- डॉ. मोहन चंद तिवारी
इस साल 1 सितंबर से पितृपक्ष की शुरुआत हो चुकी है,जिसका समापन 17 सितंबर, 2020 को होगा. भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों का पितृपक्ष प्रतिवर्ष ‘महालय’ श्राद्ध पर्व के रूप में मनाया जाता है. ‘निर्णयसिन्धु’ ग्रन्थ के अनुसार आषाढी कृष्ण अमावस्या से पांच पक्षों के बाद आने वाले पितृपक्ष में जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तब पितर जन क्लिष्ट होते हुए अपने वंशजों से प्रतिदिन अन्न जल पाने की इच्छा रखते हैं-
“आषाढीमवधिं कृत्वा पंचमं पक्षमाश्रिताः.
कांक्षन्ति पितरःक्लिष्टा अन्नमप्यन्वहं जलम् ..”
आश्विन मास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्डदान तथा तिलांजलि देकर संतुष्ट करेंगे. इसी इच्छा को लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोक में आते हैं. पितृपक्ष में यदि पितरों को पिण्डदान या तिलांजलि नहीं मिलती है तो वे पितर निराश होकर अपने पुत्र-पौत्रादि को कोसते हैं और उन्हें शाप भी दे देते हैं.
आश्विन मास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्डदान तथा तिलांजलि देकर संतुष्ट करेंगे. इसी इच्छा को लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोक में आते हैं. पितृपक्ष में यदि पितरों को पिण्डदान या तिलांजलि नहीं मिलती है तो वे पितर निराश होकर अपने पुत्र-पौत्रादि को कोसते हैं और उन्हें शाप भी दे देते हैं.
पूर्वज-पूजा के रूप में श्राद्ध की अवधारणा वैदिक चिन्तन का परिणाम है. ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह शरीर दाह के उपरान्त मृतात्मा को सत्कर्मों वाले पितरों और देवताओं के लोक की ओर ले जाए (ऋ.10.15.14) बृहदारण्यकोपनिषद् में मनुष्यों‚ पितरों और देवों के तीन पृथक् पृथक् लोक बताए गए हैं. उपनिषदों के काल से ही यह मान्यता प्रसिद्ध हो चुकी थी कि विद्या अर्थात् ज्ञानमार्ग से देवलोक की प्राप्ति होती है और कर्ममार्ग से पितरलोक मिलता है-
‘विद्यया देवलोकः’ ‘कर्मणा पितृलोकः’ -बृहदा‚1-5-16
छान्दोग्योपनिषद् में मृत्यु के उपरान्त जीवात्माओं द्वारा देवयान अर्थात् ‘उत्तरायण’ और पितृयान अर्थात् ‘दक्षिणायन’ इन दो मार्गों से परलोक जाने का वर्णन आया है. पितृयान के मार्ग से विभिन्न योनियों में भ्रमण करने वाली जीवात्माएं ही ‘पितर’ कहलाती हैं और इनका मार्ग अन्धकार युक्त होता है.
वैदिक काल से ही आश्विन मास का पितृपक्ष अपने पूर्वज पितरों को श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का एक वार्षिक अनुष्ठान रहा है.यही कारण है कि ‘महालय’ श्राद्ध का पक्ष कृष्ण पक्ष की अंधेरी रातों में आता है.
वैदिक काल से ही आश्विन मास का पितृपक्ष अपने पूर्वज पितरों को श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का एक वार्षिक अनुष्ठान रहा है.यही कारण है कि ‘महालय’ श्राद्ध का पक्ष कृष्ण पक्ष की अंधेरी रातों में आता है.
दरअसल, हिन्दू धर्म में पितरों का श्राद्ध करने की परम्परा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन वैदिक धर्म है. ऋग्वेद में श्राद्ध के देवता ‘श्रद्धा’ की स्तुति की गई है. ‘श्राद्ध के अवसर पर पिसे हुए चावलों से जब पिंडनिर्माण किया जाता है तो ऋग्वेद के निम्नलिखित मंत्र का बार बार उच्चारण किया जाता है-
“मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः.
माध्वीर्नं सन्त्वोषधी:..”-ऋग्वेद,1.90.6
ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुछ ऋचाएं हैं जिनमें ‘मधु’ शब्द का वारंवार प्रयोग हुआ है.सामान्य लोग यहां ‘मधु’ शब्द को शहद के लिए प्रयुक्त मानते हैं. किंतु इन ऋचाओं में उसे व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है.’मधु’ का अर्थ है यहां मिठास जिससे सुखानुभूति हो या जो आनंदप्रद हो.’मधु’ विषयक ये तीन ऋचाएं ऋग्वेद, प्रथम मंडल,सूक्त 90 में क्रम पूर्वक इस प्रकार एक साथ आई हैं-
“मधु वाता ऋतायते मधुं क्षरन्ति सिन्धवः.
