जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा भाग-1
- सुनीता भट्ट पैन्यूली
वर्तमान की मंजूषा में सहेजकर रखी गयी स्मृतियां अगर उघाड़ी जायें तो वे पुनरावृत्ति हैं उन अनुभवों को तराशने हेतु जो तुर्श भी हो सकती हैं, मीठी भी या फिर दोनों… यक़ीनन कुछ न कुछ हासिल हो ही जाता है इन स्मृतियों के सफ़र के दौरान कुछ खोने के बावजूद भी, चाहे उस यात्रा का हासिल आत्मविश्वासी बनना हो, निर्भीक हो जाना हो या स्वयं के अस्तित्व को खोजना हो या फिर लौह हो जाना हो वक्त के हथौड़े से चोट खाकर.
प्रेम
स्त्री जीवन में कुछ अर्थ और सौंदर्य हों
तभी उसके जीवन में एक उत्साह और नयापन बना रहता है. सौंदर्य से अभिप्राय आत्ममुग्धता या भौतिकवादिता नहीं वरन कुछ उसके मन का गुप-चुप कुलांचे मारता रूहानी संगीत है जिसकी धुन व लय पर उसके पैर थिरकें या एक नीला विस्तीर्ण नीरभ्र आकाश जिस पर वह सिर्फ़ अपने अन्वेषण और हुनर की कूंची से अपने स्वप्नों की चित्रकारी करे किसी सौंदर्य बोध को परखने वाले चितेरे की तरह.की
एक मीठा मालपुआ-सी होती है स्त्री, जिसे प्रेम की मीठी चाशनी में डूबोओ तो हल्की होकर सतह पर तैरने लगती है और फिर… जो मर्जी़ कुछ भी अपने मन का करवा लो उससे.
क्या चाहिए उसे बित्ती भर आकाश अपनी परवाज़ भरने के लिए. बालिश्त भर सेहन अपने मन के संगीत पर थिरकने के लिए किंतु इन सुक्ष्म नपी-तुली अभीष्ट के बावज़ूद भी ज़मींदोज़ होकर रह जाते हैं स्त्रियों के स्वपन्न कहीं.
मीठी
एक मीठा मालपुआ-सी होती है स्त्री, जिसे प्रेम की मीठी चाशनी में डूबोओ तो हल्की होकर सतह पर तैरने लगती है और फिर… जो मर्जी़ कुछ भी अपने मन का करवा लो उससे. क्या
चाहिए उसे बित्ती भर आकाश अपनी परवाज़ भरने के लिए. बालिश्त भर सेहन अपने मन के संगीत पर थिरकने के लिए किंतु इन सुक्ष्म नपी-तुली अभीष्ट के बावज़ूद भी ज़मींदोज़ होकर रह जाते हैं स्त्रियों के स्वपन्न कहीं.चाशनी
सौभाग्यकांक्षीणी थी मैं कि मुझे अपने स्वप्नो की टपरी पर पहुंचकर महत्त्वकांक्षा की पताका फहराने के लिए किसी भी हालात से समझौता नहीं करना पड़ा. थोड़ी हार-मनोहार
और अपनी बात तर्क के साथ रखने पर पति और परिवार से स्वीकृति मिल गयी और मुझे अपने मन के नीलाभ आकाश में परवाज़ भरने के लिए पंख. घर, गृहस्थी परिवार बच्चों को लादे जीवन की रेलगाड़ी में एक डिब्बा और जुड़ गया जिसमें मेरा सपना भी सफऱ करने लगा. एक ही लय में तान भरती ज़िंदगी में एक नया सुर जुड़ा और मैं तैयार हो गयी अपनी अलग राह पकड़ने के लिए.मुझे
मैं उसकी उपलब्धि
से बहुत प्रभावित हुई. एक दिन बातों ही बातों में उसने कहा, दी तू भी क्यों नहीं करती है इसी विषय पर एम.बी.ए.? मैंने मन मसोस कर कहा, कहां कर पाऊंगी? लेकिन उसके बहुत ज़ोर देने पर मेरे मन से भी उम्मीदों के शरारे छूटने लगे.
