- कृष्ण चन्द्र मिश्रा
कुमाउनी भाषा के कवि और दुदबोलि के पहरू(रक्षक) मथुरादत्त मठपाल ‘मनख’ का जन्म 29 जून 1941 ईस्वी को हुआ. इनकी जन्म स्थली अल्मोड़ा जिला के भिक्यासैंण ब्लॉक का नौला गांव था. यह गांव पश्चिमी रामगंगा नदी के बाएं किनारे पर बसा हुआ है. इनके पिता स्व. हरिदत्त मठपाल स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी थे. देश आजाद होने से पहले वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे. इनकी माँ कान्ति देवी कर्मठ महिला थीं. इनका परिवार संपन्न था.
मथुरादत्त मठपाल
मठपाल जी की पढ़ाई गांव के प्राइमरी स्कूल से शुरू हुई, सन् 1951 ई0 में प्राथमिक विद्यालय विनायक से दर्जा 5 पास किया, मानिला मिडिल स्कूल से 8 वीं कक्षा पास की. रानीखेत नेशनल हाईस्कूल से सन् 1956 ई0 में दसवीं और रानीखेत
मिशन इण्टर कॉलेज से इण्टरमीडिएट पास किया. लखनऊ विश्वविद्यालय में बी0एस0सी0 प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया किन्तु लखनऊ की गर्मी से स्वास्थ्य खराब होने के कारण मात्र 3 माह में लौटकर वे पहाड़ आ गये. स्वास्थ्य लाभ के बाद तीन-चार सालों तक उन्होंने प्रेम विद्यालय ताड़ीखेत, मानिला हाईस्कूल और एम.पी. इण्टर कॉलेज रामनगर में अध्यापक के रूप में कार्य किया.मथुरादत्त मठपाल
सन 1963 ई0 में प्राइवेट बी.ए. करके अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज में बी.टी. प्रशिक्षण के लिए प्रवेश लिया. बी.टी. करने के बाद राजकीय इण्टर कॉलेज विनायक में इनकी नियुक्ति प्रवक्ता
इतिहास के रूप में हुई. वहाँ 33 वर्षों तक अध्यापन किया. अध्यापन के साथ-साथ अल्मोड़ा महाविद्यालय/कुमाऊँ विश्वविद्यालय से उन्हों का इतिहास, भारतीय प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति तथा राजनीतिक विज्ञान इन तीन विषयों से एम0ए0 किया. विनायक इण्टर कॉलेज में अध्यापन के दौरान उनका गहन स्वाध्याय जारी रहा..मथुरादत्त मठपाल
बचपन से ही मठपाल जी का रुझान साहित्य की तरफ था. सुमित्रानन्दन पन्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मैथिलीशरण गुप्त, की कविताएँ उन्हें प्रिय थी. उन्होंने बचपन में ही कविता रचना शुरू कर दिया. बालमन की पहली कविता के आँखर इस प्रकार हैं- “लव कुश थे दो भाई, बाल्मीकि से शिक्षा पाई॥”
अपने साथियों को वे अपनी कविताएँ सुनाया करते थे. वीर रस की कविताएँ उन्हें प्रिय थीं. हाईस्कूल तक उनके लेखन में सुधार आ चुका था. हिन्दी पढ़ाने वाले अध्यापक उनके निबन्ध देखकर प्रसन्न होते थे. उन्हें साहित्य की अच्छी समझ अध्यापक बनने के बाद हुई. विश्व साहित्य को पढ़ा, साहित्य की विधाओं को जाना. कविता और कहानी रचना शुरू कर दिया.मथुरादत्त मठपाल
उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं. पहली कहानी ‘बिगड़े हुए देवता’ लैन्सडाउन से निकलने वाली ‘अलकनन्दा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई. दूसरी ‘ममतामई’ नैनीताल से प्रकाशित ‘उत्तरा’ पत्रिका में छपी. इन्होंने अपनी पहली हिन्दी कविता ‘ग्वेल देवता’ पर रची. उनकी पहली कुमाऊनी कविता रानीखेत से प्रकाशित होने
वाली ‘कुञ्जरासन’ पत्रिका में ‘पै में क्यापक-क्याप्प कै भैटुनू’ प्रकाशित हुई. सन् 1962-63 में उनकी मित्रता कथा शिल्पी शैलेश मटियानी जी के साथ हुई. जो कि लगभग 35 साल (शैलेश मटियानी जी की मृत्यु तक) बनी रही. इसी बीच उनकी पहचान नागार्जुन, डॉ. रमेश चन्द्र शाह, शेखर जोशी, वीरेन डंगवाल, मनोहर श्याम जोशी जैसे रचनाकारों के साथ हुई जिनका मठपाल जी के लेखन पर प्रभाव पड़ा.मथुरादत्त मठपाल
मठपाल जी ने सन 1989- 90 और 91 में 3 क्षेत्रीय भाषायी सम्मेलन अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और नैनीताल में आयोजित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. दूर-दूर से
कुमाऊनी भाषा प्रेमियों ने इस सम्मेलन में आकर प्रतिभाग किया. अपनी मातृबोली के लिए लोगों के हृदय में कुछ करने की भावना जगी. पूरे कुमाऊँ में मठपाल जी ने दर्जनों कवि सम्मेलन को आयोजित कराने में सहयोग किया.
