— दिनेश रावत
वसुंधरा के गर्भ से सर्वप्रथम जिस पादप का नवांकुर प्रस्फुटित हो जीवजगत के उद्भव का आधार बना है, लोकवासियों द्वारा उसे आज भी पूजा-अर्चना में शामिल किया जाता है. इसे लोकवासी ‘छामरा’ के रूप में जानते हैं।
लोककाव्य के गुमनाम रचनाकार ऐसी काव्यमयी रचनाएं लोक को समर्पित कर गए, जो कालजयी होकर लोकवासियों की कंठासीन बनी हुई हैं. ये रचनाएं जीवित होकर आज भी उस काल, समय तथा सौरभ लिए प्रत्यक्ष रूप में लोकवासियों के लिए स्वीकार्य एवं हृदयग्राही बनी हुई है.
मध्य हिमालयी क्षेत्र में प्रचलित लोकसाहित्य की इन विधाओं में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं समसामयिक विषयों के साथ-साथ महाभारत एवं रामायणकालीन प्रसंग भी लोक भाषा के विशिष्ट लावण्य से रचे बसे हैं. लोक के अनाम कवियों ने ऐसी ही एक रचना में महाभारत के कालक्रम यानी आदि से अंत को समेटने का साहसिक प्रयास मिलता है. महाभारतकालीन देशकाल, परिस्थितियों को मध्य में रखकर रची गई यह रचना न केवल सृष्टि के आदि से अंत तक का बखान करती है, बल्कि महाभारत होने के पीछे के रहस्य को भी उदात्त रूप में उद्घाटित करती है. यथा-
पैलि उपचि कालै बादलऽ
तब उपचि धरती-पिरथवी
तब उपचि माता धरती-2।
तबऽ उपचि छामा की डालि
माता नऽ गौंतऽ सींजी
तबऽ माता नऽ धूपऽ धुपैई
छामा कि डालि दोपति होईगी
छामा कि डालिई चैपतिई होईगी।’
अर्थात सृष्टि के उद्भव के समय अखिल ब्राह्मांड में सर्वप्रथम काले बादल उमड़े. गर्जनाएं हुई और सूर्य से एक तप्त अंश विरल हुआ. मेघों की बूंदाबांदी पाकर पृथ्वी रूपी तप्त अँगारा शीतल होता चला गया और ममत्व की माया से युक्त होकर धरती माँ के रूप में सामने आया. वसुंधरा के गर्भ से सर्वप्रथम जिस पादप का नवांकुर प्रस्फुटित हो जीवजगत के उद्भव का आधार बना है, लोकवासियों द्वारा उसे आज भी पूजा-अर्चना में शामिल किया जाता है. इसे लोकवासी ‘छामरा’ के रूप में जानते हैं। विरान पृथ्वी पर ऐसी कौंपलें फूटती देख माता कुंती अत्यधिक प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति की कामना के साथ नित्य उसका पूजन करती है.
धूप, दीप, गंध, अक्षत, नेवैद्य के अतिरिक्त उसे गौमूत्र व दुग्धा-स्नान करवाकर सींचती है. धरती के गर्भ से फुटा यह नन्हा-सा पौधा माता का वात्सल्य पाकर दिन दुगुनी रात चैगुनी गति से बढ़ता है. इस पर कई कौंपलें एक साथ निकल आती हैं. पूरा पौधा ही लताओं से भरकर हराभरा नहीं होता बल्कि उसके आस-पास अन्य पौधे भी उगने लग जाते हैं.
