बंगाण क्षेत्र की आपदा का एक वर्ष… लोगों का दर्द और मेरे पैरों के छाले…
- आशिता डोभाल
बंगाण क्षेत्र का नाम सुनते ही मानो दिल और दिमाग पल भर के लिए थम से जाते हैं क्योंकि बचपन से लेकर आजतक न जाने कितनी कहानियां, दंत कथाएं वहां के सांस्कृतिक और धार्मिक परिवेश पर सुनी हैं, बस अगर कहीं कमी थी, तो वो ये कि वहां की सुन्दरता और सम्पन्नता को देखने का मौका नहीं मिल पा रहा था जो सौभाग्यवश इस भ्रमण के दौरान देखने को भी मिल गया था.
विगत वर्ष दिनांक 17.08.19 व 18.08.19 को बारिश के कहर से पूरी बगांण वैली का तबाह होना या यूं कहें कि एक पूरी सभ्यता की रोजी-रोटी (स्वरोजगार) के साधनों का तबाह होना किसी भी सभ्यता के लिए अच्छे संकेत तो बिल्कूल भी नहीं थे, साधन विहीन हो चुकी बगांण वैली इस वेदना से गुजर रही थी, जिसकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं था. आसमान का कहर उनका इतने कम समय में सब कुछ खत्म कर देगा, ऐसा उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा. मोल्डी गांव आराकोट के बाद सबसे पहला गांव है, जिसे कोठीगांड़ पट्टी का प्रवेश द्वार कह लीजिए, दोनों तरफ से खतरे की जद में था. नीचे नदी काट रही थी तो ऊपर से पहाड़ दरक रहा था, लोग इतने सम्पन्न और खुशहाल थे मानो इनकी सम्पन्नता और खुशहाली को किसी की नजर लगी हो पर क्या करें जब ऊपर वाले की मर्जी होती है तो उसकी नजर में गरीबी-अमीरी का कोई दर्जा नहीं होता. प्रभावित सबको होना है बस गरीब जिन्दगी भर परेशान रहता है और दो वक्त की रोटी के लिए उसका संघर्ष जीवन भर चलता रहता है.
नगवाडा एक ऐसा मंजर देखने को मिला कि बस शब्दो में बयान करते हुए भी रूह कांप रही है, बदबू इतनी कि नाक खराब होने को थी, मैं और वर्गीश जब कदम बढा रहे थे तो लग रहा था कि पता नहीं कब किसके सिर, हाथ-पैर या शरीर के किस हिस्से पर हमारा पैर पड़ जाए. क्योंकि लोग कह रहे थे कि लाशें अभी भी मलबे में दबी पड़ी हैं. लोग चूना डालने में व्यस्त थे ताकि बदबू से थोड़ा निजात मिल सके. रातभर की बारिश से सड़कें टूटी हुई थी, जगह-जगह जेसीबी मशीन लगी हुई थी. अब हम टिकोची की तरफ कदम जा रहे थे, तो बीच रास्ते में हमारी मुलाकात कुछ स्थानीय महिलाओं से हुई, जो कि राधा स्वामी संतसंग को सुनने के लिए टिकोची से वापस आ रही थी. पलभर के लिए उन पर गुस्सा भी आ रहा था, तो हंसी भी आ रही थी. गुस्सा इसलिए कि हम देवभूमि में रहने वाले लोग क्यों इन बाबाओं के संतसंग में विश्वास करते हैं. महासू की धरती में इन बाबाओं का जाल भी फैल चुका है ये मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था. हंसी इसलिए आ रही थी कि जहां लोग अपनी सहानुभुति प्रकट करने आ रहे हैं, वो भी अपनी जान हथेली पर रख कर संतसंग में आ-जा रहे हैं. उन महिलाओं से बातचीत का सिलसिला काफी देर तक चलता रहा, आस-पास के गांव का हाल चाल जानने की कोशिश की और फिर हम आगे बढ़ते गये.