मथुरादत्त मठपाल
मठपाल जी ने पहले हिन्दी में साहित्य रचना शुरू की. उन्होंने हिन्दी में बहुत सी रचनाएं रचीं. सन् 1985 से कुमाउनी साहित्य रचना शुरू की. उनकी पहचान कुमाउनी के बड़ी कवियों से
होने लगी तो उनको लगा कि मातृबोली (कुमाउनी) ही अपने हृदय के भावों को वाणी प्रदान करने के लिए सबसे अच्छा माध्यम है. कवि सम्मेलनों से उनकी पहचान कुमाउनी साहित्यकारों से बढी. वर्ष 1997 में नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर वे पूर्णत: कुमाऊनी साहित्य सेवा में जुट गए.मथुरादत्त मठपाल
मठपाल जी ने कुमाउनी साहित्यि सेवा के लिए शुरूआत में दो काम किये पहला कुमाउनी में लिखना शुरू किया. दूसरा सन 2000 से उन्होंने ‘दुदबोलि’ पत्रिका निकालनी शुरू की. आरम्भ में दुदबोलि 60 पृष्ठों में निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका थी. इसके 24 अंकों के हजारों पृष्ठों में कुमाऊनी गीत/कविता कथाएं/ साहित्य प्रकाशित हुआ. सन् 2006 से यह पत्रिका करीब 350 पन्नों की वार्षिकी बनकर निकलने लगी. जिसके 8 अंक आज तक प्रकाशित हो चुके हैं. जिसके लगभग 2700 से अधिक पृष्ठों में कुमाउनी, नेपाली, गढ़वाली लोकसाहित्य को स्थान मिला है.
मथुरादत्त मठपाल
रामगंगा से उनको बहुत प्रेम था. इसीलिए उन्होंने लम्बी कविता ‘चली रहप गंग हो’ रामगंगा पर रची. अपने प्रकाशन का नाम भी रामगंगा प्रकाशन रखा. जहाँ से
लगभग 20-22 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. ध्यान देने की बात यह है कि इन सारे साहित्यिक कार्यों के लिए मठपाल जी ने कभी भी सरकारी सहायता की ओर नहीं देखा.
मथुरादत्त मठपाल
मठपाल जी ने सन 1989- 90 और 91 में 3 क्षेत्रीय भाषायी सम्मेलन अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और नैनीताल में आयोजित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. दूर-दूर से कुमाऊनी
भाषा प्रेमियों ने इस सम्मेलन में आकर प्रतिभाग किया. अपनी मातृबोली के लिए लोगों के हृदय में कुछ करने की भावना जगी. पूरे कुमाऊँ में मठपाल जी ने दर्जनों कवि सम्मेलन को आयोजित कराने में सहयोग किया. रामनगर में उन्होंने ‘बसंती काव्य समारोह’ नाम से सात कवि सम्मेलनों का आयोजन किया.मथुरादत्त मठपाल
रामगंगा से उनको बहुत प्रेम था. इसीलिए उन्होंने लम्बी कविता ‘चली रहप गंग हो’ रामगंगा पर रची. अपने प्रकाशन का नाम भी रामगंगा प्रकाशन रखा. जहाँ से लगभग 20-22 किताबें
प्रकाशित हो चुकी हैं. ध्यान देने की बात यह है कि इन सारे साहित्यिक कार्यों के लिए मठपाल जी ने कभी भी सरकारी सहायता की ओर नहीं देखा. सम्मेलन आयोजित कराने और पत्रिका की आर्थिक सहायता के रूप में मिली थोड़ी बहुत धनराशि की अतिरिक्त उन्होंने बाकी सारी धनराशि स्वयं खर्च की.मथुरादत्त मठपाल
उन्होंने सबसे पहले कुमाऊनी के 3 बड़े कवियों शेर सिंह बिष्ट (शेरदा अनपढ़) की ‘अनपढ़ी’ 1986 ई0 और गोपाल दत्त भट्ट जी की ‘गोमती गगास’ 1987 ई0 और हीरा सिंह
