80वें जन्मदिन पर विशेष
- डा. मोहन चंद तिवारी
29 जून को जाने माने कुमाऊंनी साहित्यकार श्रद्धेय मथुरादत्त मठपाल जी का जन्मदिन है. उत्तराखंड के इस महान शब्दशिल्पी,रचनाकार और कुमाउनी दुदबोलि को भाषापरक साहित्य के रूप में पहचान दिलाने वाले ऋषिकल्प भाषाविद श्री मथुरादत्त मठपाल जी का व्यक्तित्व और कृतित्व उत्तराखंड के साहित्य सृजन के क्षेत्र में सदैव अविस्मरणीय ही रहेगा. मठपाल जी इतनी वृद्धावस्था में भी निरन्तर रूप से साहित्य रचना का कार्य आज भी जारी रखे हुए हैं. वे सात-आठ घन्टे नियमित पठन, पाठन, लेखन का कार्य करते हुए देववाणी कुमाऊंनी और हिंदी साहित्य की आराधना में लगे रहते हैं. पिछले वर्ष जन्मदिवस पर उनके पुत्र नवेंदु मठपाल की पोस्ट से पता चला कि एक साल के दौरान ही मथुरादत्त मठपाल जी के द्वारा तीन नई किताबें प्रकाशित हुई ,जिनके नाम हैं-1.’रामनाम भौत ठूल’, 2.’हर माटी है मुझको चंदन’ (हिंदी काव्य संकलन) और स्व.रामदत्त जोशी की रचना 3.’क्या अतीत के गीत सुनाऊं’ (हिंदी काव्य संकलन)
कृष्ण चन्द्र मिश्रा द्वारा लिखित एक लेख “दुदबोलि के सेवक मथुरादत्त मठपाल” से मिली जानकारी के अनुसार श्री मथुरादत्त मठपाल मठपाल जी की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में,आठवीं तक की शिक्षा मानिला के मिडिल स्कूल में और हाई स्कूल और इंटर तक की शिक्षा रानीखेत के ‘नेशनल हाई स्कूल’ में हुई.
मथुरा दत्त मठपाल जी का जन्म 29 जून 1941 के दिन अल्मोड़ा जिले के भिक्यासैंण ब्लॉक के नौला गांव में हुआ.इनके पिता का नाम श्री हरिदत्त मठपाल और माता का नाम श्रीमती कांति देवी मठपाल था इनके पिता उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में प्रमुख रहे थे. कृष्ण चन्द्र मिश्रा द्वारा लिखित एक लेख “दुदबोलि के सेवक मथुरादत्त मठपाल” से मिली जानकारी के अनुसार श्री मथुरादत्त मठपाल मठपाल जी की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में,आठवीं तक की शिक्षा मानिला के मिडिल स्कूल में और हाई स्कूल और इंटर तक की शिक्षा रानीखेत के ‘नेशनल हाई स्कूल’ में हुई. मठपाल जी ने इतिहास, संस्कृति एवं राजनीति विज्ञान आदि तीन विषयों में एम.ए.करने के पश्चात अपना सम्पूर्ण जीवन अध्यापन में लगाया. राजकीय इंटर कॉलेज विनायक में उन्होंने 35 साल तक इतिहास के प्रवक्ता के रूप में अध्यापन कार्य किया और सन् 1998 में उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपना सम्पूर्ण जीवन दुदबोलि साहित्य के संवर्धन हेतु अर्पित कर दिया.
मठपाल जी कुमाऊँनी भाषा और साहित्य को एक राष्ट्रीय पहचान से जोड़ने वाली ‘दुदबोलि’ पत्रिका को तमाम आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद आज भी नियमित रूप से निकाल रहे हैं. यह पत्रिका कुमाउंनी भाषा में प्रकाशित होती है.बड़ी मेहनत और लगन से इसके संपादक श्री मथुरा दत्त मठपाल जी विगत 20 वर्षों से सामान्य जनमानस के बीच कम प्रयुक्त होती जा रही कुमाऊंनी भाषा को बचाने का एक भगीरथ प्रयास कर रहे हैं.
