श्रीरामचन्द्र दास की जन्मजयंती पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
“धार्मिक मूल्यों के इस विप्लवकारी युग में जिस तरह से परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी महाराज ने अपने त्याग और तपस्या के आदर्श मूल्यों से समाज का सही दिशा में मार्गदर्शन किया
तथा धार्मिक सहिष्णुता एवं कौमी एकता का प्रोत्साहन करते हुए श्री रामानन्द सम्प्रदाय की धर्मध्वजा को ही नहीं फहराया बल्कि देश के सभी धार्मिक सम्प्रदायों के मध्य सौहार्द एवं सामाजिक समरसता की भावना को भी मजबूत किया. उसी का परिणाम है कि आज देश में संतों के प्रति श्रद्धा और विश्वास की भावना जीवित है.” -श्री बलराम दास हठयोगी, प्रवक्ता, ‘अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद्’उत्तराखंड
3 मार्च को परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी महाराज की 78वीं जन्म जयंती है. उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले में द्वाराहाट स्थित ‘भासी’ नामक गांव में माता मालती देवी और पिता
बचीराम सती जी के घर तारादत्त नामक एक तेजस्वी बालक का 3 मार्च, सन् 1944 को जन्म हुआ जिसने बड़ा होकर वैष्णवी साधना में दीक्षा ग्रहण करके परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी महाराज के नाम से देश की संत परम्परा को विशेष रूप से आलोकित किया. वर्ष 1964 में अक्षय तृतीया के दिन इस तारादत्त नामक युवक ने लक्ष्मण झूला, ऋषिकेश में रामझरोखा आश्रम के संस्थापक तथा सिद्ध तपस्वी महन्त ओ३म बाबा श्री अवधबिहारी दास जी से रामानन्द सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की थी.उत्तराखंड
श्री रामानन्दाचार्य जी के सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण करने के बाद यह नवदीक्षित संन्यासी संयमपूर्ण साधुचर्या से जीवन यापन करते हुए देश, धर्म और समाज के राष्ट्रीय दायित्वों के सम्पादन द्वारा मातृभूमि का ऋण चुकाना चाहता था. हिन्दू धर्म की मर्यादाओं और मान्यताओं की जिस तरह से राष्ट्रीय धरातल पर उस समय अवमानना
हो रही थी उसके प्रति भी यह संन्यासी अत्यन्त संवेदनशील था. उन दिनों हिन्दू धर्म के महान संत हरिहरानन्द सरस्वती ‘करपात्री’ जी हिन्दू धर्म एवं गोवंश की रक्षा के लिए आन्दोलन कर रहे थे. रामचन्द्रदास जी करपात्री जी की जीवनचर्या से बहुत प्रभावित थे और उनके धार्मिक आयोजनों में बढचढ़ कर भाग लेते थे. 1966 में राष्ट्रीय स्तर पर करपात्री जी ने गोरक्षा आन्दोलन चलाया तो रामचन्द्र दास जी भी करपात्री जी के साथ 3 बार जेल गए. परमहंस जी जब काशी में अध्ययन कर रहे थे तभी से वे पंचगंगा घाट में श्री रामानन्दाचार्य जी द्वारा स्थापित ‘श्रीमठ’ की धर्म प्रभावनाओं से भी बहुत प्रभावित थे.उत्तराखंड
उल्लेखनीय है कि जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी ने जाति,भाषा, प्रान्त और मजहबी सम्प्रदायों और मतों से ऊपर उठकर जहां एक ओर जातीयता एवं वर्णव्यवस्था की
