पितृपक्ष में पुण्यात्मा महामना मदन मोहन मालवीय जी का पुण्यस्मरण!
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
आजादी से पहले कांग्रेस पार्टी में एक ऐसा भी दौर आया था, जब अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल के कारण कांग्रेस के नेता बुरी तरह से बिखरकर तीन-चार खेमों में बँट चुके थे.अंग्रेज हुक्मरान ‘फूट डालो राज करो’ की रणनीति के तहत कांग्रेस को कमजोर करना चाहते थे. उस समय काग्रेस अधिवेशन में कोई आशा नहीं रह गयी थी कि बिखरे हुए नेतागण अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कुछ कर सकेंगे. भारत की आजादी के समर्थक और कांग्रेस पार्टी में हिन्दू विचारों के प्रबल पक्षधर महामना मदनमोहन मालवीय जी,यह बात ताड़ गये कि कांग्रेसी नेताओं के इस वैचारिक मतभेद के कारण अंततोगत्वा अंग्रेजों का षड्यंत्र ही सफल होने वाला था. अतः मालवीय जी अधिवेशन के बीच में ही चुपके से खिसक गए और एक कमरे में तीन बार आचमन लेकर, शांत और ध्यानस्थ मुद्रा में बैठ गए. उन्हें अंतः प्रेरणा हुई और उन्होंने उसी समय ‘श्रीमद्भागवतपुराण’ के ‘गजेन्द्रमोक्ष’ का पाठ किया.
उसके बाद महामना जी ने अधिवेशन में प्रवचन दिया तो कांग्रेस के सारे मतभेद और तनाव समाप्त हो गए और सब बिखरे हुए कांग्रेसी अपने सारे मतभेद भुलाकर फिर से स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष में एकजुट हो गए. महामना जी की इस सद्प्रेरणा से आखिर में अंग्रेजों को भारत छोड़ना ही पड़ा.
महामना मदन मोहन मालवीय जी के बारे में यह रोचक प्रसंग मराठी भाषा में लिखी “श्राद्धमहिमा”,पृ.8-9 में दिया गया है.
दरअसल, अंग्रेजों के विरुद्ध जब स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत सन् 1857 से ही शुरू हो चुकी थी तो उस समय जनआंदोलन को प्रेरणा देने में हिन्दू विचारधारा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी. उस समय महामना मालवीय जी हिन्दू समाज के सर्वमान्य नेता के रूप में मान्य थे. कांग्रेस के बिखराव को समाप्त करके, कांग्रेसियों को एकजुट रखने में महामना मदन मोहन मालवीय जी की सदैव महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी.
परन्तु महामना मदन मोहन मालवीय जी का जन्म कैसे हुआ? इस सम्बन्ध में भी ‘श्राद्धमहिमा’ (पृ.9) में एक रोचक प्रसंग मिलता है,जो वर्त्तमान पितृपक्ष के सन्दर्भ में भी विशेष रूप से प्रासंगिक है.
कीर्तन सुनने में अंग्रेज सैनिकों को बहुत आनंद आया और वे मालवीय जी के पिता का धन्यवाद प्रकट कर उन्हें घर तक पहुंचा आए. यह देखकर मालवीयजी के पिता के मन में यह राष्ट्रवादी चेतना जागृत हुई कि “मेरे कीर्तन से प्रभावित होकर इन अंग्रेजों ने मुझे तो परेशान करना बन्द कर दिया है, किन्तु मेरे भारत देश के लाखों-करोड़ों भाईयों का अंग्रेजों द्वारा जो शोषण हो रहा है, इसके लिए मुझे कुछ करना चाहिए.”
