- विजय भट्ट
जब कफस से लाश निकली उस बुलबुले नाशाद की.
इस कदर रोये कि हिचकी बंध गयी सैयाद की.
कमसिनी में खेल खेल नाम ले लेकर तेरे.
हाथ से तुर्बत बनायी, पैर से बबार्द की.
शाम का वक्त है, कबरों को न ठुकराते चलो.
जाने किस हालत में हो मैयत किसी नाशाद की.
भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी. ये दौर था वर्ष 1930 के अगस्त माह के दूसरे सप्ताह का. जब चंद्रशेखर “आजाद”, हजारीलाल, रामचंद्र, छैलबिहारी लाल, विश्वम्भरदयाल और दुगड्डा निवासी उनके साथी क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत दिल्ली से गढ़वाल की ओर चल पड़े. यह सभी भवनी सिंह रावत के दुगड्डा के पास नाथूपुर गांव जा रहे थे. कोटद्वार में रेल से उतर कर सभी दुगड्डा के लिए प्रस्थान करते हैं. दिन का तीसरा प्रहर बीत रहा था. शाम के समय सीला नदी पार कर जंगल के रास्ते सभी आगे बढ़ रहे थे. सुहाने मौसम में पकड़ंडी पर चलते हुए आजाद अपने प्रिय उक्त गीत को गुनगुना रहे थे.
दुगड्डा से दो किमी की दूरी पर जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया था वह ठीक सड़क के किनारे था. इसके किनारे से एक छोटा नाला जंगल से बहता है. जिस कारण वहां पर लोनिवि की ओर से कॉजवे बनाया गया.जिससे खुदाई से पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ. भवानी सिंह के बेटे और हमारे पत्रकार के साथी जगमोहन सिंह रावत बताते हैं, कि कॉजवे के कारण ही पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ. 1972 में इस स्थान पर आजाद पार्क बनाया गया था. जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया उसे स्मृति वृक्ष कहा गया.
भवानी सिंह के पिता नाथूसिंह सेना के अवकाश प्राप्त ऑनरेरी कैप्टेन थे. प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स में सराहनीय कार्य के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें दुगड्डा के पास 20 एकड़ भूमि जागीर के रूप में दी थी. 1927 में वह अपने पुश्तैनी गांव पंचूर चौंदकोट पौड़ी गढ़वाल को छोड़कर जागीर में बस गए थे. उन्ही के नाम से यहां का नाम नाथूपुर पड़ा. भवानी सिंह उन दिनों दिल्ली हिन्दू कालेज में पड़ते थे. जहां उनकी मुलाकात आजाद और अन्य क्रांतिकारियों से हुई थी. भवानी सिंह ने आजाद का परिचय अपने घर में एक वन विभाग के कर्मचारी के रूप में दिया था. बताया कि वह यहां घूमने और जंगल में शिकार करने आए हैं. इस दौरान आजाद ने अंग्रेजों से छिपकर अपने साथियों के साथ दुगड्डा के जंगल में निशाने बाजी का प्रशिक्षण लिया. एक बार जंगल में गोली चलने की आवाज सुनकर दो वन विभाग के अधिकारी वहां पहुंच गए. उन्होंने पूछा कि यह सब क्या है. तो भवानी सिंह ने कहा कि मैं नाथू सिंह जी का लड़का हूं और ये सब उनके दोस्त हैं. यहां वह निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे हैं. जिसके बाद अफसर वापस लौट गए. दुगड्डा के पास एक दिन साथियों के कहने पर आजाद ने एक कौल के पेड़ पर निशाना लगाया था. वह पेड़ आज भी मौजूद है. जिस पर कई साल तक आजाद की गोली का निशान दिखाई देता रहा.लेकिन पेड़ अब जर्जर हाल में है.
वर्ष 1975 में वन विभाग ने लोनिवि को लैंड ट्रांफर की और दुगड्डा से रथुवाढाब-धूमाकोट मार्ग का निर्माण शुरू हुआ. दुगड्डा से दो किमी की दूरी पर जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया था वह ठीक सड़क के किनारे था. इसके किनारे से एक छोटा नाला जंगल से बहता है. जिस कारण वहां पर लोनिवि की ओर से कॉजवे बनाया गया.जिससे खुदाई से पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ. भवानी सिंह के बेटे और हमारे पत्रकार के साथी जगमोहन सिंह रावत बताते हैं, कि कॉजवे के कारण ही पेड़ की जड़ों को नुकसान हुआ. 1972 में इस स्थान पर आजाद पार्क बनाया गया था. जिस पेड़ पर आजाद ने निशाना लगाया उसे स्मृति वृक्ष कहा गया. वर्ष 2005 में आखिर यह पेड़ टूट गया. जिसे बाद में पार्क में खुले में रखा गया. जहां रख रखाव के अभाव में दीमकों ने पेड़ को चट कर दिया. देहरादून वन अनुसंधान की टीम जब वहां गई तो पेड़ अधिक क्षतिग्रस्त होने से वह उसे देहरादून वन अनुसंधान संस्थान नहीं ला पाए.लेकिन 2018 में वन विभाग ने पार्क का सुंदरीकरण कर आजाद की मूर्ति लगाई. पेड़ के लिए भी टिन शेड बनाया लेकिन. आज भी शहीदों की यादों पर बदहाली की धूल पड़ी है. कुछ ही समय में पेड़ नष्ट हो जाएगा. लेकिन पूर्व की सरकारों की ओर से और राज्य गठन के 20 साल बाद भी इस ऐतिहासिक धरोहरों के रख रखाव के लिए कोई ठोस पहल नहीं हुई है.