राणा कि ‘हम पीर लुकाते रहे’ 1989 ई0 नाम से तीन किताबों को हिन्दी अनुवाद के सहित प्रकाशित किया. मठपाल जी ने स्वयं के चार काव्य संकलन प्रकाशित किये-मथुरादत्त मठपाल
1. ‘आङ-आङ चिचैल है गो’ (1990 ई0) में उनकी गैर
राजनीतिक विषयों पर पच्चीस कविताएँ संकलित हैं. इस संकलन में कवि की काव्य चेतना दर्शन-आध्यात्म से प्रगतिवादी यथार्थ तक की यात्रा सांस्कृतिक आवरण में करती है.मथुरादत्त मठपाल
2. ‘पै मैं क्यापक क्याप के भैटुन’ (1990 ई0) का मुख्य विषय था राजनीति. गणेश विष्णु से लेकर नेता-अफसर, यहां तक कि व्यवस्था के लिए कांटा बन रहे किसी भी व्यक्ति या स्थिति के सामने
छाती ठोक कर ‘अब जवाब दे’ के तेवर में रची गई इन 20 कविताओं की हर पंक्ति से व्यवस्था के प्रति असन्तोष और विद्रोह की आग इस तरह धधकती नजर आती है कि अपनी सामर्थ्य रेखा के भीतर आने वाले हर कांटे को जला कर राख का ढेर बना देने का संकल्प लिए हो.मथुरादत्त मठपाल
3. ‘फिर प्योलि हँसैं’ – (सन् 2006 ई0) छन्द आधारित कविताएँ. द्वो लघुकाव्य- ‘चली रहो गंग हो’ और ‘फिर प्योलि हँसैं’ को मिलाकर बनाया हैं. इसमें ‘रामगंगा के उद्गम से लेकर सारे यात्रापथ का शब्द चित्रात्मक वर्णन किया है. ‘फिर प्योलि हंसै’ 80 सवैया छन्दों में कवि ने रीतिकालीन शैली के अनुरूप विरह प्रधान षट्ऋतु वर्णन किया है. इसी
संकलन में ‘बौयाणी गध्यर’ जैसी प्रसिद्ध कविता भीसंकलित है. तीस प्रकार के छंद प्रयुक्त हैं इसमें, कुछ छोटी कविताएँ भी .
मथुरादत्त मठपाल
4. ‘मनख-सतसई’ (सन-2006ई0) विभिन्न विषयों पर
आधारित 701 सुन्यौलियाँ हैं. ‘न्यौली’ छन्द को आधार बनाकर मठपाल जी ने सतसयी की रचना की. इन न्यौलियों में सुभाषित, अन्योक्ति, राम नाम सुमिरन, प्रकृति, विरह, समाज, संस्कृति सभी रंग हैं, अर्थात् व्यवहार ज्ञान से नीतिशास्त्र तक की यात्रा कराती है ‘मनख सतसयी’.5. ‘राम नाम भौत ठुल’ (अप्रकाशित काव्य)
मथुरादत्त मठपाल
6. श्रीमद्भागवत गीता के सात अध्यायों का कुमाउनी अनुवाद. (अप्रकाशित)
7. ‘मिनुलि’ खण्ड काव्य (अप्रकाशित)
8. रामचरितमानस का कुमाउनी अनुवाद (अप्रकाशित)
मथुरादत्त मठपाल
पुस्तक सम्पादन के क्षेत्र में मठपाल जी द्वारा कुमाउनी के सर्वश्रेष्ठ परन्तु अज्ञात कवि पं० कृपालु दत्त जोशी जी के महत्वपूर्ण कवि कर्म का ‘मूकगीत’ नाम से सम्पादन/प्रकाशन किया. ‘दुदबोलि पत्रिका में बाबू चन्द्र सिंह तड़ागी की पुस्तक ‘चन्द्र शैली का कई खण्डों का प्रकाशन किया. हिमवन्त कवि चन्द्र कुँवर बर्थवाल
(जीवन काल 1919-47 ई0/मात्र 28 साल) की 80 कविताओं का कुमाउनी अनुवाद को 2013 में ‘था मेरा घर भी यहीं कहीं’ नाम से प्रकाशित किया. जुगल किशोर पेटशाली संकलित कुमाउनी की प्राय: 80 वर्ष पूर्व की सौ होलियों का प्रकाशन ‘गोरी प्यारो लागे तेरो झन्कारो’ नाम से किया. कवि केदार सिंह कुंजवाल, वंशीधर पाठक जिज्ञासु के हिन्दी काव्य संकलन ‘बादलों की गोद से’ व ‘मुझको प्यारे पर्वत सारे’ का प्रकाशन किया.मथुरादत्त मठपाल
