प्रो. गिरीश्वर मिश्र
भाषा मनुष्य जीवन की अनिवार्यता है और वह न केवल सत्य को प्रस्तुत करती है बल्कि उसे रचती भी है. वह इतनी सघनता के साथ जीवन में घुलमिल गई है कि हमारा देखना-सुनना, समझना और विभिन्न कार्यों में प्रवृत्त होना यानी जीवन का बरतना उसी की बदौलत होता है. जल और वायु की तरह आधारभूत यह मानवीय रचना सामर्थ्य और संभावना में अद्भुत है. भारत एक भाग्यशाली देश है जहां संस्कृत, तमिल, मराठी, हिंदी, गुजराती, मलयालम, पंजाबी आदि जैसी अनेक भाषाएँ कई सदियों से भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन संघर्षों को आत्मसात करते हुये अपनी भाषिक यात्रा में निरंतर आगे बढ़ रही है.
भाषाओं की विविधता देश की अनोखी और अकूत संपदा है जिसकी शक्ति कदाचित तरह तरह के कोलाहल में उपेक्षित ही रहती है. इन सब के बीच व्यापक क्षेत्र में संवाद की भूमिका निभाने वाली हिंदी का जन्म एक लोक-भाषा के रूप में हुआ था. वह असंदिग्ध रूप से एक समृद्ध लोक भाषा थी जिसमें न केवल आम जन बोलते थे बल्कि खुसरो, सूर, कबीर, विद्यापति, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रहीम, रसखान और जाने कितने ही महान कवियों ने ऐसा अमर साहित्य रचा जो समय बीतने के साथ भी अर्थवत्ता में निरंतर ताजा बना रहा. ‘भाखा’ वाला उनका काव्य एक साथ ग्रामीण आम जन से लेकर निपुण साहित्यकार तक सब के लिए अजस्र रस का स्रोत बना रहा और उसको सबने अपनाया. वह सुर-सरि ‘गंगा’ की भांति सबको रसार्द्र करने वाला बन गया. परन्तु भाषा स्वभाव से ही समय-सन्दर्भ में परिचालित होती है. वह विभिन्न प्रभावों को आत्मसात करते हुए रूप बदलती रहती है . समय बदला और अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि विविध छवियों वाला समृद्ध ‘लोक’ खिसक कर अनौपचारिक परिधि पर चला गया और ठेठ खड़ी बोली औपचारिक केंद्र में आकर व्यवहार और साहित्य में काबिज हुई .
‘भाषा’ का युग आया और ‘भाखा’ बोली हो गई पर इनके बीच कोई दुराव और वैमनस्य नहीं था. हिन्दी देश के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई और जन-संवाद के सभी रूपों में भारत और भारतीयता को सुदृढ़ करती रही भाषा को संवैधानिक दर्जा मिला और उसके प्रयोग क्षेत्र का विस्तार होता रहा. तथापि सत्ता की भाषा अँग्रेजी के आगे उसे ठिठकना पड़ा.
अंग्रेजों के जाने के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता टिकी रही क्योंकि नौकरशाही को उसका अभ्यास हो चुका था और निहित हित के चलते उसकी श्रेष्ठता की पैरवी भी कई-कई कोनों से होती रही . स्वराज का स्वाभिमान, दायित्व और गौरव ‘इन्डिपेन्डेन्स’ के अर्थ में जो स्वच्छंदता का रूप लेने लगा प्रतिफलित होने लगा. परिणाम यह हुआ कि हिंदी, जो एक व्यापक जन समुदाय कि भाषा थी, सारे देश को जोड़ने वाली थी अपनी सामर्थ्य, सम्मान और प्रसार को नहीं पा सकी और उसके साथ ही हिंदी भाषी जन भी उपेक्षा के शिकार हुए. भाषा के प्रति कामचलाऊ नजरिये ने लगातार समाज को देश की पहचान करने, उसके साथ जुड़ने और संस्कृति के प्रवाह में शामिल होने, भारत भाव को अपनाने की दृष्टि से कमजोर किया.
