- डॉ. मोहन चन्द तिवारी
बहुत ही दुःख की बात है कि कोरोना काल के इस कठिन दौर में “लस्का कमर बांध, हिम्मत का साथ फिर भोल उज्याई होलि, कां ले रोलि रात”- जैसे अपने ऊर्जा भरे बोलों से जन जन को कमर कस के हिम्मत जुटाने का साहस बटोरने और रात के अंधेरे को भगाकर उजाले की ओर जाने की प्रेरणा देने वाले उत्तराखंड लोक गायिकी के पितामह, लोक-संगीत के पुरोधा तथा गढ़वाली कुमाऊंनी और जौनसारी अकादमी,दिल्ली सरकार के उपाध्यक्ष श्री हीरा सिंह राणा जी अब हमारे बीच नहीं रहे.
‘हिरदा कुमाऊनी’ के नाम से पुकारे जाने वाले हीरा सिंह राणा जी का जन्म 16 सितंबर 1942 को उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल के ग्राम-मानिला डंढ़ोली, जिला अल्मोड़ा में हुआ.उनकी माताजी का नाम नारंगी देवी और पिताजी का नाम मोहन सिंह राणा था.
लोकगायकी की पहचान बने राणा जी का अचानक चला जाना उत्तराखण्डी समाज के लिए बहुत दुःखद है और पर्वतीय लोक संगीत के लिए अपूरणीय क्षति भी! पर्वतीय जनों के हृदय सम्राट श्री हीरा सिंह राणा जी ने पहाड़ को एक पहचान दी और उसकी आंतरिक पीड़ाओं के साथ उन्होंने आत्म साक्षात्कार करते हुए अपनी कविताओं को मार्मिक स्वर प्रदान किए-
“त्यर पहाड़, म्यर पहाड़
हौय दुःखों को ड्यौर पहाड़
बुजुर्गों ले जोड़ पहाड़
राजनीति ले तोड़ पहाड़
ठेकेदारों ले फोड़ पहाड़
नान्तिनों लै छोड़ पहाड़.”
आज हमारे बीच पहाड़ों की इस आंतरिक पीड़ा और उसकी आत्मकथा का लेखक और उसे हृदय की संवेदनाओं से मुखरित करने वाला स्वर सदा के लिए मौन हो गया.श्री हीरा सिंह राणा का जाना पर्वतीय लोक संगीत के लिए बहुत बड़ी क्षति है.कुमाऊं की लोक संस्कृति को समर्पित इस गीतकार ने अपने द्वारा रचे और स्वर दिए मर्मस्पर्शी गीतों के द्वारा उत्तराखंड की संस्कृति के उत्थान के लिए जो महनीय योगदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. उत्तराखण्ड के प्रमुख गायक कलाकारों में हीरा सिंह राणा जी का नाम सर्वोपरि है.
‘हिरदा कुमाऊनी’ के नाम से पुकारे जाने वाले हीरा सिंह राणा जी का जन्म 16 सितंबर 1942 को उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल के ग्राम-मानिला डंढ़ोली, जिला अल्मोड़ा में हुआ.उनकी माताजी का नाम नारंगी देवी और पिताजी का नाम मोहन सिंह राणा था.
हीरा सिंह राणा जी ने कुमाउनी संगीत को लोकप्रिय बनाने और उसे गम्भीर साहित्यिक स्वर देने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. उन्होंने एेसे गाने बनाए जो हृदय की गहराइयों को छूने वाले होते हैं.उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति हो या तीज त्योहार, देशभक्ति हो या जन-जन की सामाजिक पीड़ा,संघर्षों और पहाड़ की विभीषिकाओं को झेलती नारी की व्यथा कथा, पर्वतीय जन जीवन के हर पहलू पर हीरा सिंह राणा ने अपनी लेखनी चलाई और जन मानस की भावनाओं को बहुत ही गहराई से छूआ है.
