्यास की ‘रतन’ वह महिला पात्र है जो पति की संपत्ति पर पत्नी के अधिकार का प्रश्न उठाती है.सवाल
प्रेमचंद का
स्त्री विमर्श उस भारतीय समाज का स्त्री विमर्श है जो नवजागरण की शुरुआती लहरों से आप्लावित हो रहा है. सदियों से पर्दे में रही नारी की शिक्षा, उसके आत्मावलंबन की बात करना ही अपने-आप में बड़ा क्रांतिकारी विचार था, प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में समाज के हर तबके की नारी को तत्कालीन यथार्थता के साथ चिन्हित किया और भविष्य के विकास के लिए एक नई रूपरेखा प्रस्तुत की.
उठाने
प्रारम्भिक नारी-पात्रों में ‘प्रेमा’, ‘वरदान’ की सुशीला, माधवी विरजन आदि प्रेमचंद युगीन आदर्श नारी की प्रतिनिधि पात्र हैं, किन्तु मालती उसकी बहन सरोज एवं वरदा,
रंगभूमि की सोफिया आदि स्त्री विषयक शहरी निर्णय की संकल्पना को चरितार्थ करती है वहीं ग्रामीण परिवेश में धनिया, झुनिया, सिलिया, फूलमती और मीनाक्षी सशक्त पात्र हैं, जो आज की नारी की भांति संघर्ष करती हैं, भले ही तत्कालीन देशकाल परिस्थितियों के अनुसार वे सर्वत्र विजयी नहीं होती हैं. मीनाक्षी तो उस समय में भी इतनी आक्रमक है कि अपने अय्याश पति को हंटर से मारती है.पर
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रेमचंद का स्त्री विमर्श उस भारतीय समाज का स्त्री विमर्श है जो नवजागरण की शुरुआती लहरों से आप्लावित हो रहा है. सदियों से पर्दे में रही नारी
की शिक्षा, उसके आत्मावलंबन की बात करना ही अपने-आप में बड़ा क्रांतिकारी विचार था, प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में समाज के हर तबके की नारी को तत्कालीन यथार्थता के साथ चिन्हित किया और भविष्य के विकास के लिए एक नई रूपरेखा प्रस्तुत की. यह सच है कि आज लगभग सौ वर्षों के अंतराल में हुए परिवर्तन और विकास को उनके साहित्य में लक्षित नहीं किया जा सकता, लेकिन उन्होंने इस परिवर्तन की आहात को महसूस किया और हर कालजयी रचनाकार की भांति उसके भावी स्वरूप की रूपरेखा भी प्रस्तुत की.प्रासंगिकता
कोरोनाकाल में अपने जेवर
बेचकर बेटे को दिल्ली से रामनगर लाने वाली माँ की भांति माँ भी प्रेमचंद की कहानी में है तो अपनी स्वतन्त्रता और विचारों की रक्षा करने वाली लाखों मालतियाँ हैं जो किसी पर आश्रित नहीं हैं. वस्तुतः स्त्री विमर्श में प्रेमचंद का योगदान नींव के पत्थर की भांति है और इस कथन की सत्यता हम तभी प्रमाणिक पा सकेंगे जब हम प्रेमचंद को समग्रता से पढ़ेंगे और समझेंगे. प्रेमचंद ने अपना पूरा जीवन नहीं जिया था मात्र 56 वर्ष में जो कुछ देखा भोगा और चिंतन के माध्यम से पाना चाहा उसे लिपिबद्ध कर दिया.की
नारी में अधिकार सजगता
एवं स्वयं निर्णय लेने की क्षमता की पहल मुंशी प्रेमचंद ने ही की, जो आज की नारी के सशक्त व्यक्तित्व के दो सबसे बड़े पहलू हैं.प्रेमचंद
इसलिए प्रेमचंद की प्रासंगिकता
पर सवाल उठाने वाले विद्वतजनों से आग्रह यही है कि वह टुकड़ों में प्रेमचंद को न समझें बल्कि उनके समाज के संदर्भ में उन्हें देखें, वह उस समाज में “यौन सुचिता” के प्रश्न को नहीं उठा सकते थे, और न उन्होंने उठायी है किन्तु मिस मालती के माध्यम से एक ऐसी सशक्त नारी की संकल्पना प्रस्तुत की है जो अपनी इच्छा से किसी के साथ रह सकती है और अपनी इच्छा से उसे छोड़ भी सकती है. नारी में अधिकार सजगता एवं स्वयं निर्णय लेने की क्षमता की पहल मुंशी प्रेमचंद ने ही की, जो आज की नारी के सशक्त व्यक्तित्व के दो सबसे बड़े पहलू हैं.बुराई
(लेखिका रा.बा.इं. कॉलेज द्वाराहाट, अल्मोड़ा में अंग्रेजी की अध्यापिका हैं)