श्री मठपाल जी कुमाऊं क्षेत्र के ही नहीं समूचे उत्तराखण्ड के लिए प्रेरणाश्रोत हैं. उत्तराखण्ड की आंचलिक भाषा के विकास में उनके द्वारा किये गए योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. यह समस्त उत्तराखंड वासियों के लिए गौरव की बात है कि कुमाऊं के दो समर्पित साहित्यकारों चारु चन्द्र पाण्डे और मथुरादत्त मठपाल को साहित्य अकादमी ने पहली बार कुमाउनी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देते हुए उन्हें संयुक्त रूप से ‘भाषा सम्मान’ के लिये चुना.
रिटायर होने के बाद मठपाल जी ने रामनगर शहर के पंपापुरी स्थित अपने आवास से वर्ष 2000 में ‘दुदबोलि’ नाम से कुमाऊंनी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. दुदबोलि के 24 त्रैमासिक (64 पृष्ठ) अंक निकालने के बाद 2006 में इसे वार्षिक (340 पृष्ठ) का कर दिया गया. जिनमें लोक कथा, लोक साहित्य, कविता, हास्य, कहानी, निबंध, नाटक, अनुवाद, मुहावरे, शब्दावली व यात्रा वृतांत आदि को जगह दी जाती है.डाॅ. रमेश शाह, शेखर जोशी, ताराचंद्र त्रिपाठी, गोपाल भटट, पूरन जोशी, डाॅ. प्रयाग जोशी सरीखे 50 से भी ज्यादा लब्धप्रतिष्ठ कवि व लेखक ‘दुदबोलि’ से जुड़े हैं. बांग्ला, गुजराती, अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी, नेपाली, गढ़वाली साहित्य मूल रूप में या कुमाऊंनी अनुवाद को इसमें स्थान मिला है. श्रीमद्भगवद्गीता का कुमाऊंनी अनुवाद और कालिदास के मेघदूत का कुमाऊंनी अनुवाद भी इसमें प्रकाशित हुआ है. नेपाली और कुमाऊंनी बालगीत भी छापे गए हैं.मठपाल जी के स्वयं रचित पांच काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं.आजादी से पहले व बाद में भी कुमाऊंनी भाषा में अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हुई हैं.मगर ‘दुदबोलि’ पत्रिका के प्रकाशन की निरंतरता और इसका समर्पणभाव अनूठा ही है. एक दिन अवश्य कुमाऊंनी बोली संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो पाएगी तो उसका एक कारण मठपाल जी का ‘दुदबोलि’ पत्रिका में लिपिबद्ध किया गया साहित्य का आधार होगा जो इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि कुमाऊंनी मात्र एक बोली नहीं अपितु साहित्य सृजन की एक उत्कृष्ट भाषा भी है. एक संचेतनशील कवि और साहित्यकार होने के अलावा ‘दुदबोलि’ जैसी कुमाऊंनी भाषा और साहित्य को समर्पित पत्रिका का कठिन परिस्थितियों में भी सम्पादन और प्रकाशन का कार्य निरन्तर रूप से जारी रखना,उनका समर्पित अविस्मरणीय योगदान ही माना जाएगा.
श्री मठपाल जी कुमाऊं क्षेत्र के ही नहीं समूचे उत्तराखण्ड के लिए प्रेरणाश्रोत हैं. उत्तराखण्ड की आंचलिक भाषा के विकास में उनके द्वारा किये गए योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. यह समस्त उत्तराखंड वासियों के लिए गौरव की बात है कि कुमाऊं के दो समर्पित साहित्यकारों चारु चन्द्र पाण्डे और मथुरादत्त मठपाल को साहित्य अकादमी ने पहली बार कुमाउनी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देते हुए उन्हें संयुक्त रूप से ‘भाषा सम्मान’ के लिये चुना.
16 अगस्त, 2015 को कोयम्बटूर के भारतीय विद्या भवन के सभागार में मृदुभाषी मथुरादत्त मठपाल जी ने साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष व प्रतिष्ठित तमिल कवि सिरपी बालसुब्रमण्यम के हाथों प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह तथा नकद पुरस्कार ग्रहण करते हुए ‘‘द्वि आँखर- कुमाउनीक् बाबत’’ शीर्षक से अपने सम्बोधन में जैसे ही कुमाऊंनी संस्कृति और भाषा के महत्त्व को प्रस्तुत किया तो उस समय भारतीय विद्या भवन का हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था.