हर साल ही आजाद की शहादत दिवस पर दुगड्डा में 27 फरवरी को शहीदी मेले का आयोजन होता है. भवानी सिंह के जन्म दिन 08 अक्तूबर को कार्यक्रम कर इतिश्री हो जाती है. लेकिन जिस मकान में हमें आजादी दिलाने वाले चंद्रशेखर आजाद सहित कई क्रांतिकारी रहे हों, आज भी वह उपेक्षित पड़ा है.स्वतंत्रता दिवस और अन्य राष्ट्रीय पर्व पर हम जश्न मनाकर शहीदों को याद कर इतिश्री कर देते हैं.लेकिन शायद इन सपूतों के निस्वार्थ बलिदान का मोल हम भूलते जा रहे हैं, ऐसा न होता तो उनकी निशानियों पर ऐसी धून न जमी होती. ऐसे ही आजाद की यादों को साझा करने के लिए मैने अपने पत्रकारिता के दौरान जगमोहन सिंह रावत के घर जाकर इन सारी जानकारियों को एकत्रितकर आपके लिए सहेजा है.इसमें कुछ जानकारियों आगे भी अपडेट की जाएगी.
क्यों आए थे “आजाद” गढ़वाल
काकोरी कांड के बाद अंग्रेज आजाद को ढूंढ रहे थे. अंग्रेजों से छिपकर प्रशिक्षण लेकर आगे की रणनीति बनाने के लिए आजाद अपने साथियों के साथ दुगड्डा आ गए थे. कोटद्वार से दुगड्डा की दूरी करीब 19 किमी है. जबकि दुगड्डा से नाथूपुर की दूरी पांच किमी और आजाद पार्क की दूरी दो किमी है. इसी के पास दुगड्डा ब्लॉक मुख्यालय है. अब यह पूरा क्षेत्र लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत आता है.यह रिजर्व फारेस्ट क्षेत्र है.
नाथूपुर के दो मंजिला मकान में रुके थे आजाद
नाथूपुर में जिस घर में आजाद और उनके साथी रुके थे. वह दो मंजिला लकड़ियों से बना घर आज भी वैसे ही है. भवानी सिंह के बेटे जगमोहन सिंह रावत अब उस घर की देख रेख करते हैं और उसी में रहते हैं.लेकिन सरकार की ओर से इस पर कोई पहल नहीं की गई है.
कीर्ती स्तंभ
दुगड्डा-धूमाकोर्ट मार्ग पर आज भी चंद्र शेहर आजाद का कीर्ती स्तंभ है, जो अब जर्जर हाल में है. लेकिन आजादी की गवाही देने वाले यह ऐतिहासिक धरोहरों का आज जरूरत है तो संरक्षण की.
स्मृति वृक्ष
जिस कौल के पेड़ पर आजाद ने अचूक निशाना लगाया था. आज भी वह जर्जर हाल में एक टिन शेड में आजाद पार्क में रखा गया है.लेकिन आखिर कितने दिन तक उसे हम बचा पाते हैं.
नाथूपुर में ली थी आजाद ने शरण
नाथूपुर दुगड्डा के पास है. कोटद्वार तक रेल मार्ग था. आगे पैदल ही जाना था. नाथूपुर चारों और से जंगल से घिरा था. जहां किसी को भी आसानी से खोजना नामुकिन था.इसके साथ ही जंगल में निशानेबाजी के लिए सबसे अच्छा था.
भवानी सिंह रावत
भवानी सिंह उत्तराखंड के अकेले ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिन्होंने क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ में सम्मलित होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया. वे संगठन के प्रधान सेनापति चंद्रशेखर आजाद के बलिदान तक उनके साथ रहे. लेकिन आज लोग उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानते और न ही आने वाली पीड़ी को कुछ बता पाते हैं.
राष्ट्रीय दिवस पर ही शहीदों की याद क्यों ?
कुछ दिन बाद पंद्रह अगस्त आने वाला है. जिसमें तमान सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा आजादी के वीर सपूतों को याद कर फिर उनकी तस्वीरें अगले साल के लिए रख दी जाएंगी. देहरादून परेड ग्राउंड और दिल्ली में भी जश्न के सरकारी बड़े बड़े इंतजाम होंगे. सफेद पोश भी अच्छा भाषण देकर चले जाएंगे. लेकिन देश के लिए निस्वार्थ बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों को शायद हम भूल रहे हैं. अगर ऐसा नहीं है, तो यू उनकी निशानियों को दीमक चट न करते. उनके कीर्ती स्तंभ धूमिल न होते, स्मृति वृक्ष अपनी बदहाली पर आंसू न बहाता.नाथूपुर का ऐतिहासिक घर बदहाल न होता, ऐसे ही तमान ऐतिहासिक स्थलों को सिर्फ राष्ट्रीय दिवसों पर ही याद न किया जाए.अपने गौरवपूर्ण इतिहास के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए सभी तैयार रहे. यूं सरकार से भी अधिक अपेक्षा लगाता कब तक ठीक है, जब तक तुमारे सपनों को स्मृति वृक्ष की तरह दीमक चट न कर जाएं…..
अगले अंक में फिर मिलेंगे एक नए ट्रैवलॉग के साथ: आपके सुझाव और सुधार सादर आमंत्रित हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Tnx