संसारभर का दुख बाँटती महादेवी  

मीना पाण्डेय

महादेवीमहादेवी mahadevi vermaनिशा को, धो देता राकेश
चाँदनी में जब अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधुमदिरा का मोल;

गए तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण!
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन गान.

महादेवी

महादेवी जितनी छायावाद की एक महान कवयित्री के रूप में महत्वपूर्ण हैं उतनी ही महत्वपूर्ण है उनकी जीवन यात्रा और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ संकीर्ण विचार वाले समाज में अपनी शर्तों के साथ जीवन जीने का प्रयास और काफी हद तक उसमें विजय होना. कविता को संसार का सुख-दुख बांटने का माध्यम मान स्वयं एक सर्वप्रिय कवियत्री के soandदुलार उस कूssक, हूssक, घू ssघू, हूssहू के नाम कर देना जिसे हम रोजमर्रा के दिनों में सुन कर भी अनसुना कर देते हैं. शायद ही कोई  हो जिसने अपने नीरस पाठ्यक्रम में गिल्लू, गौरा जैसी कहानियों को बेहद रस के साथ ना पढ़ा हो. वह सचमुच महादेवी थी अपने नाम में ही नहीं अपने कर्म, विचार व andसादगीपूर्ण व्यक्तित्व में भी.

इलाहाबाद

जितना भी उनका गद्य व andपद्य पढ़ पाई, मुझे कहीं पर भी वह दुःख व andपीड़ा की कवियत्री नहीं लगी. महादेवी जी अपनी रचनाओं में संसार भर का दुख बांटने वाली कवियत्री हैं. वह ऐसी मां है जो अपनी दुखी, निर्बल व andपीड़ित संतानों को श्वेत,सुखद अपने आंचल में भर लेती है तथा संतानों के दुख से विचलित उसका हृदय कविता के रूप में बह उठता है. कविता दर कविता खोज because

लछमा

1966 में उनके पति की मृत्यु andके बाद वे स्थाई रुप से इलाहाबाद आ गईं और रचना कर्म करती रहीं. शिक्षा को जीवन के पहले पायदान में रख कर उन्होंने न केवल खुद को सशक्त किया वरन् जीवन के विभिन्न पड़ावों में जिन भी महिलाओं के संपर्क में वे आईं उन्हें भी शैक्षिक व andबौद्धिक रूप से सशक्त करती गईं. उनकी ‘लछमा’  कहानी इस ओर महत्वपूर्ण है. लछमा पर्वतीय नारी के  संघर्षमय जीवन का प्रतिनिधित्व करती है. 

जन्म

उनका जन्म फर्रुखाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ था. प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर, andमध्य प्रदेश में व उच्च शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई. बहुत छोटी उम्र से उन्होंने कविताएं लिखना प्रारम्भ कर दिया था और दसवीं तक आते-आते उनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होने लगी. 9 वर्ष की आयु में उनका बाल विवाह कर दिया गया. परन्तु वे ताउम्र एक साध्वी का सा जीवन जीतीं रहीं. 1966 में उनके पति की मृत्यु  के बाद वे स्थाई रुप से इलाहाबाद आ गईं और रचना कर्म करती रहीं. andशिक्षा को जीवन के पहले पायदान में रख कर उन्होंने न केवल खुद को सशक्त किया वरन् जीवन के विभिन्न पड़ावों में जिन भी महिलाओं के संपर्क में वे आईं उन्हें भी शैक्षिक व बौद्धिक रूप से सशक्त करती गईं. उनकी ‘लछमा’  कहानी इस ओर महत्वपूर्ण है.

नारी

लछमा पर्वतीय नारी के  संघर्षमय जीवन का प्रतिनिधित्व करती है. विषम जीवन वह निरस परिस्थितियों के मध्य मुस्कुराहट के मोती वहां की स्त्रियां जुटा ही लेती हैं. पर्वतीय स्त्री के भीतर बहुत andगहरे तक सैंध लगाती है कहानी लछमा. पहाड़ों से उन्हें प्रेम था. नैनीताल के रामगढ़ स्थान पर रहकर भी काफी समय तक महादेवी जी की साहित्य साधना चलती रहीं. उन दिनों पहाड़ के परिवेश वह परिस्थितियों को उन्होंने निकट से देखा. आज भी पहाड़ों की पगडन्डी पर घास ढोती कितनी ही लछमाएं मिल जाएंगी.

स्त्री

वास्तव में, आज जिस स्त्री विमर्श ने वर्तमान हिन्दी साहित्य में एक वृहद आंदोलन का रूप ले लिया है उसकी चर्चा महादेवी वर्मा ने 1942 में ‘श्रृंखला की कड़ियां’ में कर दी थी. and यद्यपि स्त्री समस्याओं के नाम पर होs हल्ला वे नहीं मचातीं तथापि स्त्रियों की आधारभूत समस्याओं को ना केवल अपने गद्य के माध्यम से रेखांकित करती हैं वरन तार्किक समाधान की ओर भी लेकर चलती हैं.why

महादेवी

महादेवी

छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में से एक महादेवी जी का रचना संसार बहुत व्यापक था. गद्य, पद्य, बाल साहित्य विधाओं में लेखन के साथ उन्हें चित्रकला व संगीत में भी गहरी रुचि थी. and अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चांद’ व’ ‘साहित्यकार’ के अवैतनिक सम्पादन के रूप में भी वे महत्वपूर्ण कार्य करती रहीं. महादेवी वर्मा को देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त करने का गौरव मिला है.उनकी कृति ‘यामा’ के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया.

वे मुस्काते फूल, नहीं
जिनको आता है मुरझाना
वे तारों के दीप नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना

प्रेरणा

इस प्रेरणा के साथ जीवन के अंतिम समय तक वे andरचना कर्म करती रहीं और अंततः 11 सितंबर, 1987 को उनका देहांत हो गया.अपनी प्रिय सहेली व ‘खूब लड़ी मर्दानी’ जैसी कालजयी कविता रचने वाली प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान पर लिखे अपने एक संस्मरण में महादेवी लिखती हैं-

बात

“एक बार बात करते-करते मृत्यु की चर्चा चल पड़ी थी. मैंने कहा,’मुझे तो उस लहर किसी मृत्यु चाहिए जो तट पर दूर तक आकर चुपचाप समुद्र में लौट कर समुद्र बन जाती है.’and  सुभद्रा बोली,’मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है. मैं चाहती हूं,’मेरी एक समाधि हो जिसके चारों नित्य मेला लगा रहे, बच्चे खेलते रहें, कोलाहल होता रहे. अब बताओ तुम्हारी नाम धाम रहित लहर से यह आनंद अच्छा है या नहीं.”

हिंदी

(लेखिका सीसीआरटी भारत सरकार द्वारा andफैलोशिप प्राप्त व विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हैं. देश की कई पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित. हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन से’ की संपादक तथा भातखंडे विद्यापीठ लखनऊ से कत्थक नृत्य में विशारद हैं)

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