जंक खाये मीडिया तंत्र में न्यूज़ पोर्टल ही टारगेट पर क्यों?
- वरिष्ठ पत्रकार मनोज इष्टवाल की फेसवुक वॉल से
आज अच्छा लगा बहुत सारे मीडिया के वे साथी एक प्लेटफार्म पर दिखे जो वास्तव में लोक तंत्र के चौथे स्तम्भ कहे जा सकते हैं. पहल न्यूज़ 18 के स्थानीय संपादक अनुपम त्रिवेदी ने की… शायद वे इस बात से व्यथित थे कि न्यूज़ पोर्टल की आड़ में स्टिंग व उगाहीबाज कुकुरमुत्ते की तरह इस तंत्र को चौपट करने में तुले हैं. यह व्यथा सिर्फ उन्हीं की नहीं है बल्कि उस हर पत्रकार की भी है जिसने बर्षों मीडिया संस्थानों को निष्पक्ष पत्रकारिता कर उस मीडिया हाउस को बड़ा नाम देने के लिए जी तोड़ मेहनत कर खड़ा करने में अहम् भूमिका निभाई लेकिन जब उसका नम्बर आया तो इन बनियाओं ने उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर किया.
नई जनक्रांति आई “ऑन द स्पॉट न्यूज़” विकसित होने के विश्व भर में सोशल प्लेटफार्म तैयार हुआ. जो वेबसाइट के माध्यम से सरपट सारे विश्व में फैला और पल पल की खबर हमें घर बैठे मोबाइल्स व अन्य गजेट्स पर मिलनी शुरू हुई. इसी सुखद पहलु ने देश को प्रधानमंत्री के रूप में एक चाय बेचने वाले को इतना पॉपुलर कर दिया कि आज देश विश्व भर में शीर्ष देशों की सूची में शामिल है. खैर… लिखूंगा तो लम्बा हो जायेगा क्योंकि इस सोशल मीडिया के कारण मूल रूप से पत्रकार व मीडिया हॉउसों में कोहराम सा मचना स्वाभाविक है. जो खबर प्रिंट में दूसरे दिन पढ़ने को मिलती वह कुछ ही सेकेण्डस में ट्वीट हो जाती है.वही हाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी हुआ. मजबूरन सभी मीडिया घरानों ने सोशल प्लेटफार्म इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. पत्रकारों के लिए यह किसी प्रेशर पॉलिटिक्स से कम नहीं है क्योंकि सोशल मीडिया पर ऊळ जलूल जिस खबर का सिर न पैर वाली परम्परा भी शुरू हो गई. इससे यकीनन पत्रकारिता का ह्रास हुआ… यह तो हमें भी मानना पड़ेगा.
अब रही न्यूज़ पोर्टल्स को बंद करने या उसके विज्ञापन की बंदरबांट की बात तो वह लाजिम है कि उन पत्रकारों को बहुत कचोटता है जिनके नाम का सिक्का चलता था लेकिन मीडिया घरानों की मनमानी व सरकारी तंत्र के खेल ने उन्हें मजबूरन सोशल प्लेटफार्म पर ला खड़ा कर दिया. अब चाहे वह रवीश कुमार हों या फिर आठवी फेल यूट्यूबर… व्लॉगर्स या न्यूज़ पोर्टल वाला. सब एक पंक्ति में खडे हैं.
यकीनन न्यूज़ पोर्टल्स की अंधी बाढ़ रोकने के लिए कुछ तो ऐसे मानक बनने ही चाहिए ताकि पत्रकारिता जिन्दा रह सके लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि जितने भी बड़े मीडिया घराने हैं उनके बनिए भी तो जर्नलिस्ट नहीं रहे. ये भी तो व्यवसायी ही हैं.
मुझे लगता है कि विभाग मानकों के आधार पर पत्रकार तब तक नहीं चुनेगा जब तक उसके व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे न हों? वरना हमारे संगठन की 07सूत्रीय मांग माननीय मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद व तत्कालीन सचिव सूचना अभिनव कुमार को दिशा निर्देश दिए जाने के बाद भी धूल क्यों फांक रहा है.
अब आते हैं अहम् बिषय पर… अगर न्यूज़ पोर्टल में सब उगाही मास्टर पनप रहे हैं तो फिर हमारे पत्रकार संगठन अपना विरोध दर्ज क्यों नहीं करते. प्रदेश से बाहर के 15 से 20 न्यूज़ चैनल्स को तब लाखों के विज्ञापन दिए गए जब उनका न कोई टी आर पी बेस था न प्रदेश की कोई खबर ही उनमें दिखने को मिली. तब यह आवाज क्यों नहीं उठी? या मैंने आवाज उठाई तो कितनों ने मेरी आवाज में आवाज मिलाई.
काश… सोशल मीडिया के मित्र भी ऐसे में हम सबकी आवाज बनते लेकिन सबकी चुप्पी ने इंगित कर दिया कि अगर हम बोले तो कहीं हमारी चाटुकारिता भरी पत्रकारिता पर ग्रहण न लग जाय व हमें विज्ञापन मिलना बंद न हो जाय. आज सोशल मीडिया पर अंगुली उठी तो हम सब बेचैन हो उठे… ऐसा क्यों? अब आते हैं प्रिंट मीडिया पर…..प्रदेश से बाहर ऐसे दो पन्ने को अखबारों को पांच लाख से 78 लाख तक का एक ही बार में विज्ञापन मिल जाता है जो डीएवीपी तो छोड़िये आरएनआई में पंजीकृत भी थे कि नहीं… पता नहीं? ऐसी पत्रिकाओं को 30 से 35 लाख का विज्ञापन मिल जाता है जो प्रदेश तो छोड़िये देहरादून के हाथों तक नहीं पहुँचती इस पर भी हमें विरोध दर्ज करना चाहिए था लेकिन यहाँ हमारा दर्द होंठ सी लेता है . फिर उन मूल पत्रकारों को क्यों बख्शा जाय जो बड़े मीडिया घरानों में पत्रकार रहते हुए अपने परिजनों व रिश्तेदारों को सरकारी महकमों से अवैध तरीके से मंथली फिक्स किये हुए हैं.
मुझे लगता है कि विभाग मानकों के आधार पर पत्रकार तब तक नहीं चुनेगा जब तक उसके व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे न हों? वरना हमारे संगठन की 07सूत्रीय मांग माननीय मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद व तत्कालीन सचिव सूचना अभिनव कुमार को दिशा निर्देश दिए जाने के बाद भी धूल क्यों फांक रहा है. अगर अब तक इम्प्लीमेंट हो जाता तो हमें यह सब कहने की आवश्यकता न पडती कि इन धंधेबाजों से पत्रकारिता कैसे बचाई जाय.
आइये हम सब मिलकर इस लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के जनसरोकारों के लिए बैठते हैं व इस कुछ भला सा निदान ढूंढते हैं.