“रंगीली बिंदी घागरी काई, हाई हाई रे मिजाता..” जैसे उनके गीत श्रृंगारपरक रंगीले गीतों की खूबसूरती उत्तराखंड के सौन्दर्यपरक चेतना को जितनी संजीदगी से मधुरमय स्वर प्रदान करते हैं,उसकी बात ही कुछ निराली है
लोक गायक हीरा सिंह राणा जी के एमपी 3 में गाए कुछ सदाबहार बेमिसाल गाने जो आज भी हर दिल को छू जाते हैं, उनमें ‘मेरी मानिल डानी’, ‘आ ली ली बाकरी’ ‘नोली पराणा’ आदि गीत उल्लेखनीय हैं. दिल्ली में हमारी संस्था ‘पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल’, नेहरू विहार में होली आदि सांस्कृतिक पर्वों पर हीरा सिंह राणा जी के गीतों को सामूहिक रूप से जब तक नहीं गाया जाता तब तक लोकसंगीत का यह कार्यक्रम अधूरा ही माना जाता था.
दरअसल, “रंगीली बिंदी घागरी काई, हाई हाई रे मिजाता..” जैसे उनके गीत श्रृंगारपरक रंगीले गीतों की खूबसूरती उत्तराखंड के सौन्दर्यपरक चेतना को जितनी संजीदगी से मधुरमय स्वर प्रदान करते हैं,उसकी बात ही कुछ निराली है-
“नौ पाटै घागरी पारा रेशमियां चैना.
हाई हाई रे मिजाता, हाई हाई रे मिजाता.
रंगीली बिंदी घागरी काई, हाई हाई रे मिजाता..”
पर्वतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का जहां कहीं आयोजन होता है हीरा सिंह राणा जी के “म्यरि मानिलै डानी मैं त्येरि बलाई ल्योंला.” गीत को बहुत आत्मीयता और तन्मयता से गाया जाता है.इस गीत की शब्द लहरियों में मानो देवभूमि पहाड़ का आध्यात्मिक सौंदर्य आंखों के सामने झूमने सा लगता है. जब भी देश-प्रदेश में राणा जी के गीतों को सामूहिक रूप से गाया या सुना जाता है, जन्मभूमि पहाड़ की आत्मीयता और अस्मिता, उसका नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य और मानवीय मूल्यों के नैतिक आदर्श एक साथ हिलोरें मारने लगते हैं. इसलिए पहाड़ की लोक संस्कृति का यदि मूल्यांकन किया जाए तो हीरा सिंह राणा महज एक लोकगायक ही नहीं बल्कि युग चेतना के मर्मस्पर्शी चितेरे कलाकार के रूप में भी जाने जाते रहेंगे.
हीरा सिंह राणा के गीतों में पर्वतीय जनमानस के सरोकार बहुत संजीदगी से अभिव्यक्त हुए हैं.उत्तराखंड राज्य का गठन जिन खुशहाली के सपनों को पूरा करने के लिए किया गया था वे सपने अब तक अधूरे ही रहे हैं. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां पलायन सबसे ज्यादा हुआ है.उसका एक मुख्य कारण है राज्य सरकारों द्वारा जल, जमीन से जुड़े कृषि के संसाधनों के प्रति घोर उपेक्षा भाव रखना. लोक कवि हीरासिंह राणा ने पहाड़ के पलायन की इस जनपीड़ा को भली भांति समझा और अपने गीतों में बयां करते हुए कहा है-
“कैकणी सुणानू पहाड़ै डाड़,
काट्यी ग्यीं जंगल सुकिगे गाड़.
सब्ब ज्वान नान् यां बटि न्है गई टाड़…
क्वे सुणों पहाड़कि दुःखों कहाणी,
जै शिव शंकर जै हो भवानी॥”
प्रारम्भ से ही हिरदा की कविताओं में जहां एक ओर प्रकृति की गोद में रची बसी पहाड़ की सुषमा हिलोरे मारती नज़र आती है तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ को भेदने,उससे स्वार्थसिद्ध करने वाली वह पहाड़ी मनोवृत्ति भी अभिव्यंजित होने लगती है जो आज के उत्तराखंड का कटु यथार्थ भी बन गया है.हीरा सिंह राणा की एक कविता ‘त्यर पहाड़ म्यर पहाड़’ वर्त्तमान पलायन के दौर में आज बहुत ही प्रासंगिक है. किस प्रकार विकास के नाम पर हमारे नेताओं द्वारा पर्यावरण के रक्षक प्रहरी पहाड़ों को तोड़ा और फोड़ा जा रहा है,उसकी दर्दभरी टीस यदि कहीं सुनाई पड़ती है तो वह टीस ‘हिरदा कुमाऊनी’ की कविता में ही सुनाई पड़ सकती है-
“त्यर पहाड़ म्यर पहाड़,
रौय दुखोंक ड्योर पहाड़..
