श्रद्धांजलि लेख
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
उदेख भरी ह्यूं- हिंगवन संग
करछी गुणमुण छीड़ा जौपन.
निल अगास’क छैल कैं नित,
भरनै रौछीं बादो जौपन..
सल्ल बोटन में सुसाट पाड़नै
चलछी मादक पौन जती.
रतन भरी ढै-डुडण्रा छी,
ढै़-डुडण्रा भरी छी सकल मही,
बसी हिमांचल’क आंचव में छी,
मयर घर लै यती कईं..
बहुत दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उपर्युक्त पंक्तियों के लेखक हिमालय के आंचल में सदा जीने वाले,हिमालय के नीले आकाश की बदलियों और वहां नदियों के सुसाट को सुनने वाले, कुमाऊंनी साहित्य को समय की धार देने वाले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सहृदय साहित्यकार मथुरादत्त मठपाल जी आज आज हमारे बीच नहीं रहे. अभी पिछले साल ही मैंने इन पंक्तियों के माध्यम से, 29 जून, 2020 को अपने इस वरिष्ठ साहित्यकार का 80वां जन्मदिन मनाया था. तब पता नहीं था कि कुमाऊंनी साहित्य को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ने वाले इस यशस्वी साहित्यकार को उन्हीं की इन काव्य पंक्तियों से आज श्रद्धांजलि भी देनी पड़ेगी.
हालांकि पिछले वर्ष से ही मठपाल जी के पुत्र नवेन्दु के माध्यम से यह ज्ञात हुआ था कि मठपाल जी का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं चल रहा था, परन्तु फिर भी उन्होंने रुग्णावस्था में भी ‘समयसाक्ष्य’ देहरादून से “कौ सुवा, काथ कौ” नाम से प्रकाशित कुमाउनी के सौ कथाकारों की कहानियों के संग्रह का कुशलता पूर्वक सम्पादन किया.शायद यह उनकी अंतिम कृति होगी, तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा.
दरअसल, कुमाऊंनी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में मठपाल जी का योगदान कुछ उसी तरह का है,जैसा भारतीय संस्कृति के प्रचार और प्रसार के क्षेत्र में महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास का और राम संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने में वाल्मीकि रामायण के रचयिता आदिकवि वाल्मीकि का.इस साहित्यिक सत्य का यदि अवलोकन करना हो तो कुमाऊंनी भाषा के लिए समर्पित मासिक पत्रिका ‘पहरू’ के उस विशेषांक पर भी नजर डालनी होगी,जिसे अभी हाल ही में मथुरादत्त मठपाल जी के सम्मान में प्रकाशित किया गया था.
पढ़ें— ‘दुदबोलि’ के रचना शिल्पी, साहित्यकार और समलोचक मथुरादत्त मठपाल
मैं पिछले अनेक वर्षों से अपनी फेसबुक पर मठपाल जी के जन्मदिवस पर विशेष लेख लिखकर उनके महनीय व्यक्तित्व और कृतित्व से साहित्य जगत को निरन्तर रूप से अवगत कराता आया हूं. वर्ष 2020 में मैंने अपनी फेसबुक में मठपाल जी की रचना धर्मिता से जुड़े 80वें जन्मदिवस के विशेष लेख में उनके समालोचक के पक्ष पर भी विशेष प्रकाश डाला है और इस लेख को ‘उत्तराखंड गौरव’ से समलंकृत करते हुए अपनी ‘स्वातंत्र्य शताब्दीवर्ष’ लेखमाला में भी सम्मिलित किया है.हिमांतर’ पत्रिका और ‘दैनिक भास्कर’के ‘उत्तराखंड लाइव’ में भी श्री मथुरादत्त कांडपाल जी की रचना धर्मिता पर भी मेरे विशेष लेख प्रकाशित हुए हैं.
कुमाऊंनी साहित्य की रचनाधर्मिता से जुड़े मठपाल जी ने अपनी वृद्धावस्था में भी दुदबोलि की भाषा चेतना से तराशी गई अपनी लेखनी को कभी विराम नहीं दिया. पिछले दो तीन वर्षों के दौरान अपने खराब स्वास्थ्य के चलते हुए भी उनके द्वारा तीन किताबें प्रकाशित की गईं,जिनके नाम हैं-1.’रामनाम भौत ठूल’, 2.’हर माटी है मुझको चंदन’ (हिंदी काव्य संकलन) और स्व.रामदत्त जोशी की रचना 3.’क्या अतीत के गीत सुनाऊं’ (हिंदी काव्य संकलन), इत्यादि.उनकी अंतिम सम्पादित कृति है- “कौ सुवा, काथ कौ”.
