फकीरा सिंह चौहान स्नेही
महासू देवता को जौनसार-बावर में ही नहीं अपितु पूरे उत्तराखंड हिमाचल में न्याय के देवता के रूप में पूजा जाता है. महासु किसी एक देवता का नाम नहीं बल्कि चार भाइयों के नाम से महासु बंधु विख्यात है. इनका मुख्य मंदिर देहरादून से 190 किलोमीटर दूर तमसा नदी के पूर्वी तट पर जौनसार बावर क्षेत्र के हनोल नामक स्थान पर प्राचीन काल से ही स्थापित है. मंगोल नागर शैली से मिश्रित स्थापत्य यह मंदिर अद्भुत काष्ट कला एवं पथरो से निर्मित है. समुद्र तल से 1250 मीटर की ऊंचाई पर बने वर्तमान मंदिर का निर्माण नवीं शताब्दी के आसपास का बताया जाता है जबकि, एएसआइ (पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग) के रिकार्ड में मंदिर का निर्माण 11वीं व 12वीं सदी का होने का जिक्र है. वर्तमान मे इसका संरक्षण भी एएसआइ ही कर रहा है.
हनोल शब्द की उत्पत्ति यहां के एक ब्रह्मण हुणाभाट के नाम से मानी जाती है. जिसके सात पुत्रों को किरमिर दानव अपना भक्षण के शिकार बना चुका था. अब उसकी नजर उसके पत्नी तथा भांजी पर थी जिन्हें हुणाभाट किसी भी रूप में खोना नहीं चाहता था. दानव के आतंक से तंग आकर बावर क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए हाटेश्वरी देवी के निर्देश पर उसने कूड़ू काश्मीर की यात्रा करी तथा चार भाई महासू को इस क्षेत्र में आने के लिए आह्वान किया. इन चारों देवताओं ने किरमीर नामक दानव का अंत करके हनोल में जाकर अपना मूल थान बनाया साथ ही अपने-अपने राज्य शासन का बंटवारा भी किया. ऐसी भी मान्यता है कि इससे पूर्व हनोल नामक स्थान पर विष्णु नामक देव का वास था. चार महासू ने अपनी कलाओं को दिखाकर विष्णु से शर्तों पर हनोल को जीत लिया था तथा इसे अपनी संयुक्त राजधानी बनाया. मूल रूप से चार भाई माहसू को धरती के ऊपर सबसे बड़े देवता के रूप में माने जाते है. यही चार महाशक्तियां 33 कोटि देवी देवता, तीन लोक, 9 खंड, 9 लाख कालका, 64 योगिनी, 5200 वीर, तथा 9 लाख काल परियों के स्वामी माने जाते हैं.
लोगो का मानना है कि महासू देवता “न्याय और आस्था के देवता है, और यह सत्यता भी है इस महासू देवता के मंदिर को न्यायालय कहा जाता है”. कहा जाता है कि यदि किसी के साथ कोई भी चल कपट या चोरी बुरी तथा अत्याचार होता है तो महासू देवता की शरण में जाकर मात्र एक रूपया माहसू के नाम का संकल्प चढ़ाकर न्याय प्राप्त होता है. ऐसी भी किदवंती है कि इस स्थान पर माता कुंती ने अपने पांचों पुत्रों के साथ कुछ समय तक इस देव की शरण में आश्रय लिया था. इसी कारण इस मंदिर को आज भी महत्व दिया जाता है.
महासू को चारों भाइयों के संयुक्त नाम से जाना जाता हैं जो मैंद्रथ नामक स्थान पर प्रकट हुए थे, परंतु फिर भी इन के अलग-अलग नाम शक्ति और मंदिर थान है. जैसे:
- बाशीक महासू
- पबासी महासू
- बोठिया महासू (बौठा महासू)
- चालदा महासू
इनमें बाशीक महासू सबसे बड़े हैं, जबकि बौठा महासू, दूसरे नंबर पर तथा पबासी महासू तीसरे एवं चालदा महासू सबसे छोटे चौथे नंबर के है. बौठा महासू का मंदिर हनोल में है. बाशीक महासू का मैंद्रथ में और पबासी महासू का मंदिर बंगाण क्षेत्र के ठडियार व देवटी-देववन पर्वत में है. जबकि, चालदा महासू हमेशा जौनसार-बावर, बंगाण, किरण क्षेत्र फतह-पर्वत व हिमाचल क्षेत्र के प्रवास पर रहते हैं.