अपने इस संबोधन में मठपाल जी ने बताया कि कुमाउनी-गढ़वाली में मातृभाषा के लिए ‘दुदबोली’ का प्रयोग इसलिए किया जाता है क्योंकि यह बोली हमें माँ के दूध के साथ विरासत में मिलती है. उन्होंने बताया कि कुमाउनी के पास अकूत शब्द भंडार है,लोकोक्ति और मुहावरे हैं,हजारों ध्वन्यात्मक शब्द हैं और लोकसाहित्य की विविध विधाएं हैं. इस अवसर पर मठपाल जी ने कुमांऊनी की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कुमाउंनी साहित्य के दो सौ साल की लिखित परंपरा की भी जानकारी दी और अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सभी अभ्यागतों के प्रति अपनी जो मंगल कामनाएं दी,वे कुमाऊंनी दुदबोलि में दिए गए शुभाशीष के स्वर आज भी मातृचेतना की वात्सल्यपूर्ण अनुभूति कराते हैं –
“जी रया, जागि रया, तिष्टिया, पनपिया
स्यूँ कस तराण हौ,स्यावै कसि बुद्धि हौ,
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव है जया.”
शायद इतिहास में पहली बार लगभग तीन हजार किलोमीटर दूर दक्षिण भारत के प्रमुख शहर कोयंबटूर में जब उत्तराखंड के एक साहित्यकार ने कुमाऊंनी भाषा और साहित्य को अन्य भारतीय भाषाओं के समकक्ष उपस्थापित किया तो समूचे साहित्यजगत को यह अहसास भी करा दिया कि यह दुदबोली कुमाऊंनी मात्र एक बोली नहीं बल्कि साहित्य सृजन की आलंकारिक और रसनिष्ठ भाषा भी है.
असल में,16 अगस्त,2015 को हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कांबार ने ताम्रपत्र और शॉल से जो मथुरादत्त मठपाल जी को जो सम्मानित किया, वह राष्ट्रीय धरातल पर उत्तराखंड की उपेक्षित भाषा का ही सम्मान था. मथुरादत्त मठपाल जी कुमाऊंनी भाषा की समाराधना में लगे हुए उन साधकों में से हैं,जो जीवन पर्यंत हमारी मातृभाषा के संवर्धन और संरक्षण के लिए समर्पित हैं. मैं यहां उसी अवसर के सन्दर्भ में ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार दीपा कांडपाल की निम्नलिखित टिप्पणी को यहां अक्षरशः उद्धृत करना चाहुंगा जो मठपाल जी की लोकधर्मी रचना धर्मिता का वास्तविक मर्म भी प्रकट करती है-
“मथुरा दत्त मठपाल जी माटी की नराई, जात-थात की धात,च्यूड़- हरेला- घुघुत- बिरुड़ की लीक,मेले-कौतिक-जात्राओं की झरफर, अपने कुमैया होने की चिनाण, आण-काणि कथ्यूड़ों को कंछ-मंछों तक पहुँचाने में लगे रहने वाले एक ऐसे रचनाकार हैं,जो एक लम्बे समय से ‘दुदबोली’ पत्रिका एवं अपने स्फुट लेखन के माध्यम से कुमाउनी के आँखरों की सज-समाव, टाँज-पाँज कर रहे हैं. अपने लेखन में भाषा की चिन्ता करने वाले मठपाल जी की कविताओं में कुमाउनी की ठसक, लय-ताल, लोकोक्तियाँ, मुहावरे, उतार-चढ़ाव और बिम्बात्मकता का सुघड़ समन्वय उनको अन्य कवियों से विशिष्ट बना देता है.” (नैनीताल समाचार,29 जुलाई,2015: “चारुचन्द्र पांडे और मथुरादत्त मठपाल सम्मानित”)
साहित्य समालोचक के रूप में