दरअसल, मैं मठपाल जी का मूल्यांकन कुमाऊंनी भाषा और साहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के रूप में इसलिए भी करता हूं, क्योंकि आज जब महानगर संस्कृति तथा पाश्चात्य सभ्यता के दौर में स्थानीय और प्रांतीय भाषाएं अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं,ऐसे संकटकाल में मठपाल जी ने ही कुमाऊंनी साहित्यकारों को दुदबोलि की भाषा चेतना से जुड़ना सिखाया.वह हमेशा कहा करते थे-
‘दुदबोली’ हमें माँ के दूध की तरह विरासत में मिलती है.”
वस्तुतः उत्तराखंड के इस महान शब्दशिल्पी, रचनाकार और कुमाउनी दुदबोलि को भाषापरक साहित्य के रूप में मान्यता देने वाले ऋषिकल्प भाषाविद श्री मथुरादत्त मठपाल जी का व्यक्तित्व और कृतित्व उत्तराखंड के साहित्यसृजन के क्षेत्र में सदैव अविस्मरणीय ही रहेगा.
साहित्य समालोचक के रूप में
मथुरादत्त मठपाल माटी से जुड़े कुमाऊंनी साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक दिशाबोधक समालोचकों में भी उनकी गणना होती रही है. ‘पहाड़ पत्रिका-9’ में कुमाऊंनी के मूर्धन्य कवि शिवदत्त सती की रचनाओं का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में गुमानी पंत की रचनाओं के साथ तुलनात्मक मूल्यांकन करते हुए मठपाल जी ने कहा है कि “सती की कविताई की मौलिकता एवं नवीनता हमें उनके कुमाऊंनी लेखन में ही दिखाई देती है. जहां गुमानी ने अपनी कुमाऊंनी रचनाएं छुटपुट और परंपरागत छंदों में दी है, वहीं सती का कुमाऊंनी लेखन विस्तृत है और इसके लिए उन्होंने लोकसाहित्य के एक विशेष छंद को ग्रहण किया.
चौदह (आठ+छह) वर्णों के इस छंद को पुत्तुलाल शुक्ल ‘चंद्राकर’ ने ‘न्योली छंद’ कहा है. सती निश्चित रूप से कुमाऊंनी के पहले कवि हैं,जिन्होंने अपनी लम्बी कविताओं में इस मुक्तक वर्णिक छंद का प्रयोग किया था. इससे कविता न केवल भाषा अपितु छंद के स्तर पर भी कुमाउंनी हो गई.”
(शिवदत्त सती : कुमाउंनी कविता का मध्य स्तम्भ,पहाड़-9,पृ.127)
कुमाउंनी दुदबोली और उसमें रचित लोकसाहित्य के रचना संसार की दृष्टि से मथुरादत्त मठपाल जी काव्यमूल्यांकन के ऐसे सटीक पारखी हैं,जिसमें ननु च की कोई गुंजाइश नहीं रहती.जो भी कहते हैं सीधा और सपाट शास्त्रीय और युगमूल्यों के परिप्रेक्ष्य में कहते हैं. कुमाउंनी ‘न्योली’ गीतों की आज सब बात करते हैं किंतु ‘न्योली’ छंद के काव्यशास्त्रीय स्वरूप को जानना हो तो मठपाल जी ही हमें शास्त्रीय दृष्टि से समझा पाएंगे कि कुमाऊँ के इस लोक प्रसिद्ध न्योली छंद में चौदह वर्ण होते हैं और आठवें पर यति होती है और साथ ही उसका उदाहरण भी बताएंगे-
“धारै में देवी को थान,दूदै ले नवायो.
त्यर जुठो मै नि खांछयू,माया ले खवायो..”
अभी कुछ समय पहले मैं न्यायदेवता ग्वेल ज्यू पर एक समीक्षात्मक पुस्तक लेखन के सम्बंध में अब तक लिखित साहित्य के बारे में जानकारी जुटा रहा था तो मुझे कुमाऊं के संस्कृत विद्वान् डा.कीर्ति वल्लभ शक्टा द्वारा रचित कुमाउंनी महाकाव्य ‘न्यायमूर्ति गोरल’ की प्रस्तावना में लिखे मथुरादत्त मठपाल जी के “प्रशस्ति के दो आखर” पढ़ने का मौका मिला.इस प्रस्तावना में सर्वप्रथम मठपाल जी ने अब तक ग्वेल देवता पर लिखे गए कुमाउंनी साहित्य का संक्षिप्त सर्वेक्षण किया और उसके बाद अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा है- “यद्यपि कुछ कुमाऊंनी रचनाकारों ने अपनी कुछ कृतियों को महाकाव्य बताया है,परन्तु मेरी दृष्टि में तो वे प्रबन्धकाव्य की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते हैं. मेरे विचार में तो महाकाव्य की कसौटी पर कसने पर डा.शक्टा की यह कृति ‘न्यायमूर्ति गोरल’ ही कुमाउँनी का प्रथम महाकाव्य होने की अधिकारी है.”
