प्रताप भैया की 10वीं पुण्यतिथि पर विशेष
- भुवन चन्द्र पन्त
लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीति का ककहरा शुरू कर महज 25 वर्ष में उत्तर प्रदेश विधानसभा का सदस्य और 35 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश में पहली बार बनी गैरकांग्रेसी सरकार में कैबिनेट मंत्री का ओहदा पा लेने वाले प्रताप भैया यदि राजनीति के लिए बने होते तो शायद शीर्ष तक पहुंचते. लेकिन चाटुकारिता से कोसों दूर राजनीति को उन्होंने मात्र समाजसेवा के माध्यम से ज्यादा तवज्जो ही नहीं दी. लखनऊ या दिल्ली में ही बैठकर राजनीति करते तो आजीविका का प्रश्न था, इसलिए जब मंत्री पद छोड़ा तो सीधे अपने वकालत के पेशे में जुट गये. जब लोग उनसे दिल्ली, लखनऊ में बैठकर राजनीति करने की सलाह देते तो उनका उत्तर होता, समाजसेवा केवल पद पर बैठकर ही नहीं की जा सकती, हां नीति निर्माण में सक्रिय भागीदारी अवश्य रहती है, जब कि एक वकील के पेशे के साथ भी समाजसेवा के सारे द्वार खुले हैं. उनका मानना था कि लखनऊ या दिल्ली में बैठकर राजनीति करना सरमायेदारों का शौक हो सकता है, जिस व्यक्ति ने शाम की रोटी की व्यवस्था करनी हो वह लखनऊ या दिल्ली में बैठकर या तो भूखा मरेगा अथवा उसे भ्रष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता.
बचपन में अपनी मां पार्वती देवी व पिता आन सिंह मेम्बर साहब से जो संस्कार मिले और पिता के स्वतंत्रता सेनानी के व्यक्तित्व से समाजसेवा का भाव जो विरासत में मिला, उससे भला वे कैसे अछूते रहते. तब ओखलकाण्डा तक मोटरमार्ग नहीं था, स्कूल के लिए फर्नीचर मंगाया गया तो खुटानी से पैदल अपने साथियों के साथ मिलकर कन्धों पर फर्नीचर ले गये. नारायण स्वामी इन्टर कालेज तल्लारामगढ में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने बच्चों के समूह बनाकर समाजसेवा का कार्य प्रारम्भ कर दिया था. लखनऊ विश्वविद्यालय पहुंचते-पहुंचते छात्रसंघ के चुनावों में राजनीतिशास्त्र विभाग के अध्यक्ष चुने गये. सौभाग्य से उस समय विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य नरेन्द्र देव के सम्पर्क में आये और उनके व्यक्तित्व एवं विचारधारा से इतने प्रभावित हुए कि आचार्य नरेन्द्र देव को अपना संस्कार पिता मान लिया. आचार्य नरेन्द्र देव स्वयं एक प्रख्यात शिक्षा शास्त्री थे.
यहीं से उनकी शैक्षिक विचारधारा से प्रभावित होकर शिक्षा प्रसार के बीज प्रस्फुटित होने लगे और वर्ष 1964 में केवल एक किराये के कमरे, एक शिक्षक एवं एक छात्र से नैनीताल में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय की स्थापना की. विद्यालय के शुरुआती दौर में केवल वे ही छात्र विद्यालय में प्रवेश लेते, जिनको कहीं प्रवेश नहीं मिल पाता. विद्यालय के पास संसाधनों का नितान्त अभाव रहा, यहां तक कि कईबार तो उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बीना जी ने यहां तक कह दिया कि मेरे जेवर भले ही गिरवी रख लें, लेकिन विद्यालय बन्द नहीं होना चाहिये. शिक्षक के रूप में कला बिष्ट का मिलना मणिकांचन संयोग रहा, जिनके समर्पण से विद्यालय दिनोंदिन प्रगति करने लगा. प्रताप भैया का स्कूल खोलने का जुनून सर चढ़कर बोलने लगा. उनका मानना था कि शिक्षा प्रसार के बिना विकास की अवधारणा अधूरी है. 1969 में आचार्य नरेन्द्र देव शिक्षा निधि नाम से संस्था का गठन किया, जिसका उद्देश्य ही शिक्षण संस्थाओं का संचालन था. इसी संस्था के अन्तर्गत दर्जनों स्कूल खोले गये. जब कोई नवयुवक रोजगार की तलाश में उनके पास आता तो उनका सीधा सवाल होता, क्या आपके क्षेत्र में स्कूल हैं? यदि युवक का जवाब ना होता तो वे उससे उन्हीं के क्षेत्र में स्कूल खोलने की बात करते. स्कूल खोलने के लिए संस्था तो पंजीकृत थी ही, जरूरत थी तो केवल एक कमरे और कुछ बच्चों की. अगर यह व्यवस्था हो जाती तो चन्द दिनों में स्कूल खुल जाता, शिक्षा का प्रसार भी होता और बेरोजगार को रोजगार मिल जाता. अधिकांश विद्यालयों की शुरुआत कुछ इसी तरह से हुई. जब किसी बात का जुनून दिमाग में सवार हो तो सफलता कदम चूमती है, यही हुआ कि पायनियर संस्था भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल पब्लिक स्कूलों के विकल्प के रूप में अपनी पहचान बनाने लगी.