संकीर्णताओं से जकड़े हिन्दू धर्म में क्रांतिकारी परिवर्तन एवं सुधार किए तो वहां दूसरी ओर उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों को अपनी शिष्य मण्डली में सम्मिलित करके सामाजिक ऊँच-नीच तथा भेदभाव की रूढ़िवादी परम्पराओं को भी समाप्त किया. रामानन्द सम्प्रदाय के शिष्यों में हिन्दुओं की विभिन्न जातियों के साथ अनेक मुसलमान भी थे. इस सम्प्रदाय के प्रमुख संतों में गोस्वामी तुलसीदास, कबीरदास, अग्रदास, नाभादास, रविदास, कृष्णदास जी पयोहारि, मीराबाई आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है.उत्तराखंड
मैं परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी द्वारा उत्तराखण्ड और हरिद्वार में किए गए धार्मिक अनुष्ठानों और राष्ट्रीय स्तर के अधिकांश संत सम्मेलनों का साक्षी रहा हूँ. वे पिछले साठ वर्षों से भारत के विभिन्न प्रान्तों में अपनी गुरु परम्परा का पालन करते हुए रामायण का प्रचार व प्रसार करने में लगे थे. उन्होंने उत्तराखण्ड, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि विभिन्न राज्यों में जहां एक ओर अखंड रामायण पाठ, शतचण्डी महायज्ञ, नवकुण्डीय महायज्ञ, महामृत्युञ्जय जपयज्ञ आदि अनुष्ठान
किया तो दूसरी ओर इन्होंने इन धार्मिक आयोजनों के माध्यम से धार्मिक सद्भावना, कौमी एकता, नशामुक्ति अभियान तथा गोरक्षा आन्दोलन आदि सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन करके धार्मिक सद्भावना, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक समरसता के वे महान कार्य भी किए जिनका शुभारम्भ आज से सात सौ वर्ष पूर्व जगद्गुरु श्री रामानन्दाचार्य जी ने किया था. परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी ने भी रामानन्द सम्प्रदाय के आदर्शों पर चलते हुए संन्यास की कठोर साधनाओं की सीढियां चढ़कर अपने व्यक्तिगत जीवन में न किसी धन-सम्पत्ति की लालसा रखी और न ही आधुनिक संत-महात्माओं की तरह विशाल आश्रमों को बनाने में रुचि दिखाई. लोक सेवक मंडल एवं दक्षिण एशिया भाईचारा संस्था, लाजपत भवन, नई दिल्ली के महामंत्री श्री सत्यपाल जी ने उचित ही कहा है कि ‘परमहंस जी को सभा-सम्मेलनों में जो धन प्राप्त होता वह परमार्थ हेतु किसी आश्रम बनाने पर खर्च करते, किन्तु उस आश्रम पर ममत्व नहीं जताया जब चाहा उसे वहां की जनता को सौंप कर नई जगह चले गए. इस प्रकार वे संत से परम संत बन गए.उत्तराखंड
वर्ष 2008 में परमहंस श्री रामचन्द्र दास जी ने उत्तराखण्ड के इतिहास में सदैव स्मरण रखे जाने वाले शतचण्डी महायज्ञ का आयोजन उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध शक्तिपीठ नैथना देवी मन्दिर के प्रांगण में ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य श्री माधवाश्रम जी महाराज की छत्रछाया में किया . उन्होंने अक्टूबर 2009 में गोपीनाथ जी के मन्दिर, ग्राम रोसावां तहसील फतेहपुर, राजस्थान में ‘महामृत्युञ्जय जपयज्ञ’ एवं विराट् सत्संग सम्मेलन का आयोजन किया. परमहंस जी ने पंजाब के
गांव-गांव में रामायण का प्रचार किया तथा ‘रामचरितमानस’ के ‘अखण्ड पाठ’ करने की विधि का लोगों को प्रशिक्षण भी प्रदान किया. परमहंस जी ने पंजाब में हिन्दू धर्म तथा रामायण प्रचार का जो अभियान चलाया उसे प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता तथा ‘पंजाब केसरी’ के सम्पादक लाला जगत नारायण का भारी सहयोग एवं समर्थन मिला. धार्मिक मंच से देश के नेताओं को अपने कर्त्तव्य बोध का उपदेश देने में ‘कोट इसे खां’ के सर्वधर्म