पहाड़ की शैतानियां-1
- ललित फुलारा
पहाड़ की स्मृतियों के नाम पर मेरे पास शैतानियों की भरमार है. उट-पटांग किस्से हैं, जिनको स्मरण कर बस हंसी आती है. यकीन नहीं होता, बचपन इतना जिद्दी, उजड्ड, उद्दंड
और असभ्य रहा. जिद्दीपन अब भी है, पर शैतानियां साथ छोड़ गई हैं. उद्दंडता के बाद बचपन में पड़ने वाली ईजा की मार और गालियां अब भी आंचल-सी लिपटी महसूस होती हैं. उंगलियों से ईजा की धोती के पल्लू को लपेटकर सिसकियां भरने वाले दृश्य जेहन में उभर आते हैं. ईजा जितनी बार गुस्सा होती, सिर फोड़ने और कमर तोड़ने की ही बात करती! पहाड़ की संस्कृति में इन दो गालियों का अपना ही रसास्वादन है. विरला ही होगा जिसकी ईजा ने उस पर इन गालियों का स्नेह न बरसाया हो.कमर
कमर के मामले में, मैं सौभाग्यशाली रहा पर सिर बहुत बार फूटा. ऐसा फूटा हुआ है कि अगर कपाल के बाल दान कर दिए जाएं, तो घाव के निशान प्रामाणिकता के लिए प्रत्यक्ष
आ खड़े होंगे. खोपड़ी फोड़ने का श्रेय मेरे ठुलबाज्यू के छोटे बेटे को जाता है, जिसके बेटे को उसके इस महान कार्य के किस्से में कभी-कभार सुना देता हूं, और वो खुशी के मारे उछल पड़ता है. ‘घंतर’ शब्द उसे इतना अच्छा लगता है कि सुनकर वो हंसता और दोहराता रहता है. खिलौने उठाकर कहता भी है, ‘घंतर मार द्यूं (पत्थर मार दूंगा)’.कमर
मैं उसकी इस बात पर मजाक में कहता हूं.. ‘तू अपने बाप की तरह सक्षम है’ वो खुशी के मारे अपना नाम सुनकर गले से लिपट जाता है. उसे देखकर अपना बचपन
और शैतानियां याद आ जाती हैं, और स्मृतियां उड़ाकर अपने गांव पटास पटक देती हैं. परिवार चौथर में घाम ताप रहा है और मैं अमरुद की छांव में खेल रहा हूं. ठुलबाज्यू दिल्ली से गांव आए हैं. ‘सिकार खाने को मन कर रहा है.. कोई बकरी नहीं काट रहा.’ शायद तंबाकू फूंकते हुए उन्होंने आमा और ठुलईजा की तरफ देखकर यह बात कही.सुनते ही मेरे
कान खड़े हो गए!आमा,
ठुलईजा, ठुलबाज्यू और ईजा का मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं था. सब फसक मारने में लगे हुए थे. हमारे खेत के ठीक नीचे कनाऊ की बकरी का बच्चा घास चर रहा था. कुछ ही देर पहले पिरली अपनी बकरियों को उस तरफ हांक आई थी. सारी बकरियां ऊपर और नीचे के अलग-अलग खेतों में घास चर रही थी, बस एक पाअठ हमारे खेत के नीचे मिमिया रहा था.