हनोल स्थित मंदिर अद्भुत शक्तियों तथा कलाओं से परिपूर्ण महाराज बोठा महासू देवता का सिद्ध पीठ मुख्य मंदिर है. इस मंदिर में मुख्य रूप से बोठिया महासू (बौठा महासू) की पूजा होती है. बेशक चारो देवता हुणाभाट के द्वारा खेत को चांदी के हल तथा सोने के जूते पहन कर जोताई करते समय मैंद्रथ नामक स्थान पर प्रकट हुए. परंतु मुहूर्त काल से पूर्व खेत जोतने के कारण यह बताया जाता है कि जब महासू देवता अवतरित हुए तो उनके घुटने में हल के फाल से हल्की सी चोट लग गई थी. लेकिन वह अद्भुत शक्ति बुद्धि और कलाओं से परिपूर्ण थे. जिस कारण तीनों भाइयों ने उनको हनोल में बैठा राज देकर राज करने की सहमति प्रदान की. इसीलिए उनको बोठा महासू नाम से जाना जाता है. मैंद्रथ नामक स्थान पर बाशीक महासू की पूजा होती है.
बाशीक महाराज भी जब अवतरित हुए तो उनके दृष्टि में घास के सींक से एक आंख में चोट लग गई थी. इसीलिए उनको मैद्रथ मैं ही राज करने की सहमति बनी, जो हनोल से थोड़ी सी दूरी पर ही स्थित है. टौंस नदी के दायें तट पर बंगाण क्षेत्र में स्थित ठडियार (उत्तरकाशी) गांव में पबासी महासू पूजे जाते हैं. ठडियार हनोल से करीब तीन किलो मीटर के दूरी पर है. पबासी महाराज के प्रकट होते समय कान में चोट लग गई थी. सबसे छोटे भाई चालदा महासू जो निर्विघ्नं प्रकट हुए तथा भ्रमणप्रिय राज करते हैं यानी चलते फिरते देवता हैं, इसीलिए उनको छत्रधारी चालदा महाराज कहते हैं जो कि 12 वर्ष तक उत्तरकाशी (पांशी बील) एवं हिमाचल तथा 12 वर्ष तक देहरादून जिले में जोनसार बावर (शांठी बील) मे भ्रमण करते हैं. छत्रधारी चालदा महाराज एक-एक वर्ष तक अलग-अलग स्थानों पर पूजाया जाता है. चारों भाइयों के अंत में माता देवलाड़ीं तथा चार भाइयों के चार वीर देवताओं में से प्रत्येक में एक बीर (परिचारक) होता है. वे कपला वीर, कौलू,वीर कैलाथ वीर और शेड़कुड़िया वीर तथा अंत में समस्त देव दल प्रकट हुआ. जिन्होंने इस क्षेत्र में राक्षसो का विनाश किया. तथा मानव जाति का कल्याण किया.
जौनसार-बाबर बहुत बड़ा क्षेत्र होने के कारण नीचे वाले जौनसार में बैराठ गढ़ के राजा शामूसाही का क्रूर आतंक हुआ करता था जिस के आतंक से निचले वाला जौनसार बहुत परेशान और त्रस्त था. जौनसार से चार गणमान्य लोगों को देवता से मिलने के लिए हनोल भेजा गया उन्होंने महासू देवता को अपना सारा संकट बताया, उनके आराधना से माहसू महाराज तथा चालदा महाराज थैना मे प्रकट होकर क्रूर राजा शामूशाही का अंत किया था. उसी समय चार गणमान्य लोगों को चार चौंतरू की उपाधि भी प्रदान की गई थी. थैना नामक स्थान पर माहसू का दूसरा प्रसिद्ध सिद्धपीठ मंदिर है. तथा चालदा महाराज वहां पर भी कई खतों में भ्रमण करके राज करते हैं. चालदा महाराज के चिन्ह अंश स्वरूप में उनकी पालकी भ्रमण करती है.