सम्मेलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी. ऐसे ही एक सम्मेलन में ‘पंजाब केसरी के सम्पादक लाला जगत नारायण ने कहा कि ‘मुझे एक हिन्दू परिवार में जन्म लेने और अपने आपको हिन्दुस्तानी कहलाने में गर्व अनुभव होता है क्योंकि हिन्दू धर्म की सीमाएं केवल अपने अनुयायियों तक ही सीमित नहीं बल्कि दूसरे धर्मों के प्रति आदर सम्मान की भावनाएं भी इसके प्रमुख सिद्धान्तों में से एक हैं. सच्चा हिन्दू वह है जिसके हृदय में दूसरों के प्रति आदर, प्रेम, दया एवं श्रद्धा की भावनाएं होती हैं.’उत्तराखंड
दरअसल, आज हिन्दू धर्म के क्षेत्र में जो अनेक प्रकार की विसंगतियां आ गई हैं. धर्म में सदाचार के स्थान पर कदाचार बढ़ता जा रहा है, त्याग, संयम और अनासक्ति के स्थान पर धनसंग्रह, ऐश्वर्य भोग और ग्लेमरपूर्ण आडम्बर का चारों ओर बोल-बाला है. अन्धविश्वास एवं साम्प्रदायिकता के कारण धर्म के मानवतावादी मूल्यों का निरंतर अवमूल्यन हो रहा है तथा सर्वधर्म समभाव की चेतना समाज से लुप्त होती जा रही है. ऐसे धर्मविप्लव के युग में परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी का अनासक्ति योग, त्यागमूलक जीवन दर्शन तथा धर्म प्रभावना के प्रति एक जागरूक नेतृत्व क्षमता धर्म संस्था के प्रति आम जनता के आस्था और विश्वास को मजबूत किया है. परमहंस जी ने देश के विभिन्न प्रान्तों में
जाकर वहां की क्षेत्रीय जनता के अन्तर्मन का स्पर्श करते हुए उनकी पीड़ाओं और संवेदनाओं के प्रति आत्मीयता प्रकट की तथा रामभक्ति की औषध से उनका निदान भी किया. ‘अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद्’ के प्रवक्ता बाबा श्री बलराम दास हठयोगी जी ने परमहंस जी का एक संत के रूप में मूल्यांकन करते हुए यह उचित ही कहा है कि “धार्मिक मूल्यों के इस विप्लवकारी युग में जिस तरह से परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी महाराज ने अपने त्याग और तपस्या के आदर्श मूल्यों से समाज का सही दिशा में मार्गदर्शन किया तथा धार्मिक सहिष्णुता एवं कौमी एकता का प्रोत्साहन करते हुए श्री रामानन्द सम्प्रदाय की धर्मध्वजा को ही नहीं फहराया बल्कि देश के सभी धार्मिक सम्प्रदायों के मध्य सौहार्द एवं सामाजिक समरसता की भावना को भी मजबूत किया. उसी का परिणाम है कि आज देश में संतों के प्रति श्रद्धा और विश्वास की भावना जीवित है.”उत्तराखंड
2 मई, 2014 को अक्षय तृतीया की पुण्यतिथि पर परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी के शिष्यों, भक्तों तथा शुभचिन्तकों की ओर से उनकी 50वीं दीक्षा जयन्ती का भव्य आयोजन भारद्वाज
कुटी प्रेम आश्रम, चण्डीघाट, हरिद्वार में किया गया. इस अवसर पर पचास दिवसीय श्री रामचरितमानस के अखण्ड पाठ, नवकुण्डीय यज्ञ के साथ साथ एक राष्ट्रीय सन्त सम्मेलन का आयोजन भी किया गया. ‘अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के राष्ट्रीय प्रवक्ता हठयोगी श्री बलराम जी दास महाराज की अध्यक्षता में आयोजित इस राष्ट्रीय सन्त सम्मेलन में अयोध्या, उत्तराखण्ड, बद्रीनाथ, हरियाणा, पंजाब, जयपुर, दिल्ली आदि विभिन्न प्रान्तों के सन्त, महात्मा, साहित्यकार एवं विद्वान सम्मिलित हुए तथा परमहंस श्री रामचन्द्रदास जी महाराज द्वारा किए गए पिछले पचास वर्षों की धर्मसाधना और उनके द्वारा