- डॉक्टर दीपशिखा जोशी
माँ तुम ने विदाई के समय गले लगा बोला था, जा बिटिया वहाँ तुझे मिलेगी दूसरी माँ. मुझ में और उन में कभी अंतर ना करना. जा बिट्टो तुझे कभी ना खलेगी मेरी कमी, ना आएगी याद! कुछ समय लगेगा ज़रूर, मगर तू निभा लेगी मुझे पता है. मैं भी एक दिन ऐसे ही आयी थी तेरी नानी के घर से. यही रिवाज है बिटिया! हमेशा ख़ुश रहना कह तूने अपने आंसू पोंछे थे. मुझे तो रोना आया ही नहीं माँ उस दिन. मुझे लगा तू सच बोलती होगी! मैं तो ख़ुशी-ख़ुशी तेरे दिखाए सपने देख हवा में उड़ी जा रही थी. जैसे तू मुझे हमेशा परियों की कहानियां सुनाती, जैसे दिखाती थी मंगल ग्रह पर कैसे होता होगा जीवन, बताती थी बहुत काल्पनिक किस्से मुझे प्रेरणा देने को. माँ मैंने सब सच माना. तेरी हर सीख मेरे जीवन के उसूल बन गयी. तू मेरी माँ, बहन, सहेली सबकुछ थी! जब तक थी मैं तेरे आँचल के नीचे मुझे कभी ज़िम्मेदारियों, समस्याओं, डर और वास्तविकता का अहसास ही ना हुआ.
माँ अब मैं बोलूंगी, हां माँ तू झूठी है! अब पता चला तू क्यूं रोयी थी उस दिन. तुझे पता तो था कि अब सब बदल जाएगा, कि तेरे झूठ, पकड़े जाएंगे जल्दी ही.
मैं बेलती थी रोटी, माँ तू सेंकती. और इस बीच करते थे हम कितने राज सांझा. कितनी नयी रेसेपी ट्राई की थी हमने साथ में. तू मुझे कभी गर्म तेल में तलने का काम ना देती, डरती थी कि जले ना कहीं थोड़ा भी.
हाँ तूने झूठ बोला माँ! यहां तेरे जैसा कोई नहीं, सच में कोई नहीं! यहां जब निकलती हूं मैं तैयार हो घर से, बाहर तेरी तरह कान के पीछे छिपाकर कोई काला टीका नहीं लगाता. आऊं मैं जब किसी पार्टी से घर तो कोई नज़र नहीं उतारता!
तेरी तरह माँ चिल्ला, बड़बड़ा, डांट-डपट, बिस्तर खींच कोई सुबह जल्दी नहीं उठाता, कोई जल्दी सोजा की रट भी नहीं लगाता. सवेरे की चाय और रात दूध का कप अब बिस्तर पर नहीं मिलता.
मैं बेलती थी रोटी, माँ तू सेंकती. और इस बीच करते थे हम कितने राज सांझा. कितनी नयी रेसेपी ट्राई की थी हमने साथ में. तू मुझे कभी गर्म तेल में तलने का काम ना देती, डरती थी कि जले ना कहीं थोड़ा भी.
माँ कैसे तुझे टीवी में क्रिकेट देखना होता था और मुझे मूवी, रोज़ झगड़ते थे हम. हम साथ बैठ देखते थे रीएलिटी शोज़. कैसे तू अपने फ़ेवरेट के लिए करवाती थी ना मुझ से वोट, और मैं पटाती थी आपको अपने वाले के लिए.
मैं तुझे पढ़ रहे नोवेल का रोज़ सुनाती थी सार, जब मैं पढ़ ना पाऊं किसी कारण,तू आगे जानने को कैसे रहती थी बेचैन. तब मैं उसकी हिंदी ट्रान्सलेट कॉपी मंगा देती थी तुझे, तू हमेशा मुझ से पहले वो पढ़ लेती!
याद है ना माँ, जब छोटी थी मैं, एक दिन कितनी ज़ोर से, ग़ुस्से में मारा था तूने थप्पड मुझे, फिर ज़ोर से सीने से चिपका 15 मिनट तक रोए थे हम दोनों! फिर खिलाया था तूने मुझे मेरी पसंद का खाना बना प्यार से!
माँ यहां रात को उठ कोई मेरे कमरे में लाइट खुली तो ना रह गयी चेक नहीं करता. कोई सर्दियों में तेरी तरह सलीक़े से रज़ाई ओढ़ा, मेरा चश्मा उतार, बिस्तर में फैली मेरी किताबें, फ़ाइल संभाल ना जाता.
माँ हम कैसे जाते थे ना शॉपिंग करने, फिर खा के आते थे, गोल-गप्पे, आलू-टिक्की! माँ तुम कहती थी मेरा मन नहीं फिर हमेशा मुझ से 2-4 ज़्यादा ही खाती थी और मेरे गिनते रह बोलती थी. अब बस कर, ज़्यादा जंक-फ़ूड अच्छा नहीं, और मैं बस लास्ट, बस लास्ट बोल,5-6 और दबा जाती थी.