इस आलोच्य महाकाव्य ‘न्यायमूर्ति गोरल’ की विषयवस्तु,उसके पौराणिक चरित्र और प्रयुक्त होने वाले छंदों,भाषासौष्ठव आदि का भी बहुत बारीकी से आकलन करते हुए मठपाल जी ने महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है- कि “कुमाउँनी बोली के प्रायः एक दर्जन विभेदों में पूर्वी क्षेत्र में बोली जाने वाली उपबोलियों में बड़ी मधुरता है. इस काव्य में काली कुमाऊं (चंपावत लोहाघाट क्षेत्र की) कुमैयां या कुमांई बोली का प्रयोग इसके भाषा-सौष्ठव को बहुत बढ़ा देता है.यही क्षेत्र इस महाकाव्य के नायक और उसकी गाथा के गायक दोनों का ही मूल अभिजन है. छंद को ध्यान में रखकर कवि ने संस्कृत के अनेक शब्दों का सफल प्रयोग किया है.”
(‘न्यायमूर्ति गोरल’ : प्रशस्ति के दो आखर,17,जुलाई,2015)
दरअसल,मठपाल जी एक समीक्षक के रूप में किसी कृति के प्राक्कथन के रूप में जो कुछ सारगर्भित लिखते हैं वह उस कृति के अलावा उसके ऐतिहासिक परिदृश्य,उस दुदबोली की भाषाई अस्मिता और उसकी सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा होता है.
मठपाल जी ने भारतीय भाषाओं के मध्य आपसी सौहार्द की भावना को प्रोत्साहित करने के प्रयोजन से हिंदी की कविताओं को भी कुमाऊंनी में रूपांतरित किया. निराला और पन्त जैसे छायावाद के महान कवियों की टक्कर का साहित्य रचने वाले गढ़वाल के हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल (1919- 1947) की हिंदी कविताओं का मथुरादत्त मठपाल ने कुमाऊंनी में बहुत सुंदर अनुवाद किया.यहां उसका एक उदाहरण प्रस्तुत हैं-
बर्त्वाल जी की मूल कविता
“जहाँ विकल हिम शैलों से
करते मृदु गुँजन झरने .
जहाँ नील नभ की छवि को
मेघ सदा लगते भरने.
चीड़ों में गुँजन करती चलती
मादक पवन जहां.
थे रत्नों से शैल भरे,
थी शैलों से भरी मही.
हिमगिरी के अंचल में था,
मेरा भी घर यहीं कहीं..”
मठपाल जी का कुमाऊंनी अनुवाद
“उदेख भरी ह्यूं- हिंगवन संग
करछी गुणमुण छीड़ा जौपन.
निल अगास’क छैल कैं नित,
भरनै रौछीं बादो जौपन.
सल्ल बोटन में सुसाट पाड़नै
चलछी मादक पौन जती.
रतन भरी ढै-डुडण्रा छी,
ढै़-डुडण्रा भरी छी सकल मही,
बसी हिमांचल’क आंचव में छी,
मयर घर लै यती कईं..
अगस्त 2019 को चन्द्रकुंवर बर्त्वाल स्मृति शोध संस्थान समिति द्वारा कुमाऊंनी साहित्यकार मथुरादत्त मठपाल को साहित्य के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘हिमवन्त साहित्य सम्मान’ से सम्मानित किया गया. मठपाल जी को देहरादून में हुए उत्तराखंड लोकभाषा सम्मेलन में 16 अप्रैल,2011को उत्तराखंड भाषा संस्थान द्वारा डॉ.गोविंद चातक सम्मान से अलंकृत किया गया था.वर्ष 1988 में उत्तर प्रदेश निधि संस्थान द्वारा उन्हें सुमित्रा नंदन पंत नामित पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है.
मठपाल जी कुमाऊँनी भाषा और साहित्य को एक राष्ट्रीय पहचान से जोड़ने वाली ‘दुदबोलि’ पत्रिका को तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद भी नियमित रूप से निकाल रहे थे और साथ ही वे 7-8 घन्टे नियमित पठन, पाठन, लेखन का कार्य करते हुए देववाणी कुमाउँनी और हिंदी साहित्य की आराधना में निरन्तर रूप से लगे रहते थे.