इसी बीच कुछ कश्मीरी, नेपाली मजदूरों से मेल-मिलाप करते हुए जानकारियां एकत्रित करते हुए हम आगे बढ़े. चलते-चलते हमने नेपालियों के बच्चों से गांवो के नाम पूछे. ऊपर कौन-कौन से गांव हैं, तो उन्होंने बतया कि सबसे ऊपर डगोली गांव है, पूरी वैली का एकमात्र यही गांव है, जहां ब्राहमण जाति के लोग रहते हैं और चार महासू में से जो पवासी महाराज हैं उनके पुजारी डगोली गांव के नौटियाल जाति के ब्राहमण हैं. डगोली गांव को देखते ही मेरा तो मन पसीज कर ही रह गया और सोचने लगी कि मैं तो वहां पंहुच ही नहीं सकती हूं, इनकी खेती भी सारी बह चुकी थी साथ ही स्वास्थ्य महकमें का एकमात्र आर्युवेदिक अस्पताल का तो वहां कोई नामों-निशान भी नहीं बचा हुआ था.
टिकोची पंहुचने पर वहां का जायजा लेने में जुट गये. सबसे पहले वहां के प्राथमिक विद्यालय में जाकर वहां पर तैनात सरकारी कर्मचारी जिनमें कुछ अध्यापक, कुछ पुलिसकर्मी और कुछ स्वास्थ्य विभाग के लोग थे, उनसे बातचीत खत्म करके हम मुख्य बाजार की तरफ बढ़ने लगे और जैसे ही हम वहां पंहुचे तो वहां राजपाल चौहान सर जो कि वर्तमान में टिकोची इन्टर कॉलेज में पीटीआई हैं पर नजर पड़ी, हम उनको नजर अंदाज करना चाह रहे थे, कारण ये था कि वो पहले नौगांव इन्टर कॉलेज में पीटीआई रह चुके थे और बहुत ही बोलने वालों में से हैं, पर उनकी नजर हम पर पड़ते ही वो दूर से ही हमारी तरफ आने लगे और हम लोग भी उनसे मिलने आगे बढ़ने लगे. सर ने वहां की सारी चीजों से अवगत करवा दिया था, साथ ही टिकोचीइ इंटर कॉलेज के हालात को समझने के लिए उनके साथ हम कॉलेज परिसर का परीक्षण करने चले गये. पूरे कॉलेज परिसर में मलबा भरा पड़ा था, 4 कमरे बचे थे जिनको लोक निमार्ण विभाग की मदद से साफ करवा गया. कुछ दिन की वैकल्पिक व्यवस्था में यहीं पर कक्षायें चलती थी. वहां पता चला कि स्कूल की जो भोजनमाता है उसका पूरा परिवार खत्म हो गया था. मकानों और दुकानों में चारों तरफ मलबा भरा पड़ा था, उस दिन मोल्डी, नगवाडा और टिकोची में इंडियन रेडक्रास सोसाइटी के कुछ सदस्यों की टीम भी कुछ दवाइयों का वितरण कर रही थी. एक तरह का स्वास्थ्य शिविर कह सकते हैं, बल्कि दवाइयां वितरण कम फोटोग्राफी ज्यादा हो रही थी. उनकी टीम में 2-3 लोग स्पेशल कैमरा लेकर तैनात थे और ऐसा लग रहा था कि किसी फिल्म की सूटिंग के लिए आए हुए हैं. गले में आईडी-कार्ड तो ऐसे लटका रखा था कि इनसे बड़ा समाजसेवी कोई है ही नहीं. कुछ लोग उनके आस-पास घिर रहे थे और वो लोग उनको सिर दर्द, बुखार की गोलियां दे रहे थे, कुछ लोग भड़क कर जबाब भी दे रहे थे कि इन दंवाइयों से हमारा कुछ नहीं होगा हमें उन दवाइंयों की आवश्यकता है जिनसे हमें 4-4दिन तक भुख न लगे. बात तो एकदम सही थी, किसी को अखर रही थी तो किसी पच रही थी. रेडक्रॉस सोसाइटी से अजय पूरी टीम का संचालन करते हुए नजर आ रहे थे और वो मुझे बार-बार देख रहे थे क्योंकि मुझसे उनका परिचय तो है पर कुछ खास नहीं, उन लोगों ने अपनी फोटोग्राफी खत्म की और वापस आ गये. अगली सुबह के पेपर का मटीरियल एकत्रित कर चुके थे. मैंने अगले दिन का पेपर जब देखा तो हतप्रभ रही गई. इतनी अच्छी खबर सचमुच में हम जैसे लोगों की कमर तोड़ देती है. समाजसेवी का चोला धारण करने वालों के लिए इस तरह की घटनायें होना आम बात है उनके लिए लोगों की भावनायें या उनकी समस्याएं कोई मायने नहीं रखती है.