महासू के मुख्य धाम सिद्ध पीठ मंदिर हनोल में सुबह-शाम नौबत बजती है और दीया-बत्ती भी जलती है. इसके अलावा हिमाचल तथा जौनसार के गांव मे माहसू महाराज के बहुत सारे मंदिर है, परंतु जौनसार में बोठा महासू महाराज के थैना, बिसोई, लखवाड़ धीरोई, बुल्लहाड़ वर्तमान में आकर्षण तथा भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया है. चार भाई महासू का अपना बहुत बड़ा साम्राज्य है. जो उत्तराखंड और हिमाचल के कई जिलों तक फैला हुआ है. उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है. उत्तराखंड तथा हिमाचल के इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है. वर्तमान में महासू देवता के भक्त मन्दिर में न्याय की गुहार करते हैं और उसमें अर्जी लगाते है, जिससे उनको न्याय तुरन्त मिलता हैं. पौराणिक काल में इस पूरे महासू साम्राज्य को महासुई क्षेत्र के नाम से जाना जाता था.
जौनसार-बावर में महासू महाराज को ईष्ट देव के रूप में पूजा जाता है. तमाम अन्य ग्राम देवता, क्षेत्रपाल, देवी देवता भी महासू देवता के हुक्म की तालीम अदब से करते हैं. जौनसार बावर की संस्कृति सभ्यता, तीज त्यौहार, अधिकतर माहसू देव के नाम पर ही मनाए जाते हैं. किसी भी त्योहार की प्रथम शुरुआत इन्हीं के नाम से होती है. घर मकान शादी विवाह जन्म मरण के संस्कारों पर प्रथम पूजा महासू देव की ही होती है. फसल का प्रथम भाग भी महासू देवता के नाम पर ही चढ़ाया जाता है. अधिकतर अनसुलझे विवादित मस्ले जर जमीन तथा जोरु का निपटारा जो मानव के सामाजिक न्याय से नहीं सुलझता है वह भी महासू के मंदिर के न्यायालय में छोड़ दिया जाता है. महासू देवता अपने शक्ति से तुरंत अपने भक्तों को न्याय दिलाते हैं तथा दोषियों को दंड का भोगी बनाते हैं. लोगों को इस देवता के प्रति बेहद आस्था और विश्वास है. इनके प्रति लोगों का विश्वास तथा आस्था देश विदेश तक बढ़ती जा रही है. जो भी श्रद्धालु दुखी होकर इन के मंदिर में आते हैं. महासू महाराज इनकी मनोकामना अवश्य पूरी करते हैं.
महासू महाराज के जौनसार बावर तथा हिमाचल बंगाण क्षेत्र में अपने कारिंदे हैं. जिसमें वजीर,महाते, पुजारी, ठाणी, भंडारी, राजगुरु, डडियारी तथा नौबत बजाने के लिए दयाड़ उनकी सेवा में हर वक्त उपलब्ध रहते हैं.
वैसे तो हर त्योहार में माहसू महाराज की पूजा की जाती है परंतु फिर भी उनके अपने कुछ खास धार्मिक त्यौहार है, जैसे जागड़ा (जगराता जिसको आज उत्तराखंड सरकार राज्य धार्मिक मेले के रूप में मनाती है. बसंत पंचमी, विशू की जातरा तथा दीपावली (दीयाईं) आदि प्रमुख त्यौहार है.
आज जिस प्रकार से इस सिद्ध पीठ मंदिर की प्रसिद्धी और मान्यता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. हनोल मंदिर पूरे उत्तराखंड में लोगों के धार्मिक आस्था तथा न्याय का प्रतीक बन गया है. आज हनोल महासू मंदिर का धाम उत्तराखंड के पांचवे धाम के रूप में विख्यात हो रहा है. जिसके प्रति उत्तराखंड की सरकार भी सजग है.
(लेखक भारत सरकार रक्षा मंत्रालय के विभाग एएफएमएसडी लखनऊ में कार्यरत है. तथा उत्तराखंड के जाने-माने गायक कलाकार गीतकार तथा साहित्यकार है.)