भाषा को लेकर भेद-भाव का विषय उलझता गया और राजनीति के स्वार्थ के बीच भारतीय भाषाएँ अँग्रेजी की तुलना में न केवल अधिकारहीन होती गईं बल्कि आपस में भी उलझ गईं . शिक्षा के माध्यम के सवाल को मुल्तबी रखा गया और अंग्रेजी के वर्चस्व को अक्षुण्ण रखा गया. ज्ञान, विज्ञान, नीति आदि के क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं में विचार दृष्टि से की क्षमता बढाने की कोशिशें सतही बनी रहीं . इन सब चुनौतियों के बावजूद हिंदी की चेतना विस्तृत होती रही .
आज हिंदी की भूमिका ज्ञान, कला-कौशल और सामाजिक जीवन के संयोजन आदि में कितनी प्रभावी है यह सुविदित है. उसे रेखांकित करने के लिए भारत और विदेश में अनेक स्तरों पर प्रयास चलते रहे. अनेक प्रकार के उपक्रम राष्ट्रीय स्तर पर होते रहे. हिंदी के व्यापक परिदृश्य को आकार देते हुए विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन एक केंद्रीय घटना के रूप में उभरा. इसकी जीवन यात्रा वर्ष 1975 में नागपुर, भारत में आरंभ हुई थी जब श्री अनंत गोपाल शेवड़े की संकल्पना सफल हुई. तब इस आयोजन में मारिशस के यशस्वी जननायक सर शिव सागर राम गुलाम और भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी भी ने भी शिरकत की थी.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्दों में राष्ट्र भाषा के अभाव में गूंगा राष्ट्र स्वतंत्रता और स्वाधीनता के स्वप्न को साकार नहीं कर सकता. विश्व में अनेक देशों का अनुभव यही संकेत देता है कि देश की अखण्डता, एकता, समृद्धि और गतिशीलता सब के मूल में भाषा की शक्ति काम करती है. न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और नागरिक जीवन के क्षेत्रों में स्वभाषा से ही जन-जीवन सुखी हो सकेगा और भाषाओं के बीच सौहार्द से ही अमृत काल का संकल्प देश को समृद्धि के पथ पर आगे ले जा सकेगा.
11वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन मारीशस की धरती पर आयोजित हुआ था. इस बीच की अवधि वैश्विक स्तर पर अनेक परिवर्तनों की साक्षी रही है. आर्थिक–राजनैतिक मोर्चों पर नए समीकरण उभरे हैं और सहयोग के नए आयाम भी उद्घाटित हुए हैं. हिंदी की वैश्विक उपस्थिति को संबर्धित करने के लिए हिंदी का विश्व सचिवालय भी मारीशस में स्थापित हुआ . अनेक देशों से ई-पत्रिकाएँ और उनके मुद्रित संस्करण भी आ रहे हैं जो हिंदी प्रेमी जनों द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उत्साहपूर्वक प्रकाशित की जा रही हैं. हिंदी के बाजार का भी विस्तार हो रहा है और विदेश की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी हिंदी कि इस क्षमता को पहचान रही हैं. इस दृष्टि से दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देशों ने विशेष रुचि ली है. भारत की संस्कृति में अनेक देशों कि रुचि बढ़ी है. भारत वंशी जनों वाले फिजी, त्रिनिडाड, गुयाना, मारीशस, सूरीनाम और दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भी हिंदी के प्रति रुझान बढ़ा है.
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद ने विदेशों में अनेक हिंदी पीठों की स्थापना कर भारतीय संस्कृति और हिंदी के अध्ययन को प्रोत्साहित किया है. भारतीय राजनय में प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व में हिंदी का प्रयोग बढ़ा है. अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वे भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हिंदी में अपनी बात रखते हैं. विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने अपने कार्यकाल में विदेश मंत्रालय के कार्य-कलाप में हिंदी के उपयोग को प्रोत्साहित–संवर्धित किया था. उनके अथक प्रयास से हिंदी की देश और विदेश में सशक्त छवि का निर्माण हुआ. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग की देख-रेख में केंद्रीय हिंदी निदेशालय, अनुवाद ब्यूरो, केंद्रीय हिंदी संस्थान तथा हिंदी प्रशिक्षण केंद्र आदि अनेक उपक्रम संचालित हैं जो हिंदी के सरकारी क्षेत्र में उपयोग को सक्षम बनाने का काम कर रहे हैं. हिंदी विश्व सम्मेलन के संकल्प के परिणामस्वरूप वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय भी वर्ष 1997 में स्थापित हुआ जो हिंदी को ज्ञान की भाषा और संस्कृति की संवाहिका के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है.