हम लोग अपने अपने फील्ड के महारथी तो हैं ही, अपने अनुभवो को साझा करते-करते हम बरनाली पहुंच गये, वहां से पता किया कि माकुड़ी कितना दूर है, क्योंकि हमारा पहला लक्ष्य माकुड़ी ही था. अब तक तो हम लोग इतनी जानकारी जुटाने में कामयाब हो चुके थे कि आसानी से पता लगा सकते है कि किस गांव में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. बरनाली से दो रूट कट जाते है एक चिंवा, एक माकुड़ी. चिवां अगले दिन का टारगेट था तो हमने आज माकुड़ी किसी भी हाल में पहुंचना था और सबसे आश्चर्य वाली बात तो ये थी कि दोनों चले जा रहे थे, न रात के ठिकाने का पता न खाने का. आपदा जोन में भगवान भरोसे. बहुत कम लोगों को हमने अपना परिचय दिया कि हम कौन है और क्यों आये है, जब कोई पूछ रहा था कि इस इलाके में किसी को जानते हो तो तपाक से जबाब भी दे रहे थे कि हां गोकुल गांव के बचन सिंह चौहान जो कॉपरेटिव बैंक में मैंनेजर थे उनकी बड़ी बेटी मेरी कलासमेंट है और उनका बड़ा बेटा वर्गीश का क्लासमेंट है. बरनाली से दो औरतें हमारे साथ थी हंसी मजाक करते-करते हम पगडंडिंयो के रास्ते माकुड़ी की ओर अपने कदम बढ़ाने लगे बीच में डगोली गांव जिसे देखकर मैं बोल पड़ी थी कि मैं वहां नहीं पंहुच सकती हूं, अब मैं उसके टॉप पर हूं. वहां बने हिमाचली पैटर्न के घरों को निहारते रहे और सोचते रहे कि लोग सम्पन्न है. इन लोगों के पास प्रकृति का दिया हुआ बहुत कुछ है. बीच में सेब के बगीचे, आडू, नाशपती का मजा लेते रहे, साथ वाली महिलाओं ने एक घर में बैठने का मन बनाया पर हमने भी एक शर्त पर बैठने को कहा कि यदि लोकल ककड़ी खिलाओगे तो ही बैठेगें वरना नहीं. उन्होने हमारे प्रस्ताव को मंजूर कर लिया जैसे ही घर के अन्दर कदम रखा देवदार की महक से मन शान्त और सुगंधित हो गया और साथ में ककड़ी और पिसा हुआ नमक का मजा लिया, फिर सेब के बगीचो के बीचों-बीच रास्तों को पार करके सड़क के अन्तिम छोर पर खडे हो गये, क्योंकि वहां पर उन दो महिलाओं से विदा लेनी थी वो अपने मायके पंहुच चुके थे, साथ में हम लोगों को भी रोकने का प्रयास करती रही पर हम कहां मानने वाले थे, उन्होंने आगे के रास्तों के लिए हमें हिदायत दी कि किस तरह जाना है.
अब हम आगे बढ़ने लगे और अपने मोबाइल भी चेक करने लगे क्योंकि वहां नेटवर्क आ तो रहा था पर बात नहीं हो पा रही थी, थोड़ी दूर पहुचने पर एक भट्ट जी से मुलाकात हुई जो मूलरूप से देवप्रयाग के थे और काफी सालो से यहीं रह रहे थे, उनसे सेब की फसल को कितना नुकसान हुआ है पूछा और आगे बढ गये. रास्ते उबड़-खाबड़ पर जैसे-तैसे पार कर लिए, दूर से माकुड़ी गांव दिखा तो सांस में सांस आई. अब हम माकुड़ी गांव पंहुच चुके थे प्राकृतिक छटा तो देखते ही बनती है, सुन्दरता इतनी कि मानो ऊपर वाले ने बेहद खूबसूरती से सजाया हो, पर आपदा ने इस जगह पर चांद पर दाग जैसी बात को सिद्ध कर दिया हो. घर पांच सितारा होटल से कम नहीं, बहुत देर तक गांव को दूर से निहारते रहे बांज-बुरांस, खर्सू-मोरू के पेड़ों के बीच सुन्दर सा गांव. गांव के शुररुआत में कुछ लोगों से बातचीत का दौर शुरू हुआ तो लोगों ने पूरा सहयोग किया, सारी जानकारियां एकत्रित की फिर वहां सेब के बगीचों का जायजा लिया. लोग बता रहे थे कि जिस घर में 5 लोग मरे आज उनका सेब ट्राली से यहां पंहुचा रहे हैं, कुछ दिन बाद जैसे ही रोड खुलेगी सबसे पहले इनका सेब मंडी पंहुचाया जायेगा (हमारे पहाड़ों में भाईचारे की ये मिशाल हर गांव में देखने को मिलेगी). गांव के लोगों से जानकारी के दौरान लोग बता रहे थे कि अच्छा हुआ कि ये घटना सुबह हुई अगर रात को होती तो शायद पता नहीं कितनी जान माल की हानि होती.
