प्रकाश चन्द्र पुनेठा, सिलपाटा, पिथौरागढ़
पिथौरागढ़ से पूर्व में लगभग 35 किलोमीटर दूर नेपाल सीमा व काली नदी के निकट क्वीतड़ गाँव के तोक चैड़ा में 1 जनवरी, 1944 के दिन एक किसान करम सिंह सौन व उनकी पत्नी ग्वाली देवी के परिवार में एक शिशु का जन्म हुआ। उसका नामकरण बड़ी धूमधाम से मनाया गया और नाम रखा गया त्रिलोक सिंह सौन। करम सिंह 120 नाली भूमी के स्वामी होने के साथ एक संपन्न तथा समृद्ध किसान थे। करम सिंह अपने परिश्रम के बलबूते, अपने खेतों में पसीना बहाकर, खेतों में अनाज उगाकर तथा गाय-भैंस पालकर अपने परिवार का भरण-पोषण बहुत अच्छी तरह करते थे। उनके घर में अनाज व दूध-दही-घी की कमी नहीं थी। अगर कमी थी तो आधुनिक सुख-सुविधाओं की। उस समय हमारा देश ब्रिटिश शासन के पराधीन था। हमारे पर्वतीय क्षेत्र में शिक्षा, स्वास्थ तथा आवागमन की सुविधाओं का बहुत अधिक अभाव था। पिथौरागढ़ जिला अल्मोड़ा का एक परगना था, पिथौरागढ़ को उस समय सोर के नाम से अधिक जाना जाता था। क्वीतड़ गाँव के निकट कमलेश्वर में राई सिंह बिष्ट जूनियर हाई स्कूल था, जिसमें मात्र कक्षा 8 तक की शिक्षा उपलब्ध थी।
शिशु त्रिलोक सिंह सौन बालक अवस्था में पहुंचा तो परिवार ने शिक्षा के लिए गाँव के राई सिंह बिष्ट जूनियर हाई स्कूल में दाखिल कर दिया। त्रिलोक सिंह शिक्षा अध्ययन के साथ-साथ अपने घर के कार्यों में भी हाथ बटाता था, चाहे खेतों का काम हो, जंगल से ईधन के लिए लकड़ी लानी हो या पशुओं की देख-भाल का काम। पहाड़ की स्वच्छ वायु के मध्य रहते हुए, निर्मल-शीतल जल को ग्रहण करते हुए, अपने परिश्रम से खेतों में उगाए स्वास्थवर्धक पुष्ट अनाज को भोजन रुप में उदरस्थ करते हुए तथा दही-दूध-घी का उपभोग करते हुए बालक त्रिलोक सिंह युवावस्था में हष्ट-पुष्ट देह का स्वामी बन चुका था। कक्षा आठ तक शिक्षा प्राप्त कर त्रिलोक सिंह आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए। क्योंकि पढ़ाई के लिए आस-पास कोई स्कूल नहीं था। कक्षा 10 तक की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लगभग 35 किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ में मात्र एक राजकीय हाई स्कूल था। पिथौरागढ़ आने-जाने के लिए पैदल जाना पढ़ता था, एक बालक के लिए इतनी दूर स्कूल जाना फिर वापस घर आना, असंभव था। क्योकि उस समय यातायात के लिए न सड़क थी न वाहन सुविधा। अतः त्रिलोक सिंह आगे की शिक्षा नहीं ले पाए। वह अपने माता-पिता व भाई-बहनों के साथ कृषी कार्य के साथ घर के अन्य कामों में हाथ बटाँने लगे।
सन् 11962 war
त्रिलोक सिंह परिवार के साथ घर के रोजाना के कार्यो में हाथ बटाते हुए, जोशिले व परिश्रमी युवक त्रिलोक सिंह युवा अवस्था में आते ही स्वस्थ बलिष्ठ शरीर के स्वामी बन गए और 11 जनवरी, 1962 के दिन सेना में भर्ती हो गए। जैसा कि हमारे पहाड़ में प्रत्येक आम नवयुवक का स्वप्न होता है कि वह सर्वप्रथम अपने देश की सेना का वर्दीधारी सैनिक बने। नवयुवक त्रिलोक सिंह सौन का सेना में सेवा करने का वह स्वप्न पूर्ण हो गया था। वह उत्साह के साथ अपनी कौमी रेजिमेन्ट, कुमाऊं रेजिमेन्ट में भर्ती हो गए थे। भर्ती होते ही उनको व अन्य साथ के रंगरुटों को कालाढूंगी के निकट कमोला फार्म में खेती के कार्यों के लिए, रानीखेत से पैदल ही भेजा गया।