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥6॥”
अर्थात् यज्ञकर्म में लगे हुए, यजमान, को वायुदेव मधु प्रदान करते हैं; तरंगमय जलप्रवाह वाली नदियों से मधु चूता है; संसार में उपलब्ध विविध ओषधियां हमारे लिए मधुमय हों.
“मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः.
मधु द्यौरस्तु नः पिता ॥7॥”
अर्थात् रात्रि हमारे लिए मधुप्रदाता होवे; और उसी प्रकार उषाकाल, अर्थात् सूर्योदय के पहले का दिवसारंभ का समय,भी मधुप्रद हो; पृथ्वी से धारण किया गया यह लोक मधुमय हो;जलवृष्टि द्वारा हमारा पालन करने वाला पिता द्युलोक (आकाश) माधुर्य लिए हो.
“मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः. माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥8॥”
अर्थात् वनों के स्वामी (अधिष्ठाता देवता) मधुर फल देने वाले हों; आकाश में विचरण करने वाले सूर्य मधुरता प्रदान करें; हमारी गौवें मधुमय दूध देने वाली हों.
दैवी और प्राकृतिक शक्तियों को ‘मधु’ शब्द से संबोधित ऐसे वैदिक मंत्र हमारे लिए शुभकामनाएं देने वाले मंत्र हैं,जिनमें नदियों के अमृत तुल्य जलों, वनों, वनस्पतियों, हमें यज्ञानुष्ठान हेतु दुग्ध,दधि,घृत प्रदान करने वाली गौओं तथा सूर्य,और नियम पूर्वक संचालित होने वाली ऋतुओं से प्रार्थना की गई है कि वे सदा अपना अनुग्रह बनाए रखें जिससे कि हमारा जीवन सुखमय और मधुमय हो सके. इस प्रकार श्राद्ध के अवसर पर बोले जाने वाली इन ऋचाओं में सुखद एवं सफल जीवन की कामना का भाव निहित है. इसके अतिरिक्त मानव कल्याण हेतु अग्रसर प्रकृति के विभिन्न घटकों के प्रति कृतज्ञता भाव भी इन ऋचाओं में दिखाई देता है.
आध्यात्मिक दृष्टि से इन वैदिक श्रुति वचनों का आशय है कि अपने मधुमय सुख के स्रोत को भीतर से फूटने दो. हम सब लोग गांवों में रहने वाले लोग हैं. वहाँ कुओं, नौलों आदि से जल भरने का अनुभव हम सबको है. परन्तु कुएँ की एक विशेषता है कि जितना पानी उसमें से निकालो उतना ही पानी भीतर से और आ जाता है.
आध्यात्मिक दृष्टि से इन वैदिक श्रुति वचनों का आशय है कि अपने मधुमय सुख के स्रोत को भीतर से फूटने दो. हम सब लोग गांवों में रहने वाले लोग हैं. वहाँ कुओं, नौलों आदि से जल भरने का अनुभव हम सबको है. परन्तु कुएँ की एक विशेषता है कि जितना पानी उसमें से निकालो उतना ही पानी भीतर से और आ जाता है. तो यह हृदय भी सुख का मधुमय कूप है.आप इससे मधु निकालकर जितना बाहर के प्राणियों की प्यास बुझाओगे, उतना ही सुख का झरना आपके भीतर फूटने लगेगा,उतना ही सुख-स्वरूप परमेश्वर का मधुमय अखण्ड प्रवाह आपके भीतर प्रवाहित होने लगेगा.आपको समूचे ब्रह्मांड के सदस्य होने की अनुभूति होने लगेगी. श्राद्ध के अवसर पर पिंडदान की परम्परा भी इसी मधुमय आनन्द की सहज अनुभूति कराती है. इसलिए पितर जनों को पिंडदान और तर्पण आदि क्रियाओं को करते हुए इस “मधुवाता ऋतायते” मंत्र की बार बार पुनरावृत्ति की जाती है.
तैत्तिरीय संहिता में देवऋण, ऋषिऋण के साथ साथ पितृऋण चुकाने का भी उल्लेख आया है. छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार देवताओं के समान ही पितृगण भी इस ब्रह्माण्ड व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण हिस्सा माने गए हैं इसलिए उन्हें ‘स्वधा’ अर्थात् जल तर्पण देने का विशेष विधान किया गया है- ‘स्वधां पितृभ्यः.’ (छान्दो., 2.22.2)
याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार वसु,रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं. श्राद्ध करने वाले हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, पितामह (दादा) और प्रपितामह (परदादा) क्रमशः वसु, रुद्र और आदित्य के समान पितर भाव से पूजे जाते हैं. श्राद्ध के अवसर पर इन्हें अन्य सभी पूर्वजों का प्रतिनिधि मान कर पिंडदान दिया जाता है. ऐसा माना जाता है कि श्राद्ध कराने वालों के श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे पितर अपने वंशधरों को सपरिवार सुख-समृद्धि का आर्शीवाद देते हैं.