ब्लॉग, फेस बुक, वाट्सएप, ट्विटर और ई-पत्रिका जैसे किस्म-किस्म के सोशल माध्यम अभिव्यक्ति के साहित्यिक और गैर साहित्यिक ‘फार्म’ में सीधी पैठ कर रहे हैं. अनुवाद के साफ्ट वेयर भाषांतर को सुगम बना रहे हैं. रचना और उसके पाठक के बीच का अंतराल घटता जा रहा है. कभी प्रकाशन की प्रक्रिया बड़ी थकाऊ, उलझाऊ और कई तरह से दुखी करने वाली हुआ करती थी और प्रकाशन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती थी.
चूंकि देश काल स्थिर नहीं रहते इसलिए भाषा का मानवीय उद्यम अनेक रूप लेता रहता है. जीवन-व्यापार में बदलाव आने के साथ-साथ भाषा की भूमिका में भी अनिवार्य रूप से बदलाव आता है. अतः समय बीतने के साथ संचार तकनीक में जो परिवर्तन हुआ उसके अंतर्गत भाषा के भी कई संस्करण होते गए. भाषिक उत्पादों की वाचिक से हस्तलिखित, फिर मुद्रित और अब डिजिटल प्रस्तुति ने न केवल उनके संकलन और संग्रह के उपायों को बदला है बल्कि उसी के साथ भाषा-प्रयोग के रूप भी चमत्कारी रूप से बदले हैं. संवाद भी दृश्य और श्रव्य विधाओं के अनेक रूपों में उपलब्ध होने लगा. सम्प्रेषण की प्रौद्योगिकी में हो रहे क्रांतिकारी बदलाव भाषा के साथ हमारे दैनंदिन बर्ताव को तेजी से बदल रहा है. इस बदलाव से साहित्य भी अछूता नहीं रहा.
ब्लॉग, फेस बुक, वाट्सएप, ट्विटर और ई-पत्रिका जैसे किस्म-किस्म के सोशल माध्यम अभिव्यक्ति के साहित्यिक और गैर साहित्यिक ‘फार्म’ में सीधी पैठ कर रहे हैं. अनुवाद के साफ्ट वेयर भाषांतर को सुगम बना रहे हैं. रचना और उसके पाठक के बीच का अंतराल घटता जा रहा है. कभी प्रकाशन की प्रक्रिया बड़ी थकाऊ, उलझाऊ और कई तरह से दुखी करने वाली हुआ करती थी और प्रकाशन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती थी. अब रचनाकर और पाठक के बीच का रिश्ता तात्कालिक हुआ जा रहा है. यह परिदृश्य आकर्षक और विकर्षक दोनों ही प्रकार का है. रचना में त्वरा के अपने खतरे हैं पर आज के समय का यथार्थ कुछ ऐसा ही हुआ जा रहा है.
भाषा-व्यवहार के अनेक आयामों में परिवर्तन आ रहा है. साथ ही भाषा के प्रति गैर जिम्मेदार रवैया भाषा-लोप की चुनौती भी खडा करने वाला है. आज स्वदेशी और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में मुखर रूप से विचार किया जा रहा है. यह उद्यम देश को सशक्त बना सके इसके लिए देश को उसकी भाषा लौटाने की जरूरत है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्दों में राष्ट्र भाषा के अभाव में गूंगा राष्ट्र स्वतंत्रता और स्वाधीनता के स्वप्न को साकार नहीं कर सकता. विश्व में अनेक देशों का अनुभव यही संकेत देता है कि देश की अखण्डता, एकता, समृद्धि और गतिशीलता सब के मूल में भाषा की शक्ति काम करती है. न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और नागरिक जीवन के क्षेत्रों में स्वभाषा से ही जन-जीवन सुखी हो सकेगा और भाषाओं के बीच सौहार्द से ही अमृत काल का संकल्प देश को समृद्धि के पथ पर आगे ले जा सकेगा.