कमोला फार्म सेना की कृषी भूमी थी, जिसमें सैन्यकर्मियों द्वारा अनाज उत्पादन का कार्य किया जाता था। अतः कुछ समय के लिए नए रंगरुटों को वहां कृषी कार्य के लिए भेजा जाता था। कुछ माह वहां रहने के पश्चात् त्रिलोक सिंह को अल्मोड़ा में सैन्य प्रशिक्षण के लिए भेज दिया गया। कठिन प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात त्रिलोक सिंह सौन की अक्टूबर सन् 1962 में कसम परेड हुई। किसी भी नए सैनिक को पूर्ण रुप से सैनिक का दर्जा तभी प्राप्त होता है, जब वह अपने धर्म अनुसार अंतिम क्षणों तक, देश की रक्षा करने के लिए प्रतिज्ञा करता है, चाहे उसको स्वयं के प्राणों का बलिदान करना पड़े। सैनिकों की इस प्रक्रिया को कसम परेड कहा जाता है।
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कसम परेड होते ही त्रिलोक सिंह को 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट में स्थानांतरण कर दिया। 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट उस समय नार्थ ईष्ट (उस नार्थ ईष्ट को नेफा कहा जाता था) अरुणाचंल प्रदेश में चीन के साथ लगी सीमा में स्थित थी। त्रिलोक सिंह अपने साथ के जवानों के साथ रानीखेत से काठगोदाम तक वाहन द्वारा, काठगोदाम से गुवाहाटी (गोहाटी) तक यात्रा रेल गाड़ी में तथा गुवाहाटी के आमीन गाँव से सदिया घाट की यात्रा स्टीमर से, सदिया घाट से तेजू तक की यात्रा वाहन से पूर्ण की। एक सैनिक को अपने सेवा काल में, देश सेवा हेतु देश के एक कोने से दूसरे कोने तक अनंत यात्राएं करनी पड़ती है। यह यात्रा थल, नभ तथा जल के मार्ग से जाते हुए पूर्ण होती है। जोश से भरे हुए सैनिक उमंग के साथ अपनी यात्रा को कम से कम समय में, अपने लक्ष्य में पहुंच कर पूर्ण करते हैं।
त्रिलोक सिंह को रेजिमेन्ट में पहुंचे हुए अल्प समय हुआ था, कि शातिर पड़ोसी देश चीन ने अप्रत्यक्ष हमारे देश के ऊपर 20 अक्टूबर सन् 1962 को अचानक आक्रमण कर दिया। चीन की इस विश्वासघातक कार्यवाही से हमारा देश एकाएक हक्का-बक्का रह गया। क्योकि हमारे देश ने चीन की इस प्रकार की विश्वासघाती कार्यवाही की आपेक्षा नहीं की थी। उस समय हमारा देश किसी भी प्रकार के आक्रमण का सामना करने में तैयार नहीं था। हमारे देश की सेना के पास उन्नत प्रकार के हथियार तक नहीं थे, पूर्ण मात्रा में गोला बारुद भी उपलब्ध नहीं था।
विस्तारवादी शातिर पड़ोसी देश चीन के इरादों की हमारे देश को भनक तक नहीं लगी। कुमाऊं रेजिमेन्ट सेंटर रानीखेत से 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट में गए त्रिलोक सिंह व उसके साथियों को कंम्पनियों में विभाजित भी नहीं किया था, कि उनको युद्ध में कूदना पड़ा। किसी भी जवान के रजिमेन्ट में पहुंचते ही उसको किसी कम्पनी में भेजा जाता है। लेकिन त्रिलोक सिंह तथा साथ के अन्य जवानों को ट्रेनिंग सैन्टर रानीखेत से रेजिमेन्ट में पहुंचते ही, बिना किसी कम्पनी में भेजे, सीधे शत्रु के आक्रमण का मुँह तोड़ जवाब देने के लिए सीमा में भेजा गया था।
