मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—53
- प्रकाश उप्रेती
पहाड़ में पानी और ‘नौह’ की
बात मैंने पहले भी की है लेकिन आज उस नोह की बात जिसे मैंने डब-ड़बा कर छलकते हुए देखा है. उसके बाद गिलास से पानी भरते हुए और कई सालों से बूँद-बूँद के लिए तरसते हुए भी देखा है.पहाड़
ये हमारे छोटे से गाँव का इकलौता नौह था.
इसके बारे में तब कहा जाता था कि “सब जग पाणी बिसिक ले जालो, खोपड़ी नौह हन तो मिलोले” (अगर सब जगह पानी सूख भी जाएगा तो खोपड़ा वालों के नौह में तो मिलेगा ही). अब इसे दुर्भाग्य कहिए या सौभाग्य कि उस इलाके में सबसे पहले इसी नौह का पानी सूखा. एक बार सूखा तो फिर कभी लौटा भी नहीं.पानी
तब पानी लाने के लिए शाम में ही जाना होता था.
ईजा घास लेने जाते हुए कहा करती थीं- “आज दी गगर भरि दिये हां पाणिल” (आज पानी से दो गगरी भर देना). हम तुरंत हाँ..हाँ..कह देते थे. शाम को एक “हलाम” (कुछ काम) करना होता था तो हमारा यही हलाम होता था.रंग
मैं, तब प्राथमिक इस्कूल में दूसरे या तीसरे दर्जे में पढ़ता था. नोह से 5 लीटर पानी लाने लायक ताकत थी. वह भी 3
जगह पर “बिसा-बिसा” (सुस्ताना) के. नौह से पानी भरने के बाद पहला ‘बिसोंण खुडगु” (आराम का पहला पड़ाव इस जगह), दूसरा ‘पाटेई’ और तीसरा “फ़नेखेतक पटोम” होता था. तब जाकर वो 5 लीटर पानी घर पहुँचता था.लाल
एक लाल रंग का छोटा सा हैंडल वाला वो डब्बा था. उस डब्बे के हैंडल पर मैंने एक लंबी सी डोर बांध रखी थी. डोर भी ईजा की पुरानी धोती का किनारा था. नौह जाते हुए मैं उस डोर को गले में डाल लेता
और डब्बे को एक डंडे से “फतोड़ते” (बजाते) हुए जाता था. एक तरह से बैंड बजाते हुए. ईजा कई बार कहती थीं- “अरे यो डब्बी फतोड़ने न जा” (डब्बा बजाते हुए मत जा) लेकिन ये कभी हम मानते ही नहीं थे. नौह जाते हुए डब्बा बिना फतोडे जा ही नहीं सकते थे. एक आदत सी बन चुकी थी. गाँव के सभी बच्चों का यही हाल था.एक
काम दो गगरी भरने का मिला होता था. मतलब
नोह से 7 “घात” (7 बार) पानी लाना होता था. 15 लीटर की 2 गगरी में 6 घात और एक डब्बा भरके रखना होता था. गर्मियों के दिनों में शाम को 5 बजे से ही पानी भरने लग जाते थे. तब जाकर कहीं 7 बजे तक भर पाते थे. वह भी थक गया-थक गया कहते हुए.
स्यर
तब अपना ये नौह पूरा ऊपर तक भरा रहता था. पानी बहता रहता था. हमारे नौह का पानी ऊपर ‘स्यर वाले गधेरे’ से आता था. स्यर के ऊपर-ऊपर भी बहुत पानी बहता था . नौह का पानी जमीन के अंदर से आता था.
हर ऋतु और मौसम में ये अंदर-अंदर से पानी चलता रहता था. कभी सूखता और रुकता नहीं था.मंदिरनुमा
नौह का पूरा डिजाइन कुछ मंदिरनुमा होता था. उसकी छत में एक खिसकने वाला पत्थर लगाया जाता था. उस पत्थर को खिसकाने पर नौह के अंदर धूप की किरणें आती थीं.
नौह एकदम साफ रहता था लेकिन पानी में नीचे छोटी-छोटी मछली और “ग्याज” (केकड़े) रहते थे. केकड़े अक्सर दिखाई देते थे लेकिन जैसे ही थोड़ा हलचल होती तो वो पत्थरों के अंदर छुप जाते थे.
नौह
ईजा बताती थीं कि पहले हमारा नौह अब जहाँ है उसके 6 हाथ इधर हुआ करता था. उस नोह का पानी किसी के श्राप से सूख गया था. बाद में उसके थोड़ा दूर ही यह पानी की ‘शिर’
(जमीन के अंदर से अपने आप फूटता पानी) मिल गई थी. तब सभी गाँव वालों ने मिलकर वहाँ पर खोदा और पत्थरों से नौह को आकार दिया. उसके आगे नहाने और कपड़े धोने के लिए ‘खोई’ (दीवार) भी बनाई थी. नोह के अंदर दो ‘जोअ’ (ऐसी जगह जहाँ पर कुछ रखा जा सकता है) भी थे. हम पानी भरते हुए जोह में ढक्कन खोल कर रख देते थे. कभी-कभी साबुन रखने का ठिकाना भी जोह होता था.डिजाइन
नौह का पूरा डिजाइन कुछ मंदिरनुमा होता था. उसकी छत में एक खिसकने वाला पत्थर लगाया जाता था. उस पत्थर को खिसकाने पर नौह के अंदर धूप की किरणें आती थीं. नौह एकदम साफ
रहता था लेकिन पानी में नीचे छोटी-छोटी मछली और “ग्याज” (केकड़े) रहते थे. केकड़े अक्सर दिखाई देते थे लेकिन जैसे ही थोड़ा हलचल होती तो वो पत्थरों के अंदर छुप जाते थे.मिट्टी
इन सबके होते हुए भी नौह का पानी हमेशा ठंडा रहता था.