किए गए सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय योगदान पर गम्भीरता से चर्चा की गई. इस अवसर पर परमहंस जी के भक्तों तथा शुभचिन्तकों की ओर से ‘सद्गुरु परमहंस’ नामक स्मारिका का प्रकाशन भी किया गया जिसका लोकार्पण हरिद्वार में आयोजित सन्त सम्मेलन में जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी हर्षदेवाचार्य जी महाराज के करकमलों से हुआ. इस सन्त सम्मेलन में कालीमठ आश्रम के परम तपस्वी सन्त महन्त श्री कैलाशानन्द जी का भी विशेष सान्निध्य प्राप्त हुआ.उत्तराखंड
अपने अंतिम जीवन काल में हरिद्वार में रहते हुए उन्होंने 50वीं दीक्षा जयन्ती के अवसर पर 2 मई, 2014 को अक्षय तृतीया की पुण्यतिथि पर अपने शिष्यों, भक्तों तथा शुभचिन्तकों की मदद से पचास दिवसीय अखण्ड रामायण और , नवकुण्डीय यज्ञ के साथ साथ एक राष्ट्रीय सन्त सम्मेलन का भी भव्य आयोजन किया. पूरा हरिद्वार इस लघु आयोजन के समय संत महात्माओं के कुम्भ की तरह नजर आता था.समाचार पत्रों ने सुर्खियों में इस आयोजन को विशेष कवरेज दी थी .
उत्तराखंड
गौरतलब है कि देश के विभिन्न भागों में रामभक्ति की धर्मध्वजा फहराने के बाद परमहंस जी ने उत्तराखण्ड स्थित अपने भासी ग्राम की छोटी सी कुटिया में रहते हुए यहां ऐसे विशाल
बड़े बड़े राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन करके देश के कोने कोने से संत महात्माओं को इस देवभूमि में आमंत्रित किया जो इस धरा के इतिहास में शायद पहले कभी नहीं हुआ. सदियों के बाद इस देवधरा में उनके सौजन्य से शकराचार्य जी के सान्निध्य में उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध शक्ति पीठ नैथना देवी में शतचण्डी महायज्ञ का अनुष्ठान किया गया और विशाल राष्ट्रीय संत सम्मेलन के साथ साथ एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन हुआ .उत्तराखंड
परमहंस जी की यह अंतिम इच्छा थी कि मोक्षनगरी हरिद्वार में धर्मसाधनायें करते हुए ही उनका यह पार्थिव शरीर मां गंगा की गोद में रह कर दिवंगत हो. इसलिए उन्होंने साथ आठ वर्ष पहले ही अपने भक्तों की मदद से चंडीघाट हरिद्वार में भारद्वाज कुटी प्रेम आश्रम के नाम से एक छोटी सी कुटिया बना ली थी. कुटिया छोटी बेशक
थी मगर परमहंस जी की धार्मिक प्रभावना का विशाल दायरा उसमें बसता था. पिछले वर्ष ही महाराज श्री ने हरिद्वार में अत्यंत दुर्लभ और कठिन 108 दिवसीय श्री रामचरित मानस के अखण्ड पाठ का आयोजन किया था जिसका समापन 17 अक्टूबर 2016 को हुआ. यह आयोजन परमहंस जी के जीवन काल का राम भक्ति को समर्पित एक अनोखा और अंतिम अनुष्ठान सिद्ध हुआ.उत्तराखंड
मैंने एक बार परमहंस जी से पूछा था कि आप उत्तराखंड में इतने विशाल स्तर के राष्ट्रीय सम्मेलन करने के बाद इस देवभूमि को छोड़ कर अंतिम वृद्धावस्था के समय हरिद्वार में क्यों आ गये हैं? तब उन्होंने मुझे हंसते हुए कहा था कि उत्तराखण्ड में गंगा नहीं है और मैं चाहता हूं कि मैं अपने जीवन की अंतिम सांस हरिद्वार
में मातृस्वरूपा गंगा जी की गोद में रहते हुए ही लूँ. वे कहते थे उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि है इसलिए यहां आठ दस वर्ष रहकर लगातार धर्मप्रभावना करके मैंने अपनी जन्मभूमि का कर्ज चुका दिया है किन्तु अब मुझे आत्मकल्याण के लिए पतित पावनी गंगामाता की शरण में अपना शेष जीवन काल बिताना है. वास्तव में परमहंस जी जो चाहते थे वैसा ही हुआ. मृत्यु के समय न उन्हें न कोई कष्ट हुआ और न कोई परेशानी रामनाम की माला जपते हुए परमधाम को सिधार गए.उत्तराखंड