मथुरादत्त मठपाल माटी से जुड़े एक कुमाऊंनी साहित्यकार ही नहीं, बल्कि एक दिशाबोधक समालोचकों में भी उनकी गणना होती रही है. ‘पहाड़ पत्रिका-9’ में कुमाऊंनी के मूर्धन्य कवि शिवदत्त सती की रचनाओं का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में गुमानी पंत की रचनाओं के साथ तुलनात्मक मूल्यांकन करते हुए मठपाल जी ने कहा है कि “सती की कविताई की मौलिकता एवं नवीनता हमें उनके कुमाऊंनी लेखन में ही दिखाई देती है. जहां गुमानी ने अपनी कुमाऊंनी रचनाएं छुटपुट और परंपरागत छंदों में दी है,वहीं सती का कुमाऊंनी लेखन विस्तृत है और इसके लिए उन्होंने लोकसाहित्य के एक विशेष छंद को ग्रहण किया. चौदह (आठ+छह) वर्णों के इस छंद को पुत्तुलाल शुक्ल ‘चंद्राकर’ ने ‘न्योली छंद’ कहा है. सती निश्चित रूप से कुमाऊंनी के पहले कवि हैं,जिन्होंने अपनी लम्बी कविताओं में इस मुक्तक वर्णिक छंद का प्रयोग किया था.इससे कविता न केवल भाषा अपितु छंद के स्तर पर भी कुमाउंनी हो गई.” (शिवदत्त सती : कुमाउंनी कविता का मध्य स्तम्भ,पहाड़-9,पृ.127)
दरअसल, कुमाउंनी दुदबोलि और उसमें रचित लोकसाहित्य के रचना संसार की दृष्टि से मथुरादत्त मठपाल जी काव्य मूल्यांकन के एक ऐसे सटीक पारखी हैं, जिसमें ननु च की कोई गुंजाइश नहीं रहती.जो भी कहते हैं सीधा और सपाट शास्त्रीय और युगमूल्यों के परिप्रेक्ष्य में कहते हैं. कुमाऊंनी ‘न्योली’ गीतों की आज सब बात करते हैं किंतु ‘न्योली’ छंद के काव्यशास्त्रीय स्वरूप को जानना हो तो मठपाल जी ही हमें शास्त्रीय दृष्टि से समझा पाएंगे कि कुमाऊँ के इस लोक प्रसिद्ध न्योली छंद में चौदह वर्ण होते हैं और आठवें पर यति होती है और साथ ही उस गीत का उदाहरण भी बताएंगे जो लोकसंस्कृति से ही उपजा भी हो –
“धारै में देवी को थान,दूदै ले नवायो.
त्यर जुठो मै नि खांछयू,माया ले खवायो..”
अभी कुछ समय पहले मैं न्यायदेवता ग्वेल ज्यू पर एक समीक्षात्मक पुस्तक लेखन के सम्बंध में अब तक लिखित साहित्य के बारे में जानकारी जुटा रहा था तो मुझे कुमाऊं के संस्कृत विद्वान् डा.कीर्ति वल्लभ शक्टा द्वारा रचित कुमाउंनी महाकाव्य ‘न्यायमूर्ति गोरल’ की प्रस्तावना में लिखे मथुरादत्त मठपाल जी के “प्रशस्ति के दो आखर” पढ़ने का मौका मिला.इस प्रस्तावना में सर्वप्रथम मठपाल जी ने पहले तो अब तक ग्वेल देवता पर लिखे गए कुमाऊंनी साहित्य का संक्षिप्त सर्वेक्षण किया और उसके बाद अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा- “यद्यपि कुछ कुमाऊंनी रचनाकारों ने अपनी कुछ कृतियों को महाकाव्य बताया है,परन्तु मेरी दृष्टि में तो वे प्रबन्धकाव्य की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते हैं. मेरे विचार में तो महाकाव्य की कसौटी पर कसने पर डा.शक्टा की यह कृति ‘न्यायमूर्ति गोरल’ ही कुमाउँनी का प्रथम महाकाव्य होने की अधिकारी है.”