एक बार जब चौधरी चरण सिंह (प्रधानमंत्री बनने से पूर्व) विद्यालय पधारे थे, तो उन्होंने उनकी काबिलियत का अन्दाजा लगाते हुए कहा था कि जिस विद्यालय के पीछे प्रताप जैसा दीवाना हो उसकी प्रगति में कोई संदेह की गुंजाईश नहीं रह जाती. स्कूल के प्रति उनकी इस दीवानगी का नतीजा रहा कि आज विद्यालय का नाम नैनीताल नगर तक सीमित न होकर प्रदेश व देश में हैं. जहां के दो प्रधानाचार्य राष्ट्रपति पुरस्कार तथा एक शिक्षक राज्यपाल पुरस्कार से नवाजे जा चुके हैं. विद्यालय के पूर्व छात्र आज प्रशासनिक सेवाओं से लेकर देश व विदेश के शीर्ष संस्थानों में सेवा दे रहे हैं. बोर्ड परीक्षाओं में विद्यालय के छात्र प्रदेश योग्यता सूची में सम्मानपूर्ण स्थान पाते हैं तथा पाठ्येत्तर कार्यकलापों में विद्यालय का विशिष्ट स्थान रहता है.
शिक्षा में गुणात्मक सुधार के पीछे अध्यापन के प्रति समर्पण तो है ही, साथ ही अनुशासन की जो परम्पराऐं उनके द्वारा स्थापित की गयी, उनके विद्यालय आज भी उसी लीक पर चल रहे हैं. जातिविहीन समाज के पक्षधर प्रताप भैया ने विद्यालय में छात्रों व शिक्षकों के लिए जातिसूचक शब्दों के प्रयोग को सदैव वर्जित रखा. विद्यालय के छात्र केवल पहले नाम विकास, अनिल, सुरेश से ही जाने जाते हैं. विद्यालय की संस्थापक प्रधानाचार्य श्रीमती कला विष्ट का यह कथन बार बार याद आता है, वे कहा करती थी कि इस विद्यालय से पढ़ा हुआ छात्र बड़ा ओहदा पायेगा अथवा नहीं ये तो मैं नहीं कह सकती, लेकिन इतना विश्वास दिलाती हूं कि उसे आसानी से कोई कर्तव्य से डिगा नहीं सकेगा.
प्रताप भैया का मानना था कि शिक्षा को रोजगार से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिये. बेरोजगारी के लिए शिक्षा नहीं अपितु हमारा नियोजन जिम्मेदार है. शिक्षा का उद्देश्य तो चरित्रवान व्यक्तित्व वाले नागरिक तैयार करना है. विद्यालयों में सर्वधर्म समभाव के लिए प्रार्थनास्थल के सामने मानव ज्योति कक्ष बनाने की बात करते थे, जिसमें सभी धर्मों के प्रतीक मानव ज्योति नित्य प्रज्ज्वलित की जाय. दुर्भाग्य से उनका यह विचार अब तक धरातल पर नहीं उतर पाया. वे विद्यालयों में संस्कार केन्द्रों की स्थापना की बात भी करते थे. शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बजाय शिक्षा को समाज के हाथों सौंपकर समाजीकरण की बात करते थे. अपनी जातीय जिन्दगी में भी उन्होंने कान्वेन्ट स्कूलों के बजाय अपने दोनों बच्चों नीता व ज्योति को अपने ही हिन्दी माध्यम विद्यालय में दाखिला करवाकर कथनी व करनी के भेद का बखूबी मिटाया.
प्रताप भैया के लिए शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं था, वे छात्रों को अपने परिवेश व उसकी समस्याओं से भी अवगत कराना चाहते थे. इसके लिए प्रतिवर्ष शहर के कोलाहल से दूर किसी एकान्त स्थान पर डाक बंगलों में शिक्षक व छात्रों के 3-4 दिन के अध्ययन शिविर संचालित करते, जिसके पूरे कार्यक्रम का संचालन एवं प्रशिक्षण का कार्य वे स्वयं संभालते.