23 नवम्बर की सुबह परमहंस जी ने रोजाना की तरह स्नान आदि किया और रामस्तोत्र का पाठ करते करते ध्यानावस्था की अवस्था में ही चेतना शून्य हो गए. डॉक्टर के
परामर्श से उन्हें निकट के अस्पताल में ले जाया गया किन्तु उन्हें बचाया नहीं जा सका और मृत घोषित कर दिया गया. 24 नवम्बर 2016 को वैष्णवी साधना को समर्पित, उत्तराखण्ड के महान संत परमहंस श्री रामचन्द्र दास जी महाराज का पार्थिव शरीर हरिद्वार स्थित चंडीघाट के निकट गंगामाता की लहरों में समा गया. शोकविह्वल और नम आँखों से उनके परिजनों, दूर दूर से पधारे शिष्यों तथा भक्तों ने परमहंस जी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन किए और उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी. परम हंस जी की इस वैकुंठ धाम की अंतिम यात्रा में मैं और कुमाऊंनी साहित्यकार श्री विशन दत्त जोशी जी को भी शामिल होने का अवसर मिला. ‘अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद्’ के प्रवक्ता बाबा श्री बलराम दास हठयोगी जी ने संत परम्परा का पालन करते हुए परमहंस जी के शव पर केशरिया रंग की शाल चढ़ाई और चंडीघाट के शवदाह स्थल पर निम्नलिखित वैदिक मंत्रों से महाराज श्री को अंतिम विदाई दी गई-उत्तराखंड
“ॐ अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्
विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् |”
(ईशोपनिषद्,18)
अर्थात् – “हे ज्योतिर्मय अग्निपुरुष परमपिता!
परमात्मा ! आप इस जीवात्मा को सन्मार्ग से ले चलिये | आप हमारे सम्पूर्ण कर्मों को जानते हैं |”उत्तराखंड
यही प्रार्थना करती है भस्मान्त होती हुई प्रत्येक जीवात्मा परमपिता अग्निस्वरूप परमात्मा से जो ‘जातवेदा’ है यानी मनुष्य के अच्छे बुरे समस्त कर्मों को जानता है. अंतिम यात्रा के
समय मनुष्य अपने साथ कुछ नहीं ले जा सकता. धन दौलत, इष्ट मित्र सगे संबंधी सब यहीं रह जाते हैं यहां तक कि उसका अपना शरीर भी जीवात्मा के साथ नहीं जाता . जाते हैं तो इस जीवन में उसके द्वारा किए गए अच्छे बुरे कर्म जिन्हें स्मरण करता हुआ ही जीवात्मा अग्नि-चिता में भस्मान्त होते हुए परमात्मा के पास जाता है-“ऊँ वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्.
ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर..”
उत्तराखंड
यही है दिवंगत परमहंस जी के आध्यात्मिक जीवन लीला का अमृतमय अंतिम उपदेश जिसे उन्होंने अपने जीवन में उतारा और अपने भक्तों तथा समस्त मानवता को भी इस
भारतीय अध्यात्मवाद के उपदेश से अवगत कराया. अपने जीवन के आवसान में परमहंस जी संन्यास की कठोर साधनाओं की सीढियां चढ़कर रामभक्ति करते हुए ही रामधाम में लीन हो गए. उनका साधनामय जीवन दर्शन धर्मपथ के साधकों और अनुयायिओं के लिए सदैव मार्ग दर्शक सिद्ध होगा. उत्तराखंड के इस महान राष्ट्रसंत परमहंस जी की जन्म जयंती के अवसर पर उनके शिष्यों, भक्तों तथा शुभचिन्तकों की ओर से श्रद्धांजलि सहित शत शत नमन.(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)