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सैनिक त्रिलोक सिंह अपनी पल्टन के साथ चीन से युद्ध के लिए वायुयान के द्वारा तेजू से ओलांग (चीन की सीमा के निकट) भेजे गए। ओलांग कस्बा लोहित नदी के तट में बसा हुआ कस्बा है। नौजवान सैनिक त्रिलोक सिंह बिना घबराहट, साहस व शौर्य के साथ सीमा में चीन के विरुद्ध, युद्ध में सम्मिलित हुए। उस समय उनको ‘लामाबस्ती’ नामक क्षेत्र में गोला-बारूद भंडार की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया। 14 नवंबर के दिन चीनी सेना लामाबस्ती में पहुंच गयी। चीन की सेना के अचानक आक्रमण करने के कारण हमारी सेना ने अपने गोला-बारूद, डीजल-पैट्रोल व अन्य उपयोगी वस्तुओं के भंडार को स्वयं अग्नि के हवाले कर दिया! अगर शत्रु के हाथ गोला-बारूद का भंडार हाथ लग जाता तो वह हमारे देश के विरुद्ध उपयोग करता। जिससे हमारे देश में जान-माल का बहुत बड़ा नुकसान हो जाता। अतः उस नुकसान से बचने के लिए अपने इनको अपने हाथों से नष्ट करना हितकर था।
उस समय भारतीय सेना के जवानों के पास मात्र राईफल के अतिरिक्त पांच-पांच की संख्या में राउंड थे, जो चीन की सेना का सामना करने के लिए पर्याप्त नहीं थे। चीन की सेना आधुनिक हथियारों से सुसज्जित थी। और संख्या बल में, हमारी सैन्य टुकड़ियों की तुलना में बहुत अधिक थी। चीन की सेना ने वहां स्थित हमारी सेना की टुकड़ियों को घेर लिया था। चीन की सेना का 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट के जवानों ने कम संख्या बल में होते हुए भी डटकर सामना किया। चीनी सेना ने पल्टन के अनेकों जवानों व दो अधिकारियों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट के शेष सैनिक चीनी सेना की गिरफ्त से बचते हुए, पर्वतीय क्षेत्र व बीहड़ जंगल में, रात के समय, तितर-बितर हो गए थे।
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बीहड़ जंगल में जीवित बचे हुए जवान कई दिन तक भूखे-प्यासे रहे, किसी प्रकार जंगल में कहीं वृक्षों की हरी पत्तियाँ, कही घास तो कही जंगल में लगे कंदमूलों को खाँकर अपनी क्षुधा बुझाते रहे। क्रूर आक्रमणकारी चीनी सेना की गिरफ्त से बचे, लेकिन अनेक जवान अफरा-तफरी के वातावरण में, रात के समय, पहाड़ से गिरकर गहरी लोहित नदी में समा गए। जो जवान लोहित नदी के आगोश में चले गए थे, उन जवानों को लापता घोषित किया गया। उन लापता जवानों के परिवारों ने अपने पुत्र, पति या पिता को युद्ध समाप्त होने के पश्चात न जीवित देखा, न शत्रु की सेना द्वारा कैद सैनिकों की सूची में देखा और न शहीद होने का समाचार सुना। उन लापता जवानों के परिवारों ने बहुत अधिक मानसिक कष्ट, दुःख व वेदना को सहा। बहुत समय व्यतीत होने के पश्चात उन लापता सैनिकों के परिवारों ने सरकार के समक्ष अनेक बार फरियाद करने के पश्चात्, युद्ध में लापता सैनिकों को शहीद घोषित किया।
20 अक्टूबर सन् 1962 के दिन जब चीन ने हमारे देश के उपर अचानक आक्रमण किया तो यह आक्रमण चीन का बहुत सुनियोजित आक्रमण था। इस प्रकार आक्रमण करने के लिए की चीन ने बहुत तैयारी कर रखी थी। चीन ने अपनी सेना के गुप्तचरों को अरुणाचंल प्रदेश के अनेक स्थानों में, सूअर व मुर्गी पालक के तौर पर, कही सफाई कर्मचारी के वेश में, तो कहीं साधारण ग्रामीण परिवेश वाला आदमी बनकर हमारे देश की सेना की गतिविधियों की जानकारी एकत्रित की थी। जब चीनी सेना को उपयुक्त अवसर मिला, उसने अचानक हमारे देश के उपर आक्रमण कर दिया। चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के चलते हमारे देश के उपर योजनबद्ध आक्रमण किया, हमारे बहुत बड़े भूभाग पर अधिकार जमा लिया था। लगभग एक माह तक यह युद्ध चलता रहा फिर 14 नवंबर सन् 1962 के दिन चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी।