स्कूली शिक्षा ही नहीं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्होंने अभिनव प्रयोग किये. वर्ष 1975 में उन्होंने उच्च शिक्षा सम्पर्क केन्द्रों की स्थापना का प्रारूप तत्कालीन कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति एवं प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. डीडी पन्त के सम्मुख रखा. जिसमें साधनहीन ग्रामीण नवयुवक अपने परिवेश में रहकर खेत-खलिहानों में परिवार के सदस्यों को हाथ बंटाते हुए मात्र 600 रूपये सालाना में उच्च शिक्षा ग्रहण कर सके. कुलपति डॉ. पन्त को उनका यह प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को ऐसे सम्पर्क केन्द्रों की स्थापना का प्रस्ताव अपनी सिफारिश के साथ भेजा, जिसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने न केवल मंजूरी दी बल्कि ऐसे केंद्रों के लिए 20 हजार रूपये प्रति केन्द्र पुस्तकीय सहायता की भी स्वीकृति प्रदान की. उस समय 20 हजार की पुस्तकीय सहायता पुस्तकालय संचालन के लिए पर्याप्त थी. सर्वप्रथम इस प्रकार के सम्पर्क केन्द्र की स्थापना खटीमा में की गयी, उसके बाद ओखलकाण्डा, स्याल्दे, काण्डा एवं मानिला में भी सम्पर्क केन्द्र खोले गये. सम्पर्क केन्द्र के प्राचार्य को सम्पर्काचार्य तथा शिक्षकों को सम्पर्क शिक्षक का नाम दिया गया और बिना किसी भारी भरकम ढांचागत खर्च के पंचायत भवनों व सामुदायिक केन्द्रों पर ये खोले गये. यह बात दीगर है कि कई वर्षों तक संचालित होने के बाद जब इन जगहों पर सरकारी महाविद्यालय खोले गये तो उनकी सुविधाओं के सामने ये टिक नहीं पाये.
प्रताप भैया के लिए शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं था, वे छात्रों को अपने परिवेश व उसकी समस्याओं से भी अवगत कराना चाहते थे. इसके लिए प्रतिवर्ष शहर के कोलाहल से दूर किसी एकान्त स्थान पर डाक बंगलों में शिक्षक व छात्रों के 3-4 दिन के अध्ययन शिविर संचालित करते, जिसके पूरे कार्यक्रम का संचालन एवं प्रशिक्षण का कार्य वे स्वयं संभालते. इन्हीं शिविरों में ग्राम्य सम्पर्क भी प्रशिक्षण का हिस्सा होता. जिसमें शिविरार्थी पास के गांवों में जाते, उन्हें एक प्रश्नावली दी जाती, जिसमें संबंधित गांव के इतिहास, भौगोलिक स्थिति, गांव के प्रमुख व्यक्तियों का विवरण, गांव के सबसे अमीर व सबसे गरीब व्यक्ति का विवरण तथा गांव की समस्याऐं एवं समाधान के सुझाव एक प्रश्नावली द्वारा शिविरार्थी एकत्र कर लाते.
ऐसा कोई अवसर नहीं रहा, जब राष्ट्रीय पर्वो पर वे विद्यालय में उपस्थित न रहे हों. गणतंत्र दिवस के मौके पर जब वे शीतकाल में हल्द्वानी प्रवास में रहते तो वहां अपनी ही संस्था आचार्य नरेन्द्र देव विद्यालय लोहरियासाल अथवा आचार्य नरेन्द्र देव विद्यालय खटीमा में राष्ट्रीय पर्व मनाते, अन्य सारे राष्ट्रीय पर्व में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहता. उम्र के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचते-पहुंचते भी स्वतंत्रता दिवस का उनका कार्यक्रम इतना व्यस्त रहता कि प्रायः पूरा दिन भूखा ही रहना पड़ता.