प्यास नौह के पानी से ही बुझती थी. कभी-कभी भ्योव से आँवला खाकर आने के बाद नौह का पानी पी लेते थे तो वो मीठा लगता था. हम तब कहते थे-“हमर नौह पाणी मिठ हमों”(हमारे नौह का पानी मीठा हो रहा है). परंतु यह मीठापन वक्त के साथ बचा नहीं रहा.कैमरा
मिट्टी और पत्थर के बने नौह पर सरकारी स्कीम के
तहत एक दिन सीमेंट लगने की योजना आ गई. कहा गया कि नौह का उद्धार कर रहे हैं. सीमेंट लग जाने से नौह बढ़िया हो जाएगा और छत में तो उसके बैठ भी सकते हो. चाहो तो दरवाजा भी लगा लेना. यह सब सुनकर हम एकदम खुश थे.
एकदम
अब नौह एकदम ‘बिसिक’ (सूख) गया था. एक बूँद पानी नहीं. सब फिर बिनोली नौह से पानी लाने लगे थे. वह सीमेंट से बचा हुआ था. इसलिए उसमें तब भी पानी था और
आज भी पानी है. अब ईजा वहीं से पानी लाती हैं. वह हमारे नौह से दोगुना दूर है. जिस नौह को कभी “छलछलान” देखा था आज वही “खुण-खुण” (एकदम खाली) है. नौह और गाँव की अब यही नियति है कि दोनों खुण-खुण” हैं….
खच्चर
कुछ दिनों में खच्चर से रोड़ी, बजरी और सीमेंट नौह पहुँच गया.
सब इसको देख रहे थे. ठेकेदार जल्दी-जल्दी काम करवाने पर लगा था. 3 से 4 दिन में नौह के अंदर-बाहर, नीचे-ऊपर सब जगह सीमेंट लग गया था. लेंटर वाली छत बन गई थी. छत ठीक-ठाक चौड़ी थी. जब नौह बन रहा था तो हम एक-दो दिन बिनोली नौह से ही पानी लाए. वो हमारे नौह से थोड़ा और दूर था. सीमेंट के नौह वाले सपने के लिए हम ये कष्ट भी खुशी-खुशी सह रहे थे. इस बात से अनजान कि कुछ दिनों बाद यह स्थायी कष्ट होने वाला है.अनजान
नौह अब “सिमांटेट नौह” (सीमेंट वाला नौह) हो गया था. हम जब भी नौह जाते तो उसकी छत पर ही बैठे रहते थे.
कभी-कभी छत पर बाघ-बकरी भी खेला करते थे. नौह देखने में आकर्षक लग रहा था लेकिन उसका आकार डरावना लगता था. पत्थर वाले नौह सा अपनापन इससे नहीं जुड़ पा रहा था. अकेले नौह जाने में पहले भी डर लगता था लेकिन अब तो और ज्यादा लगने लगा था. नौह के अंदर न अब केकड़े थे और न छोटी मछलियाँ थीं. बस पानी था जो दिनों-दिन एक-एक सीढ़ी नीचे जाते जा रहा था.डब्बा
उस सर्दी भर नौह में पानी रहा लेकिन
गर्मी आते-आते पानी सूखने लगा. कुछ दिन गिलास से पानी निकालते हुए कहीं 20 मिनट में 5 लीटर का डब्बा भर पाता था. रात से लेकर सुबह तक मुश्किल से 2 या 3 गगरी पानी जमा हो पाता था. ईजा सुबह के कभी 3 तो कभी 4 बजे पानी लेने चले जाती थीं ताकि पानी मिल जाए. ऐसा सभी गांव वाले भी करते थे. उस साल पानी की इतनी क़िल्लत हो गई कि एक डब्बा पानी भरने के लिए 2-2 घंटा खड़े रहना पड़ता था.पानी
धीरे-धीरे उतना भी पानी आना बंद हो गया था.
अब नौह एकदम ‘बिसिक’ (सूख) गया था. एक बूँद पानी नहीं. सब फिर बिनोली नौह से पानी लाने लगे थे. वह सीमेंट से बचा हुआ था. इसलिए उसमें तब भी पानी था और आज भी पानी है. अब ईजा वहीं से पानी लाती हैं. वह हमारे नौह से दोगुना दूर है. जिस नौह को कभी “छलछलान” देखा था आज वही “खुण-खुण” (एकदम खाली) है. नौह और गाँव की अब यही नियति है कि दोनों खुण-खुण” हैं….(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)