सिपाही त्रिलोक सिंह सौन सन् 1962 के चीन से हुए युद्ध में सैभाग्य से जीवित सैनिकों में से एक थे। भगवान ने उनको शायद इसलिए जीवित बचाए रखा कि वह सेना में रहते हुए और अधिक देश की सेवा कर सकें। युद्ध विराम होने के पश्चात् 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट के शेष जीवित जवानों को जो जंगलों में भटक रहे थे। उनके खाने के लिए हवाई जहाज से भोजन के पैकेट गिराए गए फिर उन सब जवानों को एक स्थान में एकत्रित कर ओलांग कैम्प में भेजा गया। ओलांग से तेजू तक पैदल भेजा गया। रेजिमेन्ट की सभी कम्पनियों को आसाम के छबुआ में एकत्रित कर पुनः रेजिमेन्ट को स्थापित किया गया। तब 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट छबआ से लेखापानी में आयी, लेखापानी में त्रिलोक सिंह व साथ के अन्य जवानों को कम्पनियों में बाँटा गया गया। त्रिलोक सिंह सौन एक आज्ञाकारी और अनुशासित सैनिक होने के साथ ही ईमानदारी के साथ अपने कार्यों को करते थे। अल्प समय में त्रिलोक सिंह अपनी कम्पनी में एक आदर्श सैनिक के रुप में स्थापित हो गए।
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त्रिलोक सिंह ने 26 जनवरी सन् 1965 की गणतंत्र दिवस की परेड में 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट का शानदार प्रतिनिधित्व किया। फरवरी सन् 1965 में त्रिलोक सिंह जीवन में कुछ श्रेष्ठ कर दिखाने के उद्देश्य से, स्वयं स्वेच्छा से 6 कुमाऊं रेजिमेन्ट से पैराट्रूपर बनने के लिए, पैराशूट रेजिमेन्ट सेंटर आगरा चले गए। पैराशूट रेजिमेन्ट में सेना की अन्य रेजिमेन्टों की तुलना में शारिरीक श्रम और जान का जोखिम अधिक होता है। पैराशूट रेजिमेन्ट के लिए साहसी, सक्षम और बलिष्ठ शारिरीक गठन का सैनिक होना अति आवश्यक है। दृढ़ निश्चय वाले, दृढ़ संकल्प के धनी त्रिलोक सिंह ने पैरा रेजिमेन्ट का पैराट्रूपर बनना अपना सौभाग्य समझा। त्रिलोक सिंह शीघ्र ही पैरा रेजिमेन्ट के कुशल पैराट्रूपर बन गए।
‘कच्छ का रण’ का युद्ध
हमारे देश के राज्य गुजरात के ‘कच्छ का रण’, भारत और पाकिस्तान के मध्य बटवारे के समय से ही विवाद में था। पाकिस्तान हमारे गुजरात राज्य के कच्छ का रण में लगभग 3500 वर्ग किलोमीटर तक अपना दावा करता था। मार्च-अप्रैल सन् 1965 में पड़ोसी शत्रु देश पाकिस्तान अपनी कुटिल चाल से सीमा पार कर अन्दर घुस आया था। धोखे से उसने हमारे देश की सेना की एक पैट्रोलिंग पार्टी को कैद कर लिया था। पूर्व में दोनों देशों के सुरक्षा बलों के मध्य झड़प हुई थी। जब सुरक्षा बलों की झड़प लंबी खिच गयी, तत्पश्चात् दोनों देशों की सेनायें भी इस युद्ध में सम्मिलित हो गयी थी। त्रिलोक सिंह बटालियन के साथ उस समय युद्धाभ्यास के लिए गए हुए थे। आदेश मिलते ही उनकी बटालियन युद्धभ्यास क्षेत्र से आगरा आ गयी थी। आगरा में युद्ध की तैयारी कर शीघ्र अहमदाबाद, अहमदाबाद से युद्ध क्षेत्र में आ गए थे। त्रिलोक सिंह ने युद्ध क्षेत्र में अपनी बटालियन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शत्रु का मुकाबला किया। दुनिया के अन्य देशों ने इस युद्ध का कोई समाधान न देख, अंतरराट्रीय मंच से दोनों युद्धरत देशों को युद्धविराम हेतु अपील की। पाकिस्तान की सेना पिछे हट गई, और हमारी सेना की कैद की गई पैट्रोलिंग पार्टी को, जुलाई सन् 1965 को पाकिस्तान ने अपनी कैद से मुक्त कर दिया। यूरोपीय देश ब्रिटेन की मध्यस्थता से युद्ध कुछ समय के लिए धीमा रहा। तीसरे देश की मध्यस्था से कच्छ का रण की 900 वर्ग किलोमीटर भूमि पाकिस्तान को दे दी।