अपने
अंग्रेजी विषय में एम.ए. किया
और पास करते ही शादी हो गयी, दिन मधुमास से फलते-फूलते गुजर रहे थे, दो प्यारी बेटियों की मां भी बन गयी. समय अभी पंख लगाकर उड़ा भी नहीं था कि पारिवारिक जीवन की एकरसता से कहीं न कहीं कुंठा उपजने लगी, महसूस हो रहा था कि मानो मेरा कुछ है शायद जो कहीं बहुत पीछे छूट गया… मन में जिज्ञासा पनपने लगी फिर से उस छूटे हुए को पाने की… किंतु क्या पुनः समेट पाऊंगी अपने छितरे हुए अस्तित्व को घर गृहस्थी के पाटों के मध्य? उत्कंठा यूं ही नहीं जन्म ले रही थी, दिलो-दिमाग पर मेरे… किसी भी परिणति तक पहुंचने के लिए कोई न कोई आईना कारक होता है प्रतिबिंब दिखाने के लिए.पढ़ें— जब एक रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए धर लिया था शिला रूप!
स्वप्न
मेरी छोटी बहन ने प्रथम श्रेणी में एम.बी.ए (HRD) किया और उसे एक बड़ी कंपनी जॉब भी मिल गई. मैं उसकी उपलब्धि से बहुत प्रभावित हुई. एक दिन बातों ही बातों में उसने कहा,
दी तू भी क्यों नहीं करती है इसी विषय पर एम.बी.ए.? मैंने मन मसोस कर कहा, कहां कर पाऊंगी? लेकिन उसके बहुत ज़ोर देने पर मेरे मन से भी उम्मीदों के शरारे छूटने लगे. दो या तीन दिन का समय लेने के उपरांत मैंन बहन को रूड़की फोन लगाया और कोर्स के वाबस्ता सारी जानकारी हासिल की और अंतत: PGDHRD Post Graduate Diploma in Human resources Development Management (PGDHRD) कोर्स के आवेदन के लिए मैंने अपना मन बना लिया, जो मुझे मेरी रूचि के लिए अनूकूल महसूस हुआ.की
जिस कालेज से मैं PGDHRD करने वाली थी
उस कालेज का नाम जे.वी. जैन स्नाकोत्तर महाविद्यालय, सहारनपुर था असल में कोर्स का प्रबंधन और परीक्षायें यह कालेज करा रहा था किंतु डिग्री U.P. Rajarshi Tandon Open University Allahabad द्वारा प्रदान की जानी थी.टपरी
कोर्स के शुभारंभ की पहली घटना यह घटी कि
सबसे पहले मैंने छोटी बहन से फोन नंबर लेकर PGDHRD के हेड आफ द डिपार्टमेंट से बात कर एडमिशन से संबंधित जानकारी और कालेज के बंद और खुलने के समय के बारे में पूछा सभी जानकारी उन्होंने यथोचित मुहैया करायीं फोन पर और सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने पर एक मौन सी उलझन दोबारा से पढ़ने की जो हावी थी दिलो-दिमाग पर आजकल लगा कम होती जा रही थी धीरे-धीरे.रिक्शा
एक दिन पहले अजीब-सी असमंजस में थी मैं मन में कहीं अजीब से डर के बादल फेफड़ों में इधर-उधर तैर रहे थे… काम में सही से हाथ नहीं लग रहा था कि ओखल में सिर तो
दे दिया है कर पाऊंगी या नहीं? कठिन होगा तो? पढ़ना भी तो पड़ेगा? और बच्चे, घर का काम कैसे व्यवस्थित होगा? प्रश्न पर प्रश्न कूद-कूद कर दोबारा पढ़ने के जोश में आजकल हरे-भरे हो गये दिमाग में तबाही मचा रहे थे…
रिक्शा
