- विजय कुमार डोभाल
हमारे पहाड़ी दैनिक-जीवन में भरण-पोषण की पूर्त्ति के लिये हथचक्की (जंदिरि) और ओखली मूस (उरख्यलि-गंज्यालि) से कूटने-पीसने की प्रक्रिया सनातनकाल से चली आ रही है.
यह भी कहा जा सकता है कि ये हमारे पर्वतीय जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं, जिनके बिना जीवन कठिन है.ओखल-मूसल और हथचक्की प्राचीन प्रोद्यौगिकी के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं.पत्थर
पहले जब गांव के निकट कोई चक्की नहीं होती थी, तब से ही इनका उपयोग अनाज कूटने-पीसने, तिलहनों से तेल निकालने
तथा छाल-छिलकों से चूर्ण बनाने के लिए किया जाता रहा है. पहाड़ी क्षेत्र में प्रायः सड़क-निर्माण करते समय चट्टानों पर ओखली खुदी हुई मिलती हैं, जो पुरातात्विक सामग्री होने के साथ-साथ सभ्यता के विकास और प्रसार का द्योतक भी हैं. इनसे ऐसा प्रतीत होता है कि कभी यहाँ मानव बस्तियां रही होंगी.पत्थर
ओखली (उरख्यालि) का निर्माण
एक मजबूत स्लेटी रंग के बड़े पत्थर को छेनी की सहायता से खोदकर किया जाता है, जिसे बाद में आंगन के एक कोने में खोदकर समतल सतह तक गाड़ दिया जाता है. जबकि मूसल (गंज्यालि) बनाने के लिए खैर, साल या शीशम की सूखी हुई, लगभग पांच फीट मजबूत सीधी टहनी ली जाती है और इसके एक सिरे पर लोहे का छल्ला (गांज) लगा दिया जाता है. इसी के प्रहार से अनाजों आदि को कूटा-पीसा जाता है. इसके बीचों बीच वाले भाग को कुछ पतला करके पकड़ने के लिये बनाया जाता है.पत्थर
पर्वतीय क्षेत्रों के तराई वाले भाग में जहाँ
साल, शीशम के घने जंगल होते हैं वहाँ पत्थर की जगह लकडी की ओखली होती है. इसे बनाने के लिये साल या सागौन के पेड़ का मजबूत कुंदा लिया जाता है. इसे “डमरू” की आकृति दी जाती है और इसके एक सिरे को खोद कर ओखली बनाई जाती है, जबकि दूसरा सिरा जमीन पर मजबूती से टिका रहता है. लकड़ी की ओखली की यह विशेषता होती है कि उसे आवश्यकतानुसार इधर-उधर लाया-ले जाया जा सकता है जबकि पत्थर की ओखली स्थिर होती है. प्रायः ओखली हमारे आंगन के साफ सुथरे कोने में स्थापित की जाती है, इसे पवित्र तथा पूजनीय माना जाता है.पत्थर
पहाड़ी क्षेत्रों में ऊंची चट्टानों पर
भी कुछ ओखलियां खुदी हुई मिलती हैं जो इस बात का प्रमाण हैं, कि कभी यहाँ भी मानव-बस्तियां रही होंगी. ऐतिहासिक गढ़वाल-गोरखा आक्रमण (सन् 1803 ई0) के समय भी गढ़वाल के लोग अपने घरों को छोड़कर ऊँचे पहाड़ों, चट्टानों और जंगलों में छिपने के लिए विवश हो गए थे और ऐसा प्रतीत होता है कि ये ओखलियां उसी समय की हो सकती है.
हमारे पहाड़ी समाज में इसका धार्मिक महत्व भी है. विवाह
और मुंडन संस्कार आदि में “पात्र” (बच्चा या दूल्हा-दुल्हन) के हल्दी पूजन (बाना) के लिए कच्ची हल्दी, सवैय्या, दारू-हल्दी आदि औषधियों को कूटकर उबटन तैयार किया जाता है. इस उबटन से ही हल्दी पूजन (बाना) तथा लेपन किया जाता है. प्रकारान्तर में यही हल्दी चढ़ाना है. ऐसे अवसरों पर हम लोग अपनी (दिशा-ध्याण) बुआ, बहिन, बेटी को टोकरी (कंड़ी) भरकर मिष्टान्न, अरसा उपहार स्वरूप दिया जाता है. अरसा बनाने के लिए भीगे चावलों को ही ओखली में कूटकर “पीठी” बनाई जाती है और दावत (घरवात) के लिए मसाले आदि भी कूटे जाते हैं.पहाड़ी क्षेत्रों में ऊंची चट्टानों पर भी कुछ ओखलियां खुदी हुई मिलती हैं जो इस बात का प्रमाण हैं, कि कभी
यहाँ भी मानव-बस्तियां रही होंगी. ऐतिहासिक गढ़वाल-गोरखा आक्रमण (सन् 1803 ई0) के समय भी गढ़वाल के लोग अपने घरों को छोड़कर ऊँचे पहाड़ों, चट्टानों और जंगलों में छिपने के लिए विवश हो गए थे और ऐसा प्रतीत होता है कि ये ओखलियां उसी समय की हो सकती है.पत्थर
आज औद्योगिकीकरण के कारण
घर-गांव में चक्कियां लग गई हैं, जिससे कुटाई-पिसाई में सरलता हो गई है किन्तु धार्मिक तथा सामाजिक संस्कारों में ओखली का अपना हिबविशेष महत्व है.पत्थर
आज भी नव-वधू के आगमन पर
जलधारा तथा ओखली (उरख्यालि-पन्देरि) पूजन की परंपरा है. सुसराल से मायके लौटी बेटी के मन में भी अपने बचपन की यादें ताजा करने की ललक होती है. आज पलायन के कारण शहरों-महानगरों में बसा हुआ पहाड़ी समाज लोहे के ऊखल-मूसल (इमामदस्ते ) द्वारा अपने संस्कार पूरे करते हैं. लेकिन बदलते समय के साथ भी उत्तराखण्ड संस्कृति की ये दोनों निशानियाँ अपनी जगह बनाए हुए हैं.(लेखक पूर्व अध्यापक हैं)