सन् 1965 का युद्ध
कच्छ का रण की 900 किलोमीटर भूमि मिलने की उपलब्धी में, पाकिस्तान अति उत्साहित हो गया था। इस प्रकार अति उत्साहित होने के कारण पाकिस्तान ने सितंबर, सन् 1965 को, हमारे देश के जम्मू-कश्मीर के अखनूर तथा छम-जौड़िया में अचानक आक्रमण कर दिया। इसके पश्चात् हमारे देश की पाकिस्तान के साथ लगती हुई पूरी पश्चिमी सीमा में गुजरात, राजस्थान व पंजाब सभी क्षेत्रों में युद्ध आरंभ हो गया। त्रिलोक सिंह सौन वाली पैरा बटालियन विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई थी। अतः शीघ्र ही अमृतसर के अटारी में बटालियन एकत्र हुई। पाकिस्तानी आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब देते हुए पैरा बटालियन आगे बढ़ते रही और भारतीय सेना ने पाकिस्तान के लाहौर के निकट ईच्छोगिल नहर के समीप डोगराई तक क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया था। त्रिलोक सिंह ने इस युद्ध में अपनी सक्रीय भूमिका निभाई थी। तत्कालीन हमारे देश के प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री स्वयं युद्ध के मोर्चों में जाकर जवानों से मिले थे और जवानों का उत्साह बढ़ाया था। लगभग पांच माह के पश्चात् भारत तथा पाकिस्तान के मध्य यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध समाप्त हुआ। हमारे देश की सेना ने पाकिस्तान की सेना को परास्तकर उसके इरादों को नेस्तानाबूद कर दिया था।
सन् 1971 का युद्ध
पाकिस्तान अपने निर्माण के दिन से ही, हमारे देश के विरुद्ध राग-द्वेष की भावना से ग्रसित कुछ न कुछ आक्रमणकारी, आतंकवादी व उत्तेजित करने वाले कृत्य करते रहा है। अक्टूबर, सन् 1947 में हमारे देश के शीर्ष राज्य कश्मीर में कबाइली आक्रमण, सन् 1965 में कच्छ का रण में अचानक आक्रमण करना फिर कश्मीर में कब्जा करने के उद्देश्य से अखनूर में अचानक आक्रमण कर युद्ध आरंभ करना और फिर सन् 1971 में युद्ध आरंभ करना। इन सब युद्धों में पाकिस्तान ने हार का सामना किया है।
सन् 1971 में जब पाकिस्तान के साथ युद्ध आरंभ हुआ, उस समय त्रिलोक सिंह लांस हवलदार थे, वह एक सेक्शन कमांडर के तौर पर अपना कर्तव्य निभा रहे थे। उस समय उनकी बटालियन अंबाला में स्थित थी। पाकिस्तान के साथ युद्ध आरंभ होते ही बटालियन गंगानगर के निकट सीमा में आ गयी थी। सीमा की रक्षा करते हुए पैरा बटालियन के जवानों ने अदम्य साहस का परिचय दिया। त्रिलोक सिंह ने वीरता के साथ इस युद्ध में भी अपने दायित्व का निर्वाह किया। इस युद्ध में हमारे देश की सेना का पाकिस्तान के साथ मुख्य मुकाबला पूर्वी मोर्चे में था। जहां पाकिस्तान की 90,000 सेना द्वारा हमारे देश की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया और एक नए देश बंगलादेश का जन्म हुआ। लगभग 13 दिन में ही पाकिस्तान की सेना ने भारतीय सेना के समक्ष घुटने टेक दिए थे।