अब कालेज के हेड आफ द डिपार्टमेंट की सकारात्मक प्रतिक्रिया का नतीजा यह रहा कि तुरंत बात की फोन पर छोटी बहन से और हम दोनों ने निश्चित किया कि बहन रूड़की से आयेगी
और मैं देहरादून से और हम दोनों सहारनपुर के बस अड्डे पर मिलेंगे. और फिर यहां से शुरू हुई मेरी सकुचाहट और जोश समिश्रित अपने स्वप्नों को मूर्तरूप देने के लिए मेरे अपने मन की मेरी ही जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा…रिक्शा
पढ़ें— ग़म-ए-ज़िदगी तेरी राह में
जैसा कि तय हुआ था कल सुबह साढ़े दस और ग्यारह बजे के बीच सहारनपुर बस अडडे में छोटी बहन और मेरे मिलने का. एक दिन पहले अजीब-सी असमंजस में थी मैं
मन में कहीं अजीब से डर के बादल फेफड़ों में इधर-उधर तैर रहे थे… काम में सही से हाथ नहीं लग रहा था कि ओखल में सिर तो दे दिया है कर पाऊंगी या नहीं? कठिन होगा तो? पढ़ना भी तो पड़ेगा? और बच्चे, घर का काम कैसे व्यवस्थित होगा? प्रश्न पर प्रश्न कूद-कूद कर दोबारा पढ़ने के जोश में आजकल हरे-भरे हो गये दिमाग में तबाही मचा रहे थे, इसी उहापोह में छोटी बहन को फिर फोन किया… उसने फिर मुझमें उत्साह और आत्मविश्वास जगाया और इसबार मैं कृतसंकल्प हो गयी कि नहीं चाहे कुछ भी हो मुझे आगे पढ़ना है एक और डिग्री लेनी है.पर
सुबह क्योंकि सहारनपुर के लिए निकलना था इसलिए सब्जी रात ही काटकर रख दी, राजमा भिगोकर भी रख दिये क्योंकि दुपहर के खाने तक की व्यवस्था करके जाना था, आटा भी
मलकर रख दिया और फिर आश्वस्त होकर सोने चली गयी नींद कहां थी मेरी आंखों में..? सिर्फ़ स्वप्नों के दीप जैसे जलते-बुझते रहे थे मेरी आंखों में रात भर… पांच बजे का अलार्म बजने के साथ ही आंखें खुलीं और सुनाई दिया भोर के अंधेरे में कर्णों में मधूप घोलता सिख जत्थे का मानो मुझसे दूर-दूर जाता हुआ भजन, कीर्तन…पहुंचकर
एक जोश और सकारात्मक अनूभूति सरसरा गयी थी मेरी शिराओं में, बच्चों को उठाया उन्हें स्कूल जाने के लिए टिफिन तैयार किया और घर के अन्य सदस्यों के लिए नाश्ते की व्यवस्था से लेकर
सभी के लिए लंच तक की व्यवस्था करने के उपरांत… सभी ज़िम्मेदारियों से फ़ारिग होकर अपने बैग में पहले से तैयार किये हुए एडमिशन से संबंधित सारे डाक्युमेंटस व कुछ खाली पेपर, पैन भी बैग में रख लिए थे. अंत: बच्चों को स्कूल भिजवाने के बाद घर में इतला देकर गेट खोलकर मैं सीधी तेज हवा की माफ़िक सरपट निकल पड़ी घर के पीछे पतली संकरी गली की ओर विक्रम पकड़ने आई.एस.बी.टी जाने के लिए…इतला
ख़ैर… बस चलनी शुरू
हुई क्लेमन टाऊन से आगे पेड़ों के झुरमुट के बीच में से होकर गुज़रती गीली सर्पीली सड़क पर दौड़ती टनल से होती हुई, डाटकाली से होकर बस हरे-भरे पेड़ों से लकदक पहाड़ों की कमर में रास्ता बनाकर घने जंगल से गुजर रही थी बीच-बीच में गुर्जरों के मनोरम डेरे, हरी-भरी घास चरते मवेशी, महिलाएं डेरों में घुसती-निकलती दिखाई दे रही थीं.