लोगों के उदास चेहरो को देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी, बच्चो और महिलाओं की वो सिसकियां कानों में बहुत दिनों तक गूंजती रही. हम भी अपने आप को असहाय महसूस करने लगे थे किसी तरह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करके उन लोगों को अलविदा कहा. बहुत लोग हमें रोकने की कोशिश करने में लगे हुए थे पर हमारा मन वहां रूकने को बिल्कुल भी राजी नहीं था. हम गांव के अन्तिम छोर तक गये वापस आये वहां पर एक चाय की दुकान थी तो भूख का एहसास भी होने लगा, क्योंकि आज का काम खत्म हो चुका था, चाय वाले को चाय बनाने को कहा और मैंगी हमारे बैग में ही थी तो उनको मैंगी बनाने को भी बोल दिया. दोनों ने मैंगी खाई और चाय पी. वापस चलने लगे कि डगोली में रिश्तेदारी फिल्टर की जायेगी कोई न कोई जान पहचान निकाल कर आज रात का इंतजाम हो ही जायेगा.
अर्श-उडान परियोजना की जान-पहचान तो थी ही (2009 से 2012 तक) इसी उलझन में माकुड़ी के रास्ते में बैठकर सोचने लगी तो उन दोनो महिलाओं से फिर से मुलाकात हो गई. दुबारा उनसे विदाई ली और वही से अमिता नौटियाल (हार्क) को कॉल की कि अपनी ससुराल में बता देना कि हम लोग आने वाले हैं पर वहां पर तो नेटवर्क ही नहीं है, अमिता ने विश्वास दिलाया कि जाओ कोई दिक्कत नहीं होगी, फिर भी शंकाओ के जाल ने मन को घेरे हुए थे पर हिम्मत ये भी नहीं हो रही थी कि वापस त्यूणी जाया जाय, क्योंकि फिर से उतना ही रास्ता चलना अपनी बसकी बात नहीं थी. इसी कशमकश में सोचते-सोचते वापस डगोली की सडक पर पंहुचते-पहुंचते शाम के 7 बज चुके थे, हम दोनों आपस में बोलने लगे कि जिनके घर जा रहे हैं अगर उन्होंने मना कर दिया तो क्या होगा? वहां खड़ी एक महिला ये सब बाते सुन रही थी तो बोली कि परेशान मत रहो मेरे घर चलो, तो हमने उनको कहा कि हमें यहां के स्याणा जी के घर जाना है तो उन्होंने दूर से ही उनकी लड़की को आवाज लगाई वो नीचे थोड़ी दूरी पर खड़ी थी, जब वो आवाज लगा रही थी तो उनकी भाषा में बावर की भाषा के कुछ शब्द थे जो मेरी समझ में आ रहे थे, तो मैंने भी उनको पूछ ही लिया कि आपका मायका कहां से है तो वो बोली कि चिल्हाड़ से, तो मैंने उनको कहा कि आप अनीता दीदी हैं, तो उन्होंने भी मुझे पहचान लिया. देखते ही देखते प्रमोद बहुगुणा भैया भी मिल गये और एक दो और लोग भी. अब हम असंमजस की स्थिति में थे की कहां जाये पर अंत में अमिता की ससुराल जाने का निर्णय लिया. अनीता दीदी के घर जाकर चाय पी और दीदी ने कल सुबह का खाना बनाने का अपना फैसला सुना दिया. मेरी स्पेशल डिमांड पर मास (उड़द) भात (एक तरह की खिचड़ी) बनाने को बोल दिया. बावर की याद ताजा करने का सुनहरा मौका भी मेरे हाथ में आ चुका था. रात को गपशप और रिश्तेदारी की बातो में मग्न हो गये थे सुबह जल्दी उठने और चिंवा जाने का प्लान था ताकि शाम तक नौगांव वापस जा सकूं.