अट्ठारह दिनों तक चले युद्ध में अंततः पांडवों की विजय होती है। युद्ध में पाँचों पांडवों में से किसी का भी पराक्रम कमतर नहीं रहा फिर भी सम्बंधित लोकगीत में भीम के पराक्रम की विशिष्टता को इस रूप में उद्घाटित किया गया
कुंती इसी पौधे की सेवा साधना में लीन होने के साथ-साथ त्याग, तपस्या में केदारभूमि पधारकर पांडु की सहचर ऋशि-मुनियों की सेवा में लीन हो जाती है. इसके फलस्वरूप अंततः उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है. जिसे लोकगीत की पंक्तियाँ इस रूप में बयां करती हैं-
करिई माताऽ नअ ऋषि-मुनियों की सेवा
जर्मी माताऽ कू राजाऽ युधिष्ठिर
करिई माताऽ न बुआडण्डी की सेवा
जर्मी माताऽ कू गजा कू बादूर
करिई माताऽ न इन्द्र की सेवा
जर्मी माताऽ कू खाति-अर्जुनअ
करिई माताऽ न पंचदेवों की सेवा
जर्मी माताऽ कू सहदेव जतंगीई
करिई माताऽ न पाण्डू की सेवा
जर्मी माताऽ कू कान्च्छू नकुल
माताऽ कुन्ती ऽ पंचपुत्रि ह्वेगि-2।
अर्थात कुंती को ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद स्वरूप धर्मराज युधिष्ठिर, बुआडंडी की सेवा से बलशाली भीम, देवराज इन्द्र की आराधना से धर्नुधारी अर्जुन, पंचनाम देवताओं के पुण्यफल से महान ज्योतिष सहदेव और राजा पांडु से नकुल के रूप में पाँच पुत्रों की प्राप्ति होती है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कुंती ने यद्यपि युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन के रूप में तीन पुत्रों को ही अपने गर्भ से जन्मा। सहदेव व नकुल माद्री के पुत्र हैं फिर भी पारिवारिक एकता के चलते इन्हें प्रचलित लोकगीत में एक साथ इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया गया है. इस प्रकार एक तरफ पांच भाई पाण्डव तो दूसरी तरफ सौ भाई कौरवों का जन्म हो चुका होता है-
तबऽ उपचि साठि कौंरऊं
तब उपचि पाँच पांडव.
अर्थात अब कौरवों की भी उत्पत्ति हो गई है.
कुंती द्वारा पूजा, पाला गया यह नन्हा पौधा अब जंगल में तब्दील होकर विशालकाय भू-खंड को घेर चुका है. इसलिए इस गीत में इन पौधे को ही कौरव तथा पांडवों के बीच उपजे विवाद का कारण माना या बताया गया है. लोकगीत की पंक्तियां दृश्व्य हैं-
कौरऊं बोल्ऊं ई डालि अमारी
पांडौं बोल्ऊं ई डालि अमारी
कौरों-पण्डौं कु महाभारत हईगू
पण्डौं राजों नअ कौरौं हराई।
अर्थात कौरव कहते हैं कि ये पौधा हमारा है और पांडव कहते हैं कि पौधा हमारा है. इसी विषय को लेकर कौरव-पांडवों के मध्य ऐसा युद्ध होता है, जो महाभारत के रूप में इतिहास के पन्नों में अंकित हो जाता है.
इतिहास के पन्नों में दर्ज महाभारत की विभीशिका से सभी परिचित हैं. अट्ठारह दिनों तक चले युद्ध में अंततः पांडवों की विजय होती है। युद्ध में पाँचों पांडवों में से किसी का भी पराक्रम कमतर नहीं रहा फिर भी सम्बंधित लोकगीत में भीम के पराक्रम की विशिष्टता को इस रूप में उद्घाटित किया गया है-
मारि भियांनऽ गैर-घस्यारऽ/मारि भियांनऽ ओख्ल्यार-पन्यार
मारि भियां नऽ बैणि-भाणिज/मारि भियाँ नऽ धरि-धियाणऽ।
अर्थात युद्ध के दौरान भीम इतना आक्रोशित था कि उसके सामने जो भी आ रहा था वह एक सीरे से सबका सफाया करता जा रहा था। नाते-रिश्ते, सगे-सम्बंधी यहां तक कि वह बहिन व भांजों पर गदा उठाने से भी नहीं चूका। इसी पाप से भीम पर कुष्ट पैदा हो गया. गीत साक्षी हैं-
तब भियांली कुष्ट पैदा होई
लाई भियाली केदारी मठऽ
तब भियां कु पापऽ हई मोचन्तऽ.
अर्थात बहिन व भांजों की हत्या करने पर जब भीम पर कुश्ट पैदा हुआ तो अंततः भीम केदारभूमि जाकर शिव की तपस्या में समाधिस्त हो गया. भीम की ऐसी कठोर तपस्या देखकर शिव द्रवित हो जाते हैं और भीम को पाप से मुक्ति प्रदान करते हैं.
(लेखक रवांई क्षेत्र के लोक भाषा, साहित्य एवं संस्कृति संरक्षण की दिशा में प्रयासरत शिक्षाविद् हैं। वर्तमान में पिथौरागढ़ के सीमांत विकास खंड धारचूला के मेतली में सेवारत हैं)
शानदार लेख चाचा जी। आपके द्वारा अक्सर ऐसे लेख पड़ने को मिलते है और बहुत सारी जानकारियां भी मिलती है। Proud of you chachuji.