कमर
मैं उठा! ‘ठुलबाज्यू!! मैं तुमर लीजी सिकार ली बै आनूं (ताऊ मैं आपके लिए मांस लेकर आता हूं)’. बोलते हुए भगुवध्याव से पहले पड़ने वाले बाड़ (खेत) की तरफ चल दिया. आमा,
ठुलईजा, ठुलबाज्यू और ईजा का मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं था. सब फसक मारने में लगे हुए थे. हमारे खेत के ठीक नीचे कनाऊ की बकरी का बच्चा घास चर रहा था. कुछ ही देर पहले पिरली अपनी बकरियों को उस तरफ हांक आई थी. सारी बकरियां ऊपर और नीचे के अलग-अलग खेतों में घास चर रही थी, बस एक पाअठ हमारे खेत के नीचे मिमिया रहा था.कमर
मैंने उसे देखा और दौड़ते हुए मलखन में घुसकर भखार और संदूक टटोलने लगा. मुझे खुखरी चाहिए थी. बिना खुखरी के ठुलबाज्यू को शिकार खिलाने का सपना कहां पूरा होने
वाला था! खूब खोजा पर खूखरी नहीं मिली. मैं चौथर में गया और आमा के कंधे में झूलते हुए पूछा. ‘आमा हमारे घर में खुखरी थी न, वो कहा हैं?’ आमा ने मेरी तरफ देखा और जवाब दिया. ‘पोती.. बामणों के घर में खुखरी थोड़ी होने वाली हुई. ठाकुर रखने वाले ठहरे खुखरी.’कमर
आमा की बात सुनकर मुझे ख्याल
आया, बकरी का बच्चा, तो बहुत छोटा है… दाथुल (दरांती) से भी गर्दन कट जाएगी. यह सोचते ही मैं खुशी से झूमकर नीचे के गोठ में जा पहुंचा….कमर
वहां दरांती रखी थी. मैंने उसे उठाया और चौथर से होते हुए खेत की ओर चल दिया. बकरी का बच्चा अभी तक वहीं पर घास चर रहा था. मुझे पास खड़ा देखकर उसने एक बार
गर्दन उठाई और मिमियाते हुए आगे खिसकर घास चरने लगा. मैंने उसकी गर्दन काटने के लिए दराती उठाई ही थी कि मन में पाप का ख्याल जाग उठा. ठीक ऊपर की तरफ धुणी थी. मैं दोनों हाथ जोड़कर उस तरफ मुंह करके खड़ा हो गया. मैंने मन ही मन देवताओं से बकरी काटने की इजाजत मांगी और जब आंख खोली, तो पाअठ और आगे की तरफ बढ़ चुका था. मैंने भी आगे बढ़कर उसकी गर्दन पकड़ ली. वह जोर से म्यां…म्यां.. करने लगा,.. मैं खड़ा हुआ और घर की तरफ भागा. गोठ में जाकर दरांती वहीं रख दी, जहां से उठाई थी.बकरी का बच्चा कुछ देर म्यां-म्यां करते रहा और उसके बाद चुपचाप पसर गया. मैं कुछ देर तक खड़ा रहा. अब तक उसने हिलना डुलना भी बंद कर दिया था. मेरी विजय हो चुकी थी. जिसकी खुशी लिए भागते हुए चौथर में आकर मैंने आमा से कहा, ‘हिट… मैंने बकरी मार दी .’
कमर
ठुलबाज्यू को हर हाल
में शिकार, तो खिलाना ही है यह सोचकर फिर वापस लौटा आया. अब तक बकरी का बच्चा आगे बढ़ते-बढ़ते आम के पेड़ के ठीक नीचे वाले खेत में घास चरने लगा. मैं भी आम के पेड़ की छांव में बैठकर उसे मारने की तरकीब सोचने लगा.कमर
मैंने खुखरी से कई बकरियां कटते हुए देखी थी. एक ही झटके में धड़ अलग. पर खुखरी और दरांती से बकरी काटना मेरे बस की बात नहीं थी. कुछ देर तक सोचने के
बाद आखिर में मैंने एक बड़ा-सा पत्थर उठाया और जोर से दे मारा. बकरी का बच्चा कुछ देर म्यां-म्यां करते रहा और उसके बाद चुपचाप पसर गया. मैं कुछ देर तक खड़ा रहा. अब तक उसने हिलना डुलना भी बंद कर दिया था. मेरी विजय हो चुकी थी. जिसकी खुशी लिए भागते हुए चौथर में आकर मैंने आमा से कहा, ‘हिट… मैंने बकरी मार दी .’कमर
मेरी बात सुनकर सब हैरान. ‘कहां मार दी बकरी’ आमा ने दोनों घुटनों को हाथों की हथेली से दबाकर उठते हुए पूछा. ‘आम के पेड़ के नीचे’ आमा का हाथ पकड़ते हुए मैंने
जवाब दिया और पीछे-पीछे चल दिया. आमा ने खेत में पहुंचकर ऊपर बाड़ से झांका और मुझे वापस चौथर की तरफ ले जाते हुई बोली. ‘ओ लालू.. त्यैर खोपड़ फौडन है जाली. त्यील यो आज लड़ें करै हाली (ओ लाली तेरा सिर फूट जाए. तूने आज लड़ाई करवा दी.)’ आमा ने धोती घुटनों तक सरकाई और फटाफट चौथर में पहुंचकर मेरी कनपटी पर दो थप्पड़ जड़े.‘रात में सिकार बन रहा है.’ आमा को देखते ही मैंने खुश होते हुए पूछा.