परी बंगाण वैली 17.08.19 से और 31/08/2019 तक अंधकार में डूबी है और शायद परिस्थितियों को संभलने के अभी समय लगेगा. सुबह उठे नास्ता किया अनीता दीदी से विदाई ली और चिंवा की तरफ चल पड़े. पैर तो मानो जबाव दे रहे थे पर मन में तो लोगों का दर्द था तो पैर हार नहीं माने. बरनाली पंहुचे वहां जाकर गोकुल, झोटाड़ी, मोण्डा, बलावट गांव की जानकारी एकत्रित की और फिर चिवां जाने वाले रास्तों की जानकारी लेते लोगों ने बताया नदी पार करके जाक्टा होते हुए चिवां जाना आसान होगा.
नदी पार की और नदी पर लकडि़यों से बने पुल के उपर जब आंखे और सिर घुम रहे थे तो लग रहा था कि कही आपदा जोन में आकर हम खुद आपदा का ग्रास न बन जाये. खुद के बनायें रास्तों पर चलने का फैसला कर लिया और अपन गंतव्य को चल पड़े. रास्ते में चिंवा के कुछ लोग जो देहरादून विकासनगर रहते हैं वे लोग अपना घर देखने जा रहे थे, रास्ते में उनको भी हमारी मदद की आवश्यकता पड़ी जिसे हमने सहर्ष स्वीकार किया. उनकी मदद करते हुए सुखद अनुभुति हो रही थी. अब हम जाक्टा पंहुच चुके थे वहां पर कोई नुकसान नहीं, रास्ते, पुल तो खत्म थे पर मकान सब ठीक थे. चिंवा पहुचने पर सबसे पहले स्कूल का जायजा लिया. टीचर्स से मुलाकात हुई उन्होंने सारी परिस्थितियां से अवगत करवाया. स्कूल की वैकल्पिक व्यवस्था गांव के पंचायत भवन में की गई, पंचायत भवन ऐसा जिसमें बड़े –बड़े छेद. टीचर्स अपने रजिस्टर और आलमारी तिरपाल से ढक रहे थे कि कहीं बारिश हुई तो सामान सुरक्षित तो रहेगा, फिर हम लोग उस जगह गये जहां स्कूल का भवन था, जगह देखकर कल्पना भी नहीं कर सकते कि यहां कोई स्कूल या भवन रहा होगा. तत्पश्चात सबसे अलविदा कहा. अब हमारा लक्ष्य पूरा हो चुका था, थकान होने लगी थी, पैरो का दर्द भी महसूस होने लगा था. वापस उसी रास्ते से आये पर एक उलझन ये भी थी कि कल गाड़ी मोल्डी में खड़ी करके आये हैं अब अगर कोई साधन नहीं मिला तो 10 किमी फिर से सड़क का रास्ता चलना पड़ेगा. इसी जद्दोहद में वापसी जंगल के रास्ते और वही लकड़ी की बल्लियो का पुल, नदी पार करके बरनाली पंहुचे, जैसे ही बरनाली पंहुचे वहां महेन्द्र भाई को देखकर इतनी खुशी हुई कि थकान भी दूर हो गई. सबसे पहले जूते उतारे तो देखा कि पैरो में छाले पड़े है जिसका दर्द सुबह से हो रहा था पर लोगों के दर्द ने सामने मेरा दर्द कुछ भी नहीं था.
बंगाण वैली सम्पन्न लोगों की वैली है पर इस प्राकृतिक आपदा के इस प्रकोप से कम से कम 10 साल इसके विकास की गति को विराम लग गया है, परिस्थितियों से जूझने के बाद कुछ सुधार सम्भव हो सकता है वरना सरकार तो आंख मूंद कर देखती रहेगी लोगों को करना खुद है, हालात ये थे कि आमजन तक न तो कोई सरकारी महकमें का कोई आदमी गया न कोई सामान वो चाहे माकुड़ी गांव हो या चिंवा.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)