यहां ना माँ थप्पड़ मार सकती हैं, ना खींच गले से लगा ले सकती है. ना माथे पर प्यार का चुंबन मिलता है. कभी उसे लगता मैं, आ रही हूं माँ-बेटे के बीच. कभी यही भावना आती है मेरे मन में. वो कुछ कहती हैं, मैं कुछ समझती हूं.
मेरी लायी साड़ियां आज भी तू सलीक़े से सम्भाल रखती है, और विशेष अवसर पर वो ही उन्हें पहनती है. कैसे किचन गार्डन में लगाते थे हम पौध, देते थे उनको पानी. बनाते थे अचार-पापड़, त्योहारों में रंगोली साथ मिल. कैसे अपने सफ़ेद होते बालों को छिपाने तू लगवाती थी मुझ से मेहंदी.
मैं कभी सिरदर्द का बहाना बनवा डलवाती थी तुझ से सिर में तेल, बहुत पसंद था माँ तेरा सिर पर हाथ फेरना, तेरी गोद में सिर रख सो जाना.
यहां ना माँ थप्पड़ मार सकती हैं, ना खींच गले से लगा ले सकती है. ना माथे पर प्यार का चुंबन मिलता है. कभी उसे लगता मैं, आ रही हूं माँ-बेटे के बीच. कभी यही भावना आती है मेरे मन में. वो कुछ कहती हैं, मैं कुछ समझती हूं. बिलकुल होता है ऐसा ही उनके साथ भी. हम दोनों में एक अनकही,अनसुनी बातों की गहरी खाई है. जो कभी इतने पास ना आने देती हम दोनों को जैसे हूं मैं आपके. यहां मर्यादा, संस्कार, ज़िम्मेदारी की हैं दीवारें. सब अच्छा है यहां माँ मगर कुछ तो कमी है.
तूने मुझे कभी बड़ा नहीं समझा! यहां हूं मैं एक समझदार बहू. वहां मैं पूछ कर करती थी सब काम तुझ से. यहां मुझे सब निभाना है. हूं मैं अपनी मर्ज़ी की मालकिन, मगर तेरे बिना सब अधूरा है.
माँ कभी तो सब लोगों से घिरी रहती हूं, फिर भी उदास हो जाती हूं. करती हूं महसूस अकेलापन. कभी तेरे हाथ के खाने के स्वाद याद आते ही यहां सब बेस्वाद हो जाता है. कभी बाथरूम मैं बैठ बस रोना रुकता नहीं! कभी रात तेरी याद में नींद आती नहीं मुझे. माँ मुझे तेरी आदत नहीं लत है,₹. और लत छूटती नहीं ना आसानी से!
तूने विदा के समय ये भी कहा था कि मेरी चिन्ता न करना बस रखना अपना ध्यान. और हमेशा फ़ोन पर भी बोली कि तू है ख़ुश, मगर जब आयी थी ना मैं पिछली बार घर, देखा तेरे चेहरे कि ख़ुशी को. झुर्रियां पड़ गयी हैं तेरे चेहरे पर. ना जाने कब से छोड़ दिया तूने पार्लर जाना, तेरे मेकअप किट में रखे ब्यूटी प्रोडक्ट्स हो गए हैं एक्सपायर. कब से नहीं लगायी तूने अपने बालों में मेहंदी! माँ बूढ़ी लगने लगी है अब तू! किताबें भी रखी धूल खा रही हैं तेरी. अब नहीं करती तू किचन में नए-नए एक्सपेरिमेंट.
चल मैं तुझे इस झूठ के लिए माफ़ कर देती हूं. केवल इस शर्त के साथ कि अगले जन्म में तू फिर मेरी माँ बनना. और मुझे अपनी कोख से ही जनना…
अब सब बदल गया है माँ! अब जब आती हूं ना मैं तेरे पास. तू केवल करती है ख़ातिर मेरी. तूने अब हक़ जताना छोड़ दिया है. अब तू डांटती नहीं केवल करती है प्यार. अब तू बस मिलाती है मेरी हां में हां, नहीं उलझती मुझ से छोटी-छोटी बातों पर. नहीं करने देती कुछ काम, अब तो कितनी बातें छिपा जाती है तू मुझ से.
एक बात सच-सच बता मां तूने कैसे किया सब मैनेज? तुझे भी तो आती होगी ना नानी की याद? तूने मुझे इस बात का कभी होने ना दिया आभास? क्या मैं भी हो जाऊंगी माँ तेरी तरह एक दिन?
चल मैं तुझे इस झूठ के लिए माफ़ कर देती हूं. केवल इस शर्त के साथ कि अगले जन्म में तू फिर मेरी माँ बनना. और मुझे अपनी कोख से ही जनना, मगर तब तू बदल देना ये अजीब नियम समाज के सारे, और निकालना कुछ युक्ति ऐसी कि कोई बच्चा ना हो ऐसे अपनी माँ से दूर कभी!
(डॉक्टर दीपशिखा जोशी मूल रूप से उत्तराखंड के चंपावत ज़िले से हैं. DSB कैंपस, कुमाऊं यूनिवर्सिटी नैनीताल से केमिस्ट्री में पीएचडी हैं. NET क्वालिफाइड हैं. पढ़ने-पढ़ाने का काम करती हैं. फिलहाल एक नन्हीं सी बिटिया की परवरिश कर रही हैं.)