श्री मठपाल जी कुमाऊं क्षेत्र के ही नहीं समूचे उत्तराखण्ड के लिए प्रेरणाश्रोत हैं. उत्तराखण्ड की आंचलिक भाषा के विकास में उनके द्वारा किये गए योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. एक दिन अवश्य कुमाउनी बोली संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो पाएगी तो उसका एक कारण मठपाल जी का ‘दुदबोलि’ पत्रिका में लिपिबद्ध किया गया साहित्य का आधार होगा, जो इस तथ्य को प्रमाणित करता आया है कि कुमाऊनी मात्र एक बोली नहीं अपितु साहित्य सृजन की एक उत्कृष्ट भाषा भी है. यह हमारे लिए गौरव की बात है कि कुमाऊं के दो समर्पित साहित्यकारों चारु चन्द्र पाण्डे और मथुरादत्त मठपाल को साहित्य अकादेमी ने पहली बार कुमाउनी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देते हुए उन्हें संयुक्त रूप से ‘भाषा सम्मान’ के लिये चुना.
16 अगस्त, 2015 को कोयम्बटूर के भारतीय विद्या भवन के सभागार में मृदुभाषी मथुरादत्त मठपाल जी ने साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष व प्रतिष्ठित तमिल कवि सिरपी बालसुब्रमण्यम के हाथों प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह तथा नकद पुरस्कार ग्रहण करते हुए ‘‘द्वि आँखर- कुमाउनीक् बाबत’’ शीर्षक से अपने सम्बोधन में कुमाउनी संस्कृति और भाषा के महत्त्व को प्रस्तुत किया तो उस समय भारतीय विद्या भवन का हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था.
अपने इस संबोधन में मठपाल जी ने बताया कि कुमाउनी-गढ़वाली में मातृभाषा के लिए ‘दुदबोलि’ का प्रयोग इसलिए किया जाता है क्योंकि यह बोली हमें माँ के दूध के साथ विरासत में मिलती है. उन्होंने बताया कि कुमाउनी के पास अकूत शब्द भंडार है, लोकोक्ति और मुहावरे हैं,हजारों ध्वन्यात्मक शब्द हैं और लोकसाहित्य की विविध विधाएं हैं. इस अवसर पर मठपाल जी ने कुमांऊनी की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कुमाउंनी साहित्य के दो सौ साल की लिखित परंपरा की भी जानकारी दी और अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सभी अभ्यागतों के प्रति अपनी जो मंगल कामनाएं दी,वे भी कुमाऊंनी दुदबोलि में दिए गए शुभाशीष के स्वर आज भी मातृचेतना की वात्सल्यपूर्ण अनुभूति कराते हैं –
“जी रया, जागि रया, तिष्टिया, पनपिया
स्यूँ कस तराण हौ,स्यावै कसि बुद्धि हौ,
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव है जया.”
शायद इतिहास में पहली बार लगभग तीन हजार कि.मी. दूर दक्षिण भारत के प्रमुख शहर कोयंबटूर में जब उत्तराखंड के एक साहित्यकार ने कुमाऊनी भाषा और साहित्य को अन्य भारतीय भाषाओं के समकक्ष उपस्थापित किया, तो समूचे साहित्यजगत को यह अहसास भी करा दिया कि यह दुदबोली कुमाऊनी मात्र एक बोली नहीं बल्कि साहित्य सृजन की आलंकारिक और रसनिष्ठ भाषा भी है.
असल में,16 अगस्त, 2015 को हिंदी अकादमी उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कांबार ने ताम्रपत्र और शॉल से जो मथुरादत्त मठपाल जी को जो सम्मानित किया, वह राष्ट्रीय धरातल पर उत्तराखंड की उपेक्षित भाषा का सम्मान था.मथुरादत्त मठपाल जी कुमाऊंनी भाषा की समाराधना में लगे हुए उन साधकों में रहे थे,जो जीवन पर्यंत अपनी मातृभाषा के संवर्धन और संरक्षण में सन्नद्ध रहे. एक संचेतनशील कवि और साहित्यकार होने के अलावा ‘दुदबोलि’ जैसी कुमाऊनी भाषा और साहित्य को समर्पित पत्रिका का कठिन परिस्थितियों में भी सम्पादन और प्रकाशन का कार्य निरन्तर रूप से जारी रखना, मठपाल जी का अविस्मरणीय योगदान ही माना जाएगा.
आज हम कुमाऊंनी भाषा के समर्पित साहित्यकार और शिल्पकार और इस दुदबोलि को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ने वाले ऋषिकल्प श्री मथुरादत्त मठपाल जी के महाप्रयाण के अवसर पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं –
“नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा. कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्ति स्तत्र सुदुर्लभा..”
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)