- अमेन्द्र बिष्ट
मौण मेले के बहाने जीवित एक परंपरा
जौनपुर, जौनसार और रंवाई इलाकों का जिक्र आते ही मानस पटल पर एक सांस्कृतिक छवि उभर आती है. यूं तो इन इलाकों के लोगों में भी अब परंपराओं को निभाने के लिए पहले जैसी गम्भीरता नहीं है लेकिन समूचे उत्तराखण्ड पर नजर डालें तो अन्य जनपदों की तुलना में आज भी इन इलाकों में परंपराएं जीवित हैं. पलायन और बेरोजगारी का दंश झेल रहे उत्तराखण्ड के लोग अब रोजगार की खोज में मैदानी इलाकों की ओर रूख कर रहे हैं लेकिन रंवाई—जौनपुर एवं जौनसार—बावर के लोग अब भी रोटी के संघर्ष के साथ-साथ परंपराओं को जीवित रखना नहीं भूलते. बुजुर्गो के जरिये उन तक पहुंची परंपराओं को वह अगली पीड़ी तक ले जाने के हर संभव कोशिश कर रहे हैं.
मौण मेला उत्तराखण्ड की परंपराओं में अनूठा मेला है, जिसमें दर्जनों गांव के लोग सामूहिक रूप से मछलियों का शिकार करते हैं.
यूं तो इन इलाकों में बहुत सारे मेले, त्योहार तथा सांस्कृतिक आयोजन समय-समय पर होते रहते हैं लेकिन परंपराओं से जुड़े जौनपुर क्षेत्र के लोग ‘मौण मेले’ को मनाने आज भी दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों की चकाचैंध को छोड़कर अपने गांव लौटना नहीं भूलते. मौण मेला उत्तराखण्ड की परंपराओं में अनूठा मेला है, जिसमें दर्जनों गांव के लोग सामूहिक रूप से मछलियों का शिकार करते हैं. जौनपुर विकासखण्ड की अगलाड़ नदी में मौण मेले के मौके पर हजारों की संख्या में लोग ढोल-नगाड़ों के साथ पहुंचते हैं. अगलाड़ नदी में भिन्डा नामक स्थान पर सभी लोग एकजुट होकर नदी में टिमरू की खाल से बना पाउडर नदी में डालकर मौण मेले की शुरुआत करते हैं. नाच-गाने के साथ ही मछलियों का सामूहिक शिकार शुरू होता है. मछलियों को पकड़ने का यह क्रम लगभग छः घंटे तक मनोरंजक तरीके से चलता है जो बाद में अगलाड़ और यमुना नदी के संगम पर पहुंचते ही समाप्त होता है. मौण मेले के दौरान लोग जाल से भी मछलियों का शिकार करते हैं। देर शाम नाचते-खेलते सभी मौणेर अपने घर-गांव की ओर लौट आते हैं. इस दिन सभी के घरों में मछली से बने पकवान बनाये जाते हैं.
राजशाही के दौरान स्वयं टिहरी नरेश इस मेले में शामिल होते थे. बताते हैं कि 1944 में इस मेले के दौरान स्थानीय लोगों में मारपीट हो गई थी जिसके बाद यह मेला महाराजा द्वारा 1949 तक बन्द कर दिया गया. बाद में लोगों ने महाराजा से इस मेले को पुनः शुरू करने का निवेदन किया तो महाराजा ने इसकी अनुमति दे दी.
मौण मेला टिहरी राजशाही के समय से ही मनाया जाता है. राजशाही के दौरान स्वयं टिहरी नरेश इस मेले में शामिल होते थे. बताते हैं कि 1944 में इस मेले के दौरान स्थानीय लोगों में मारपीट हो गई थी जिसके बाद यह मेला महाराजा द्वारा 1949 तक बन्द कर दिया गया. बाद में लोगों ने महाराजा से इस मेले को पुनः शुरू करने का निवेदन किया तो महाराजा ने इसकी अनुमति दे दी. 1949 के बाद इस इलाके के लोग अब भी मौण मेले को उसी उत्साह के साथ मनाते हैं। पिछले एक दशक में मौण मेले में पहले की अपेक्षा अधिक भीड़ उमड़ने लगी है. इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि अब जौनपुर क्षेत्र के अलावा मसूरी, विकासनगर तथा देहरादून से भी भारी संख्या में लोग इस मेले में शिरकत करने पहुंचते हैं. इलेक्ट्रोनिक तथा प्रिन्ट मीडिया द्वारा इस अनूठे मेले का व्यापक प्रचार-प्रसार करने से एक लाभ यह भी हुआ कि मसूरी की सैर करने पहुंचे सैलानी भी इस मेले का मजा लेने अगलाड़ नदी में पहुंचते हैं. इतना ही नहीं पिछले कुछ वर्षों से इस मेले में आने वाले पर्यटक अब इस मेले की तिथि तय होने के बाद ही अपना मसूरी आने का कार्यक्रम तय करते हैं ताकि मसूरी की सैर के साथ-साथ मौण मेले का लुत्फ भी उठा सके.
जौनपुर विकासखण्ड की इडवालस्यूं, लालूर, सिलवाड़, पालीगाड़ तथा दशज्यूला पट्टियां के लोग आज भी मौण मेले को पारंपरिक त्यौहार के रूप में मनाते हैं. जौनपुर विकासखण्ड के अलावा मोरी विकासखण्ड की गडुगाड़ में भी मौण मेले को मनाया जाने की परंपरा है. गडुगाड़ में लगने वाले मौण मेले में बिंगसारी, रमालगांव, खरसाड़ी, डोभाल गांव और नानाई गांव के अलावा इस विकासखण्ड के दर्जनों गांव के लोग शामिल होते हैं. अगलाड़ की भांति गडुगाड़ में भी लोग टिमरू की खाल से बने बुरादे को नदी डालकर मछलियों का सामूहिक शिकार करते हैं. रोजगार की तलाश में भले ही आज लोग अपनी जड़ों से कट चुके हों लेकिन जौनपुर और रंवाई के लोग मौण मेले के बहाने आज भी परंपराओं की डोर को थामे हुए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में जिलापंचात सदस्य टिहरी हैं)
साभार : ‘रवांई कल आज और कल’ पुस्तिका से