युद्ध समाप्त होने के पश्चात् त्रिलोक सिंह की पैरा बटालियन पुनः गंगानगर में स्थापित होने के पश्चात् शीघ्र ही हिमाचल प्रदेश के सोलन में आ गयी। त्रिलोक सिंह अपनी बटालियन में सैनिक कर्म करते हुए उन्नति की ओर अग्रसर हो गए। त्रिलोक सिंह अपनी कर्तव्य निष्ठा के चलते समय-समय पर सेना के निर्धारित नियम शर्तो का पालन करते हुए उच्च पद प्राप्त करते रहे। जिस समय वह सूबेदार के पद पर थे तथा वह सूबेदार मेजर के पद लिए चयन सूची में थे। उस समय उनके कमान अधिकारी चाहते थे कि कुशल, योग्य व आज्ञाकारी सूबेदार त्रिलोक सिंह भारतीय सेना में कमीशन प्राप्त अधिकारी बनें। क्योकि त्रिलोक सिंह के अन्दर एक योग्य अधिकारी बनने की योग्यता थी। अतः कमान अधिकारी ने त्रिलोक सिंह को आर.सी.ओ. कमीशन के लिए भेज दिया और त्रिलोक सिंह प्रथम अवसर में ही सर्विस सलैक्शन बोर्ड भोपाल में, परीक्षा में उर्तीण हो गए थे और वह अब एक भारतीय सेना के कमीशन प्राप्त अधिकारी लेफ्टिनेंट बन गए थे।
शीध्र ही वह कैप्टन के पद में शुशोभित हो गए। लगभग सात वर्ष तक त्रिलोक सिंह सौन अधिकारी के पद पर गर्व के साथ सेना में कार्यरत रहे और घर पेंशन आने के पश्चात् पैराशूट रेजिमेन्ट के कर्नल ऑफ रेजिमेन्ट ने कैप्टन त्रिलोक सिंह सौन की कर्मठता, योग्यता और युद्ध कौशल का अवलोकन करते हुए, बड़े हर्ष के साथ मेजर का पद प्रदान किया। एक गांव-देहात का युवा त्रिलोक सिंह सौन, भारतीय सेना में रहते हुए देश के शत्रु देशों के विरुद्ध तीन युद्धों में योद्धा रहे। और एक सिपाही के पद से अपने कर्मठ परिश्रम, ईमानदारी और आज्ञाकारिता के बल से सैन्य अधिकारी मेजर के पद तक पहुंचे और पहाड़ के युवाओं के समक्ष एक प्रेरणात्मक आदर्श स्थापित किया।
सेना से रिटायर्ड होने के पश्चात् मेजर त्रिलोक सिंह सौन जन सेवा में लगे रहे। पूर्व सैनिकों के हितों के लिए वह पिथौरागढ़ में ब्रिगेडियर चक्रवर्ति की कमान में सन् 2005 से सन् 2012 तक ई.सी.एच.एस. में ऑफिसर-इन-चार्ज रहे। मेजर त्रिलोक सिंह सौन ने अनेक सैनिकों की विधवाओं की, जो पेंशन सबंधी समस्याओं से जूझ रही थी, उनकी न्याय संगत पेंशन लगवाई। अगर कोई पूर्व सैनिक उनके पास कुछ समस्या लेकर पहुंचता तो वह तुरंत उस पूर्व सैनिक की समस्या का समाधान करने के प्रयास में लग जाते, और समस्या का समाधान ऐन-केन-प्रकारेण पूर्ण करते। मेजर त्रिलोक सिंह सौन का ई. सी.एच. एस में कार्यकाल अति उत्तम रहा था।
संदर्भ
लेखक ने जब सुना कि मेजर त्रिलोक सिंह सौन के बारे में, कि मेजर साहब ने चार युद्ध शत्रु देशों के विरुद्ध लड़े है, सन् 1962 का चीन के रिुद्ध, सन् 1965 में ’कच्छ का रण’ में पाकिस्तान के विरुद्ध, सन् 1965 में भारत की पश्चिमी सीमा में पाकिस्तान के विरुद्ध और सन् 1971 में पाकिस्तान के विरुद्ध हमारे देश के पश्चिमी राज्य राजस्थान के गंगानगर की सीमा में। लेखक स्वयं उनसे मिलने उनके घर गया। मेजर त्रिलोक सिंह सौन के स्मरणों के आधार पर यह पूरा वृत्तांत लिखा गया है। मेजर त्रिलोक सिंह सौन इस समय लगभग 82 वर्ष की उम्र में स्वस्थ है, जोश और हिम्मत से भरपूर है। समाजिक सेवा भाव साहब के अन्दर कटू-कूट कर भरा हुआ है।
(लेखक सेना के सूबेदार पद से सेवानिवृत्त हैं. एक कुमाउनी काव्य संग्रह बाखली व हिंदी कहानी संग्रह गलोबंध, सैनिक जीवन पर आधारित ‘सिलपाटा से सियाचिन तक’ प्रकाशित. कई राष्ट्रीय पत्र—पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित.)