इस आलोच्य महाकाव्य ‘न्यायमूर्ति गोरल’ की विषयवस्तु,उसके पौराणिक चरित्र और प्रयुक्त होने वाले छंदों,भाषासौष्ठव आदि का भी बहुत बारीकी से आकलन करते हुए मठपाल जी ने महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है- कि “कुमाउँनी बोली के प्रायः एक दर्जन विभेदों में पूर्वी क्षेत्र में बोली जाने वाली उपबोलियों में बड़ी मधुरता है.इस काव्य में काली कुमाऊं (चंपावत लोहाघाट क्षेत्र की) कुमैयां या कुमांई बोली का प्रयोग इसके भाषा-सौष्ठव को बहुत बढ़ा देता है.यही क्षेत्र इस महाकाव्य के नायक और उसकी गाथा के गायक दोनों का ही मूल अभिजन है. छंद को ध्यान में रखकर कवि ने संस्कृत के अनेक शब्दों का सफल प्रयोग किया है.” (‘न्यायमूर्ति गोरल’ : प्रशस्ति के दो आखर,17,जुलाई,2015)
दरअसल,मठपाल जी एक समीक्षक के रूप में किसी कृति के प्राक्कथन के रूप में जो कुछ सारगर्भित लिखते हैं वह उस कृति के अलावा उसके ऐतिहासिक परिदृश्य, उस दुदबोली की भाषाई अस्मिता और उसकी सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा होता है.
मठपाल जी ने भारतीय भाषाओं के मध्य आपसी सौहार्द की भावना को प्रोत्साहित करने के प्रयोजन से हिंदी की कविताओं को भी कुमाऊंनी में रूपांतरित किया. निराला और पन्त जैसे छायावाद के महान कवियों की टक्कर का साहित्य रचने वाले गढ़वाल के हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल (1919- 1947) की हिंदी कविताओं का मथुरादत्त मठपाल ने कुमाऊंनी में बहुत सुंदर अनुवाद किया.यहां उसका एक उदाहरण प्रस्तुत हैं-
बर्त्वाल जी की मूल कविता-
“जहाँ विकल हिम शैलों से
करते मृदु गुँजन झरने.
जहाँ नील नभ की छवि को
मेघ सदा लगते भरने.
चीड़ों में गुँजन करती चलती
मादक पवन जहां.
थे रत्नों से शैल भरे,
थी शैलों से भरी मही.
हिमगिरी के अंचल में था,
मेरा भी घर यहीं कहीं..”
मठपाल जी का कुमाऊंनी अनुवाद देखिए –
“उदेख भरी ह्यूं- हिंगवन संग
करछी गुणमुण छीड़ा जौपन.
निल अगास’क छैल कैं नित,
भरनै रौछीं बादो जौपन.
सल्ल बोटन में सुसाट पाड़नै
चलछी मादक पौन जती.
रतन भरी ढै-डुडण्रा छी,
ढै़-डुडण्रा भरी छी सकल मही,
बसी हिमांचल’क आंचव में छी,
मयर घर लै यती कईं ..
अगस्त 2019 को चन्द्रकुंवर बर्त्वाल स्मृति शोध संस्थान समिति द्वारा कुमाऊंनी साहित्यकार मथुरादत्त मठपाल जी को साहित्य के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘हिमवन्त साहित्य सम्मान’ से सम्मानित किया गया. मठपाल जी को देहरादून में हुए उत्तराखंड लोकभाषा सम्मेलन में 16 अप्रैल, 2011को उत्तराखंड भाषा संस्थान द्वारा डॉ.गोविंद चातक सम्मान से अलंकृत किया गया था.वर्ष 1988 में उत्तर प्रदेश निधि संस्थान द्वारा उन्हें सुमित्रा नंदन पंत नामित पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है.
आज हम कुमाऊंनी भाषा और उसकी माटी की सुगंध बिखेरने वाले लोकभाषा और लोक संस्कृति को समर्पित ‘दुदबोलि’ के शिल्पकार, साहित्यकार और समालोचक ऋषिकल्प श्री मथुरादत्त मठपाल जी की दीर्घायु और उनकी निरोगी स्वास्थ्य की मंगलकामना करते हुए उनके 80वें जन्मदिन पर अपनी हार्दिक शुभकामनाएं अर्पित करते हैं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)