देकर
आई.एस.बी.टी से झट बस मिल गयी सहारनपुर के लिए फूली नहीं समा रही थी मैं इतना कार्य अपने बूते करने पर, ख़ैर… बस चलनी शुरू हुई क्लेमन टाऊन से आगे पेड़ों के
झुरमुट के बीच में से होकर गुज़रती गीली सर्पीली सड़क पर दौड़ती टनल से होती हुई, डाटकाली से होकर बस हरे-भरे पेड़ों से लकदक पहाड़ों की कमर में रास्ता बनाकर घने जंगल से गुजर रही थी बीच-बीच में गुर्जरों के मनोरम डेरे, हरी-भरी घास चरते मवेशी, महिलाएं डेरों में घुसती-निकलती दिखाई दे रही थीं. यहां एक बात कह रही हूं आप सभी से…गेट
एक रात पहले और सुबह भी ट्रैवल सिकनेस की दवा खाई है शायद इसीलिए सफ़र से बातें कर पा रही हूं इस उम्मीद में कि लगता है दोबारा से कालेज जाने का सफ़र ठीक ही रहेगा.
(लेकिन अभी यह संस्मरण लिखते हुए मुझे फिर से ट्रैवल सिकनेस हो रही है उस बस का सफर याद करते हुए आप जान सकते हैं इतना फोबिया है मुझे) हरे भरे मोड़ों और पहाड़ों को पार कर बस सीधी सपाट सड़क पर पहुंच गयी है क्योंकि बरसात का मौसम है हवा में नमी और चिपचिपाहट है और बस ने भी तेज रफ़्तार पकड़ ली है बस की गड़गड़ाहट में दिमाग के पेंच-पुर्जे भी हिल गये हैं.खोलकर
रिक्शा चल रहा था हम दोनों बातों में मशग़ूल थे सहसा रेलवे क्रासिंग से पहले या बाद में याद नहीं ठीक से रिक्शा वाले ने उतरने को कहा क्योंकि वहां पर चढ़ाई थी
और जैसा कि हम देख रहे थे अपने आस-पास सभी रिक्शा वाले ऐसा ही कर रहे थे थोड़ा चढ़ाई को पार कर हम रिक्शे में दोबारा बैठ गये और रिक्शा यथावत दौड़ने लगा हमारे गंतव्य की ओर..
मैं
बगल की सीट में बैठी
आंटी से यूं ही औपचारिक बात हुई उन्हें भी मैंने आरेंज टाफी खाने को दी, पूछने पर पता चला कि वह अपने मायके जा रही हैं सहारनपुर उन्होंने जब मुझसे मेरी वजह पूछी सहारनपुर जाने की तो वह रोक न सकीं स्वयं को यह कहने से कि बेटे देहरादून से सहारनपुर आने की क्या ज़रूरत पड़ गयी वहीं कुछ कर लिया होता..? जवाब देते नहीं बन पड़ा मुझसे…, कैसे कहती आंटी मेरा जुनून कहां मेरे दिमाग के नियंत्रण में था?सीधी
बस तेज़ रफ़्तार के बाद
धीमी-धीमी गति पकड़ती हुई अमरुद की ठेलियों, भुट्टे ले लो, कच्चे नारियल ले लो की आवाजों के बीच से गुजरती हुई बस सहारनपुर बस अड्डे पर पहुंच गयी थी, सिर में दर्द हो रहा था और निगाहें बहन को ढूंढने लगीं सहसा बहन एक किनारे छतरी ओढ़े खड़ी मुझे देखकर मुस्करा रही थी और मैं गौरवान्वित महसूस कर रही थी स्वयं पर अपने लक्ष्य के पहले पड़ाव पर विजय हासिल करने पर क्योंकि मैं अकेले अपने बलबूते सहारनपुर जो पहुंच गयी थी.पढ़ें— लकड़ी जो लकड़ी को “फोड़ने” में सहारा देती
तेज हवा
बस से उतरकर हम
दोनों ने बातें की और मुत्तवज़ेह हुए रिक्शा पकड़कर कालेज की ओर हल्की बारिश की फुहारें भा रही थीं मुझे… रिक्शा चल रहा था हम दोनों बातों में मशग़ूल थे सहसा रेलवे क्रासिंग से पहले या बाद में याद नहीं ठीक से रिक्शा वाले ने उतरने को कहा क्योंकि वहां पर चढ़ाई थी और जैसा कि हम देख रहे थे अपने आस-पास सभी रिक्शा वाले ऐसा ही कर रहे थे थोड़ा चढ़ाई को पार कर हम रिक्शे में दोबारा बैठ गये और रिक्शा यथावत दौड़ने लगा हमारे गंतव्य की ओर..क्रमश:
(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)