वैदिक कर्म सिद्धांत के अनुसार कर्मों के आधार पर ही किसी को योनि तथा लोक प्राप्त होता है. पितृलोक स्वर्ग और पृथ्वी लोक के बीच का लोक है जहां पर पिछली तीन पीढ़ियों- पिता, पितामह, प्रपितामह की हमारे पूर्वजों की आत्माएं बिना शरीर के तब तक निवास करती हैं जब तक उनके कर्म दूसरा शरीर धारण करने की अनुमति नहीं देते.यही आत्माएं अपनी मुक्ति के लिए तथा अपने अधूरे कार्यों की पूर्ति के लिए भटकती रहती हैं और अपनी संतानों से अपेक्षा रखती हैं उनकी आत्मा को शांति मिले.
वायु रूप में विद्यमान यह प्रेतरूपी जीवात्मा मनुष्य का मन:शरीर या सूक्ष्म शरीर है, जो अपने मोह या द्वेष की भावना के कारण इस पृथ्वी पर भटकती रहती है.उस प्रेतरूपी जीवात्मा के कल्याण के लिए उसके वंशजों और परिवार जनों के द्वारा पिंडदान, तर्पण, ब्राह्मण भोजन आदि जो कृत्य किए जाते हैं उन्हें श्राद्ध कर्म कहा जाता है इन श्राद्धकृत्यों से मृत्यु के उपरांत सद्य मृत प्रेत आत्माओं और पितृलोक में निवास करने वाले पूर्वज पितरों को तृप्ति,संतुष्टि मिलती है और उन्हें अपने दुष्ट कर्मों से लड़ने में भी बल और ऊर्जा मिलती है.
व्यवहारिक जीवन में अनेक ऐसे उदाहरण भी देखने में आते हैं जब मृतात्माओं की नृशंस हत्या कर दी गई हो,या किसी कारणवश उनका विधिवत अंतिम संस्कार नहीं किया गया हो तो कालान्तर में वे उत्पीड़ित आत्माएं अपने पुत्र, पौत्र आदि वंशजों के घर में भूतात्मा बन कर अपनी बन्धन मुक्ति की फरियाद करती हैं. ये उत्पीड़ित आत्माएं अपने ही किसी परिवार के सदस्य के शरीर में प्रवेश करके अपनी भटकी हुई अवस्था का समय समय पर अहसास भी कराती रहती हैं और जब तक उनका अंतिम संस्कार नहीं कर दिया जाता है वे शांत होने का नाम नहीं लेती. उत्तराखंड की देवभूमि में अनेक ऐसी उत्पीड़ित और अतृप्त आत्माएं अपने परिवार जनों के इर्दगिर्द भटकती हुई देखी जा सकती हैं, जिनकी शांति के लिए पीड़ित परिवार जागरी आदि लगाते हैं और अपनी मुक्ति ले लिए ये भटकी हुई आत्माएं परिवार जनों के शरीर में प्रवेश करके अपनी व्यथाओं को बताती हैं. उनके परिवारजन उन्हें या तो थानवासी बना कर पूजने लगते हैं अथवा उन्हें मुक्ति दिलाने हेतु हरिद्वार में गंगा स्नान करवाया जाता है.
दरअसल,श्राद्ध की परम्परा कर्मसिद्धांत पर आधारित एक धार्मिक मान्यता है,जिसके पीछे यह धारणा रहती है कि पुण्य का फल स्वर्ग और पाप का फल नर्क होता है. पुण्यात्मा देवयोनि या मनुष्य योनि को प्राप्त करती है और पापात्माओं को नर्क में यातनाएं भोगनी पड़ती हैं. लेकिन इन दो योनियों के बीच एक तीसरी योनि भी होती है,जिसे प्रेतयोनि कहते हैं. वायु रूप में विद्यमान यह प्रेतरूपी जीवात्मा मनुष्य का मन:शरीर या सूक्ष्म शरीर है,जो अपने मोह या द्वेष की भावना के कारण इस पृथ्वी पर भटकती रहती है. उस प्रेतरूपी जीवात्मा के कल्याण के लिए उसके वंशजों और परिवार जनों के द्वारा पिंडदान, तर्पण, ब्राह्मण भोजन आदि जो कृत्य किए जाते हैं उन्हें श्राद्ध कर्म कहा जाता है इन श्राद्धकृत्यों से मृत्यु के उपरांत सद्य मृत प्रेत आत्माओं और पितृलोक में निवास करने वाले पूर्वज पितरों को तृप्ति,संतुष्टि मिलती है और उन्हें अपने दुष्ट कर्मों से लड़ने में भी बल और ऊर्जा मिलती है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)