- आशिता डोभाल
पहाड़ों की संस्कृति में बर्तनों का एक अलग स्थान रहा है और ये सिर्फ हमारी संस्कृति ही नहीं हमारी धार्मिक आस्था का केंद्र भी रहे है, जिसमें हमारी सम्पन्नता के गहरे राज छुपे होते हैं. धार्मिक आस्था इसलिए कहा कि हमारे घरों में मैंने बचपन से देखा कि दूध से भरे बर्तन या दही, मठ्ठा का बर्तन हो उसकी पूजा की जाती थी और खासकर घर में जब नागराजा देवता (कृष्ण भगवान) की पूजा होती है, तो घर में निर्मित धूप (केदारपाती, घी,मक्खन) का धूपाणा इन बर्तनों के पास विशेषकर ले जाकर पूजा की जाती थी, जिससे हमें कभी भी दूध दही की कमी न हो और न हुई.
हमारे घर में 6, 4, 2 सेर की एक, एक परोठी हुआ करती थी और मठ्ठा बनाने के लिए एक बड़ा—सा जिसे स्थानीय बोली में परेडू कहा जाता है, होता था और मठ्ठा मथने की एक निश्चित जगह होती थी, उस जगह पर मथनी, रस्सी और दीवार पर मकान बनाते समय ही दो छेद बनाए जाते हैं, जिस जगह पर मथनी और परेडु के सहारे के लिए लकड़ी के तड़वे लगे होते थे. मैंने लगभग जितने भी घर देखे मठ्ठा लगाने के लिए लोग दरवाजे के पीछे की जगह को चुनते थे.
आज मैं एक ऐसे बर्तन की बात कर रही हूं जिसे हम पहाड़ी बोली में परोठी कहते हैं, जो एक ऐसा बर्तन है जिसने दही—मठ्ठा बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, ये जितना बाहर से खूबसूरती बिखेरता है उतनी ही स्वादभरी दही इसमें बनती है,इस बर्तन की मौजूदगी बताती है कि घर में दुधारू पशु बंधें है ये मुख्यत बांज, बुरांश, थुनेर, शीशम और सांद्ण की लकड़ी से बनाए जाते है. इसका आकार लंबा और गर्दन गोल होती है. मैंने अपने घर में इसी बर्तन में दही बनते देखी है और उस दही का स्वाद मैंने बचपन से चखा है. आज वो स्वाद याद बनकर रह गया है, मुझे अब भी याद है जब घर में मठ्ठा बनती थी तो पहले परोठी में दही जमाई जाती थी और इसका माप सेर के हिसाब में होता था. सेर पुराने समय का एक मापक यन्त्र हुआ करता था. हमारे घर में 6, 4, 2 सेर की एक, एक परोठी हुआ करती थी और मठ्ठा बनाने के लिए एक बड़ा—सा जिसे स्थानीय बोली में परेडू कहा जाता है, होता था और मठ्ठा मथने की एक निश्चित जगह होती थी, उस जगह पर मथनी, रस्सी और दीवार पर मकान बनाते समय ही दो छेद बनाए जाते हैं, जिस जगह पर मथनी और परेडु के सहारे के लिए लकड़ी के तड़वे लगे होते थे.
मैंने लगभग जितने भी घर देखे मठ्ठा लगाने के लिए लोग दरवाजे के पीछे की जगह को चुनते थे. बहुत सारी परोठियों में दही इक्कठ्ठा करके फिर मठ्ठा बनती थी और ताज्जुब की बात तो ये होती थी कि उस समय न तो पहाड़ों में कोई रेफ्रिजरेटर था और न लोग उसके उपयोग को जानते थे, बिना रेफ्रिजरेटर के उस दही में न तो कभी कोई दुर्गन्ध आयी न कभी उसके स्वाद में कोई बदलाव आया होगा, बल्कि घर में दूध के बर्तनों को रखने के लिए लकड़ी के बक्सेनुमा आकार की छोटी छोटी कुठारी होती थी, उसमें दूध दही मक्खन और घी सब रखे जाते थे, जो हमेशा ताजे ही रहते थे. यहां तक कि उनमेंं से कभी गंध की कोई गुंजाइश नहीं रहती थी. अब या तो वातावरण में परिवर्तन कहें या रहन—सहन में बदलाव कहें, जिसकी वजह से आज ये सब चीजें नहीं रही.
बात पहाड़ों की हो या किसी भी समुदाय की. हमारी जीवनशैली ‘5 ज’ पर निर्भर करती है जो कि निम्नवत है जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर इनका आपसी तालमेल ही समुदाय के विकास को परिभाषित करता है, जिसमें सिर्फ ये 5 ज अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. परोठी का उपयोग सिर्फ दही बनाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि सगाई, शादी—ब्याह में शगुन के तौर भी इसकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है. लड़के के घर से भरी दही की परोठी ले जाई जाती है और उसकी गिनती एक इंसान के रूप में की जाती है बल्कि पहाड़ों में एक कहावत है कि सगाई और बारात में कितने नम्बर की परोठी गई.
आज आधुनिकता की चकाचौंध में हमने लकड़ी की जगह स्टील के बर्तनों का उपयोग करना शुरू कर दिया है उसका कारण यह भी ही सकता है कि अब पहाड़ों में इस बर्तन की उपलब्धता नाममात्र की रह गई है. कोई बिरला इंसान ही होगा जो इस बर्तन को बनाता होगा, इस परोठी की जगह चीनी मिट्टी, प्लाष्टिक और स्टील की परोठी का उपयोग किया जा रहा है और लोग अपने मन को सांत्वना देते हैं कि हम परोठी में बनी दही का स्वाद ले रहे है, जबकि लकड़ी की परोठी में दही का स्वाद बहुत ही लाजबाव होता है. ये पता सिर्फ उन लोगों को होगा जिसने उस स्वाद को चखा है.
आज हम बाजार से दूध—दही, घी—मक्खन आदि खरीद तो रहे हैं, जिनमें न जाने क्या—क्या मिलावट है जो हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक है और ये सब हमें पता होते हुए भी पशुपालन को हम आज भी व्यवसाय के तौर पर नहीं देखते हैं, जबकि सरकारी महकमे की बहुत सारी योजनाओं में से पशुपालन और डेयरी विकास योजना प्रमुख योजनाओं में है. सरकार भी लोगो का ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाह रही है. उम्मीद है लोगों का रुझान इस और बढ़ेगा और हमें फिर से परोठी देखने को मिलेगी और उसमें बनी दही का स्वाद लेने का मौका हमें फिर से मिलेगा.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)