शिक्षकों के प्रति उनका अगाध सम्मान था, शिक्षक को वे एक सरकारी या गैर सरकारी मुलाजिम की नजर से नहीं बल्कि एक चिन्तक और राष्ट्रनिर्माता मानते थे. शिक्षण संस्थाओं के स्वयं प्रबन्धक रहते हुए भी वे प्रधानाचार्य के अकादेमिक अधिकार क्षेत्र में तनिक भी दखल नहीं देते. एक बार जब उनके निकटतम पारिवारिक संदस्य के आश्रित को अनुशासन हीनता पर प्रधानाचार्य द्वारा छात्रावास व विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया तो उन्होंने प्रधानाचार्य के निर्णय को सर्वोपरि मानते हुए तटस्थ बने रहे. विद्यालय की मर्यादाओं के विरूद्ध आचरण उन्हें कतई वरदाश्त नहीं था, ऐसा होने पर वह व्यक्ति चाहे उनका कितना ही आत्मीय व सुहृद हो, उनकी नजरों से उतर जाता.
ऐसा कोई अवसर नहीं रहा, जब राष्ट्रीय पर्वो पर वे विद्यालय में उपस्थित न रहे हों. गणतंत्र दिवस के मौके पर जब वे शीतकाल में हल्द्वानी प्रवास में रहते तो वहां अपनी ही संस्था आचार्य नरेन्द्र देव विद्यालय लोहरियासाल अथवा आचार्य नरेन्द्र देव विद्यालय खटीमा में राष्ट्रीय पर्व मनाते, अन्य सारे राष्ट्रीय पर्व में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहता. उम्र के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचते-पहुंचते भी स्वतंत्रता दिवस का उनका कार्यक्रम इतना व्यस्त रहता कि प्रायः पूरा दिन भूखा ही रहना पड़ता. सुबह 6 बजे से विद्यालय के बाल सैंनिकों के साथ प्रभात फेरी में नगर भ्रमण, उसके उपरान्त कलक्ट्रेट कार्यालय में ध्वजारोहण में शिरकत, 10 बजे से भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल में स्वतंत्रता दिवस समारोह सांस्कृतिक कार्यक्रम में आमंत्रित अतिथियों के साथ जो लगभग 1 बजे तक चलता, 2 बजे से तल्लीताल से मालरोड होते हुए मल्लीताल फ्लैट तक स्कूली छात्रों की नगर परेड का नेतृत्व और जब फ्लैट्स पर स्वतंत्रता समारोह सम्पन्न होता तभी उन्हें फुर्सत मिल पाती. स्वतंत्रता दिवस पर वे पूरे दिन सैनिक गणवेश में ही रहते. 75-80 वर्ष के प्रताप भैया के इस जुनून व ऊर्जा के सामने नवयुवक तक पस्त हो जाते.
शिक्षा के प्रति उनके इसी जुनून व योगदान को देखते हुए उन्हें “उत्तराखण्ड के मालवीय” की संज्ञा तक दे डाली. आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किये गये कार्यों, नवाचारों तथा उनके शैक्षिक दर्शन को संकलित व संग्रहित किया जाय और कम से कम उत्तराखण्ड के स्कूल व कालेजों में उनको जीवन एवं दर्शन को पाठ्यक्रम में अवश्य शामिल किया जाना चाहिये. मां सरस्वती के ऐेसे वरद् पुत्र को पुण्यतिथि पर शत्-शत् नमन्.
सोते-जागते, चलते-फिरते उनके दिमाग में स्कूल का ही जुनून सवार रहता. यहां तक कि जब बाथरूम से बाहर निकलते तो स्कूल के संबंध में कोई नई सोच साझा करते और उसी क्षण उस विचार को अमलीजामा पहनाने की पहल शुरू हो जाती. स्कूल उनके लिए किसी पवित्र धार्मिक स्थल से कम नहीं था और प्रायः कहा करते कि जब मैं इस संसार से विदा होऊं तो मेरे पार्थिव शरीर को भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में ले जाकर शवयात्रा इसी विद्यालय से शुरू की जाय.
शिक्षा के प्रति उनके इसी जुनून व योगदान को देखते हुए उन्हें “उत्तराखण्ड के मालवीय” की संज्ञा तक दे डाली. आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किये गये कार्यों, नवाचारों तथा उनके शैक्षिक दर्शन को संकलित व संग्रहित किया जाय और कम से कम उत्तराखण्ड के स्कूल व कालेजों में उनको जीवन एवं दर्शन को पाठ्यक्रम में अवश्य शामिल किया जाना चाहिये. मां सरस्वती के ऐेसे वरद् पुत्र को पुण्यतिथि पर शत्-शत् नमन्.
(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर तथा अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)
प्रताप भैया की याद में उनकी पुण्य तिथि पर लेख बहुत ही सराहनीय है, प्रताप भैया अनोखे व्यक्तित्ब के मालिक थे.. जो उनसे मिलता था प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था,
यादों वो हमेशा हमारे बीच रहेंगे, इसी के साथ मेरा उनको सादर नमन,