बुजुर्गो ले जोड़ पहाड़,
राजनीति ले तोड़ पहाड़.
ठेकदारों ले फोड़ पहाड़,
नान्तिनो ले छोड़ पहाड़..
ग्वाव नै गुसैं घर नै बाड़.
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़..
उत्तराखंड के पर्यावरणवादी हों,या फिर राजनैतिक दल,पत्रकार बन्धु हों या साहित्यकार, उत्तराखंड की जन समस्याओं को उतनी बारीकी से नहीं समझ पाए जितनी आत्मीयता से राणा जी की कविता ने पहाड़ के दर्द को समझा है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का सरकारी स्तर पर दोहन हुआ, प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट हुई और जेई और एई मिल बांट कर सरकारी ठेकेदारों से पैसों से जेब भरते रहे, निश्चित रूप से पहाड़ की उस पीड़ा को केवल हीरा सिंह राणा जैसा कवि ही बांच सकता है,जिसकी कविता की आत्मा में पहाड़ बसा हो.इस दुःख की घड़ी में हीरा सिंह राणा की इस कविता के चंद बोलों को जरा ध्यान से सुनने की जरूरत है जो उनकी हृदय से निकले अत्यंत मार्मिक स्वर हैं-
“सब न्हाई गयी शहरों में,
ठुला छव्टा नगरों में
पेट पावण क चक्करों में,
किराय दीनी कमरों में.
बांज कुड़ों में जम गो झाड़,
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़..
क्येकी तरक्की क्येक विकास.
हर आँखों में आंसा आंस..
जेई करण रौ बिल कें पास
ऐई मारण रौ पैसोंक गास
अटैची में भर पहाड़
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़”
इतने घनघोर संकट के बावजूद भी जितनी भी हरियाली आज उत्तराखंड में बची है वह इस देव भूमि में विराजमान देवताओं का आशीर्वाद, प्रकृति परमेश्वरी का कृपा प्रसाद और हमारी तपस्यारत नारी शक्ति के कठोर परिश्रम का ही फल है.मां,बेटी, बहन तथा पत्नी के रूप में नारीशक्ति की इस राज्य को खुशहाल बनाने में अहम भूमिका रही है. वह नारी शक्ति ही आज भी उत्तराखंड को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए संघर्षशील है. पलायन के भारी संकट के बाद भी हम जहां इधर उधर एक दूसरे पर आरोप मढ़ने में लगे हैं वहां पहाड़ की नारीशक्ति इस घोर पलायन के दौर में भी बंजर खेतों को हरा भरा करने के लिए अपने दुख सुख की परवाह किए बिना जी जान से जुटी है. उत्तराखंड की धरती से जुड़े कवि हीरासिंह राणा ने अपने शब्दों के माध्यम से उत्तराखंड की मातृभूमि को हरितक्रांति से जोड़ने वाली इस नारी शक्ति के संघर्ष को भी इन मार्मिक शब्दों में अपनी भावपूर्ण अभिव्यक्ति से जोड़ा है-
“भ्योव पहाड़ों का गोद गहानैं‚
खेतों का बीचम बिणै बजानै.
नांगड़ि खुट्यां मा बुड़िया कानी‚
च्यापिंछ पीड़ै कैं क्ये नि चितानी.
पहाड़ा सैणियोंक तप और त्याग‚
आफि बणाय जैल आपोंण भाग.
स्वोचौ पहाड़क सैणियोंक ल्हिजी‚
जे आजि गों बटी गों में नि पूजी ॥”
महानगरीय संस्कृति के प्रभाव से आज कुमाउँनी भाषा और संस्कृति अपनी पहचान खोने के दौर से गुजर रही है ऐसे कठिन दौर में हमारे बीच से हीरा सिंह राणा जैसे लोककवि और दुदबोलि भाषा के उन्नायक लोक गायक का अचानक ही चला जाना बहुत ही दुःखद है. उनके साहित्यिक और लोकगायिकी से कुमाउँनी भाषा और संस्कृति को लोकप्रियता के नए आयाम मिले हैं,इसलिए यह पर्वतीय लोकसंस्कृति के लिए भी अपूरणीय क्षति है.
परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि श्री हीरा सिंह राणा जी की दिवंगत आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दें तथा सम्पूर्ण शोकाकुल परिवार एवं परिजनों को इस दुःख को सहने की शक्ति प्रदान करें.
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः..
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)