आमा ने भखार के पीछे से मुझे खिंचकर बाहर की तरफ ले जाते हुए कहा. ‘द्यै नाती कहां? बकरी तो जिंदा है.’ यह सुनहर मैं आमा का हाथ झटकते हुए आम के पेड़ की तरफ भागा. बकरी का बच्चा वहां से गायब था.
कमर
मेरी इस हरकत से सब अवाक् थे. किसी की समझ नहीं आ रहा था कि मैं बकरी कैसे मार सकता हूं!! ठुलबाज्यू ने भी खड़े होकर कहा, ‘बच्चे से कैसे
बकरी मर जाएगी? सही से देखा….कहीं सापं ने न काटा हो बकरी को.’ आमा ने बस ना में ही गरदन हिलाई. अब तक ईजा भीमु का सिकोड़ तोड़कर ले आई थी और मेरी चुटाई भी हो चुकी थी. रोते-बिलखते हुए मैं मलखन में घुस गया. थुमी के बगल में बैठकर सिसकियां भरने लगा. मन ही मन मुझे आमा और ठुलबाज्यू पर बड़ा गुस्सा आ रहा था. रोते-रोते मुझे ख्याल आया कि पूस के महीने में पूरे 22 दिन मैंने धुणी में इनण चढ़ाया था. पर भगवान ने मेरी एक छोटी-सी बात तक नहीं सुनी.कमर
काफी देर बाद आमा मलखन आई. अब तक मैं चुप हो चुका था और भूख भी लगने लगी थी. ‘ रात में सिकार बन रहा है.’ आमा को देखते ही मैंने खुश होते हुए पूछा.
आमा ने भखार के पीछे से मुझे खिंचकर बाहर की तरफ ले जाते हुए कहा. ‘द्यै नाती कहां? बकरी तो जिंदा है.’ यह सुनहर मैं आमा का हाथ झटकते हुए आम के पेड़ की तरफ भागा. बकरी का बच्चा वहां से गायब था. दरअसल, मार खाने के बाद जब मैं गुस्से से रोते हुए मलखन चले गया था, तो आमा और ठुलबाज्यू बकरी को देखने के लिए आम के पेड़ की तरफ बढ़ रहे थे, तभी सामने के चौथर से पिरली आते हुई दिखाई दी.कमर
उसे देखकर आमा और ठुलबाज्यू फिर से बैठ गए. कुछ देर बाद पिरली बकरी के बच्चे को गोद में उठाते हुए लौटी तो आमा ने पूछा, ‘अरे पिरली बकरी को क्या हुआ.’ ‘आमा पता नहीं
चुपचाप लेटी थी. चल भी नहीं पा रही. जांघ में शायद ऊपर से कोई पत्थर गिर गया हो!’ कहते हुए पिरली ऊपर अपने घर की तरफ चल गई. यह सुनकर आमा की जान पर जान आई और इसके बाद ही वो मुझे मनाने के लिए मलखन आई थी.कमर
(पत्रकारिता में स्नातकोत्तर ललित फुलारा ‘अमर उजाला’ में चीफ सब एडिटर हैं. दैनिक भास्कर, ज़ी न्यूज, राजस्थान पत्रिका और न्यूज़ 18 समेत कई संस्थानों में काम कर चुके हैं. व्यंग्य के जरिए अपनी बात कहने में माहिर हैं.)