लीलाधर जोशी जी के 1894 ई0 में प्रकाशित ‘मेघदूत का अनुवाद’ और श्यामाचरण पंत जी की गीता का कुमाउनी अनुवाद ‘अमृत कलश’ नाम से मठपाल जी ने पुनःप्रकाशित कराया. लम्बे समय से न मिलने वाली कुमाउनी के कईं रचनाओं को उन्होंने ढूंढ कर पुर्नमुद्रित करवाया. दुदबोलि के छठवें अंक में कुमाऊनी के 17
स्वर्गवासी कवियों की सर्वश्रेष्ठ कविताएँ संकलित हैं. आठवें अंक के 360 पन्नों में कुमाऊनी के पुराने और नए 55 कवियों की 450 कविताएँ संकलित हैं. 2020 में कुमाउनी की 100 कहानियों के संकलन ‘कौ सुवा काथ’ को मठपाल जी के सम्पादन में प्रकाशित किया गया. मठपाल जी का काम कुमाऊनी साहित्य में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगा.मथुरादत्त मठपाल
गद्य साहित्य में भी उनका योगदान रहा लोकवार्ता( कंथ कथ्यूड़) दुदबोलि पत्रिका की भूमिका/ किताबों की भूमिका और शब्दार्थ बोधिनी में उनका गद्य देखने को मिलता है. गीत
नाटिका/नृत्य नाटिका के रूप में उनकी चंद्रावती सत् परीक्षण, ‘महंकाली अवतरण’, ‘कद्रू वनिता’, ‘गोपीचंद भरथरी’ ये चार गीत नाटिकाएँ बहुत से मंचों पर खेली गयी हैं.मथुरादत्त मठपाल
मठपाल जी और उनकी साहित्य रचनाओं के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के विचार-
चारू चन्द्र पाण्डे जी के अनुसार- “चली रहौ गंग हो’ के 56 कवित्तों की आवृति बार-बार करने को जी ललचाता है. ‘बौयाणी गध्यर’ कविता में केवल सात कवित्त हैं… एक एक
शब्द बोलता है. ध्वनि प्रभाव अनूठा है, अनुप्रास, वीप्सा, उपमा, अलंकारों की छटा दृष्टव्य है. टेनीशन का ब्रुक इसके आगे तुतलाता बालक सा लगता है. छंदों की विविधता से मनख’ के काव्य में नवीनता, उत्सुकता, सरसता बनी रहती है. कुमाउनी का विपुल शब्द भण्डार उनके पास है जो उनके काव्य को वांछित अभिव्यक्ति दे सका है. शब्द शक्ति, अभिधा, लक्षणा, व्यंजना के वे पंडित हैं.मथुरादत्त मठपाल
डॉ. राम सिंह कहते हैं- “कवित्त छन्द में रचित उनकी इस रचना (चली रहौ गंग हो) को पढ़ते समय हमें लगता है कि हम रीतिकाव्य सम्राट देव की काव्य माधुरी में खो गए हैं.
श्री मठपाल ने रहौ गंग को पारलौकिक भावना से मुक्त रखा है. कवि की यही लौकिक दृष्टि इस रचना को साहित्य में उच्च स्थान प्रदान करती है. इसमें कवि के गहन सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण की अद्भुत प्रतिभा झलकती है. यह पूरी तरह अभिधात्मक काव्य है. आचार्य देव की उक्ति ‘अभिधा उत्तम काव्य है’ यहां सार्थक लगता है. कुमाउनी में श्री मठपाल जी का शब्द सामर्थ्य हिंदी में महाकवि निराला के लगभंग निकट प्रतीत होता है.”मथुरादत्त मठपाल
“मठपालज्यू कैं कुमाउनी
शब्दनक सटीक प्रयोग करण में तथा शब्दन के गढ़न में महारत हासिल छु. आपणि शारीरिक, पारिवारिक कठिनाइयों के साथै-साथ क्वे पचास बर्ष बटि लगातार अध्ययन-अध्यापनाक दगड़ै कवि कर्म में रई और कुमाउनी भाषा कि सैत -समाव करण में ये बुड़यांकाव तक लागी छन.”
मथुरादत्त मठपाल
प्रेम सिंह नेगी का कहना है- “वे अपने कवि कर्म के साथ-साथ दशकों से कुमाउनी बोली-भाषा, साहित्य के उन्नयन हेतु एक समर्पित व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते रहे हैं. … तीनों जिला
मुख्यालयों पर भाषा सम्मेलनों का सफल आयोजन कर मथुरादत्त मठपाल ने ही इस उपेक्षित सी लोक भाषा को सम्मानित स्तर पर खड़ा करने की पहल की थी, … नतीजतन इधर कुमाउनी में कई कविता संग्रह देखने को मिले हैं. किंतु कहना होगा कि यहां कवि के भाव की गहराइयों को उसके रचना कौशल की ऊंचाइयां तराश रही होती हैं, वे कविताएं निश्चित रूप से कुमाउनी की अग्रिम पंक्ति की कविताओं में भी अग्रिम हैं.मथुरादत्त मठपाल
डॉ. रमेश चन्द्र शाह का मानना है- “कुल मिला कर श्री मथुरादत्त मठपाल की ये कवितायें एक सुदीर्घ तैयारी, शब्द-साधना का प्रतिफल कही जा सकती हैं. … एक संपादक आंचलिक
संस्कृति के कर्मठ कार्यकर्ता की हैसियत से मथुरादत्त जी अपनी ठोस पहिचान बना ली है. उनकी पहल सभी कुमाउनी रचनाधर्मियों को एकजुट करनेमें कृतार्थ हुई है. उनके कवित्व की ये उपलब्धियां भी उनकी अब तक की पहचान में निश्चय उल्लेखनीय समृद्धिकर और नई पीढ़ी के कवियों के लिए प्रेरणाप्रद अभिवृद्धि करेगी-यह आशा सहज ही की जा सकती है.मथुरादत्त मठपाल
डॉ. गिरीश चन्द्र पन्त के अनुसार- “मठपालज्यू कैं कुमाउनी शब्दनक सटीक प्रयोग करण में तथा शब्दन के गढ़न में महारत हासिल छु. आपणि शारीरिक, पारिवारिक कठिनाइयों के
साथै-साथ क्वे पचास बर्ष बटि लगातार अध्ययन-अध्यापनाक दगड़ै कवि कर्म में रई और कुमाउनी भाषा कि सैत -समाव करण में ये बुड़यांकाव तक लागी छन.”मथुरादत्त मठपाल
“कुमाउनी भाषाक् विकास में मनसा-वाचा-कर्मणा करी उनार कामक भौत ठुल योगदान छु.” – डॉ. दिवा भट्ट
मठपाल जी की
प्रतिभा विद्वत् समाज में बहुत सराही गयी. उन्हें निम्नलिखित पुरस्कार/सम्मान प्राप्त हुए हैं-मथुरादत्त मठपाल
- सन 1988 ई0 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा सुमित्रानन्दन पन्त नामित पुरस्कार से सम्मानित.
- वर्ष 2010-11 में उत्तराखंड भाषा संस्थान देहरादून द्वारा डॉ0 गोविंद चातक पुरस्कार.
- सन् 2012 में शैलवाणी सम्मान.
- साहित्य अकादमी नेशनल एकेडमी ऑफ लैटर्स द्वारा वर्ष 2014 में साहित्य अकादमी भाषा सम्मान से श्री चारू चन्द्र पाण्डे के साथ संयुक्त रूप से सम्मानित किया गया.
- कुमाऊनी भाषा साहित्य एवं संस्कृति प्रचार समिति कसार देवी अल्मोड़ा द्वारा 2015 में शेर सिंह बिष्ट अनपढ़ कुमाऊनी कविता पुरस्कार दिया गया.
- चंद्र कुँवर बर्तवाल सम्मान से उनको अगस्तमुनि में अगस्त 2021 मरणोपरांत को सम्मानित किया जाएगा.
इन सामानों के अतिरिक्त उन्हें
दर्जनों सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए. कुमाउनी भाषा और साहित्य की उन्नति में लगे हुए मठपाल जी का चला जाना कुमाउनी साहित्य जगत को अनाथ कर गया. अब यही आशा है कि उनके दिखाए हुए रास्ते पर हम आगे बढ़ते रहें.(प्रवक्ता हिन्दी, राजकीय इण्टर
कालेज, अगासपुर विकास खण्ड – स्याल्दे, अल्मोड़ा)