घटनाक्रम इस प्रकार है कि मालवीय जी का जब जन्म भी नहीं हुआ था तो हिन्दुओं की ओर से अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. धार्मिक पर्व और उत्सवों के मौकों पर अंग्रेजी हुकूमत हिन्दू समाज के संगठित होने और सभाएं करने पर पाबंदी लगा दिया करती थी.ऐसे ही माहौल में जब अंग्रेजों ने सख्त ‘कर्फ्यू’ जारी कर रखा था,तो एक बार मालवीय जी के पिता पंडित ब्रजनाथजी कहीं से भागवत पुराण कथा करके पैदल ही घर आ रहे थे. उन्हें मार्ग में जाते देखकर अंग्रेज सैनिकों ने रोका-टोका और उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया. मालवीय जी के पिता अंग्रेज सैनिकों की भाषा नहीं जानते थे और सैनिक मालवीय जी के पिता की भाषा भी नहीं समझते थे. ऐसी असमंजस की स्थिति में मालवीय जी के पिता ने अपना साज निकाला और वहीं पर बैठकर कीर्तन करने लगे. कीर्तन सुनने में अंग्रेज सैनिकों को बहुत आनंद आया और वे मालवीय जी के पिता का धन्यवाद प्रकट कर उन्हें घर तक पहुंचा आए. यह देखकर मालवीयजी के पिता के मन में यह राष्ट्रवादी चेतना जागृत हुई कि “मेरे कीर्तन से प्रभावित होकर इन अंग्रेजों ने मुझे तो परेशान करना बन्द कर दिया है, किन्तु मेरे भारत देश के लाखों-करोड़ों भाईयों का अंग्रेजों द्वारा जो शोषण हो रहा है, इसके लिए मुझे कुछ करना चाहिए.”
बस इसी देशभक्ति के संकल्प को लेकर मालवीय जी के पिता पितृपक्ष में गया जी गये और उन्होंने प्रेमपूर्वक अपने पितरों का वहां श्राद्ध तर्पण किया. श्राद्ध के अंत में उन्होंने दोनों हाथ उठाकर अपने पितरों से प्रार्थना करते हुए कहाः “हे पितरो! मेरे पिण्डदान से अगर आप तृप्त हुए हों, मेरा किया हुआ श्राद्ध अगर आप तक पहुँचा हो तो आप कृपा करके मेरे घर में ऐसी ही संतान दीजिए जो अंग्रेजों को भगाने का काम करे और मेरा भारत आजाद हो जाए.” पिता की पितरों से की गई यह प्रार्थना सफल हुई और उनके घर मदन मोहन मालवीय जी जैसा राष्ट्रभक्त पुत्ररत्न पैदा हुआ.
पंडित मदनमोहन मालवीय जी का जन्म 25 दिसम्बर 1861 को एक भागवतमर्मज्ञ नैष्ठिक ब्राह्मण कुल में प्रयाग में हुआ था. उनके पिता पण्डित ब्रजनाथजी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे तथा श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर अपनी आजीविका अर्जित करते थे. उनकी माता मूनादेवी भी दीन दुखियों की सेवा में सदा तत्पर रहा करती थी. मालवीय जी के पितामह प्रेमधर चतुर्वेदी ने 108 दिन निरन्तर 108 बार श्रीमद्भागवकथा के पारायण का आदर्श प्रस्तुत किया था. महामना जी को धर्मप्रभावना के समस्त संस्कार अपने माता पिता और पितामह से ही मिले थे. तभी तो एक धर्मपरायण परिवार के घर में महामना जैसा पुत्ररत्न प्राप्त हुआ जिसने बड़ा होकर न केवल हिन्दूधर्म को एक सांस्कृतिक पहचान दी बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया.
मदनमोहन ने प्रयाग की धर्म ज्ञानोपदेश तथा विद्याधर्म प्रवर्द्धिनी पाठशालाओं में संस्कृत का अध्ययन किया. उसके पश्चात् उन्होंने म्योर सेंट्रल कालेज से 1884 ई० में कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी० ए० की उपाधि ली.
सात वर्ष की अवस्था में ही मदनमोहन को धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला के अध्यापक देवकीनन्दन मालवीय माघ मेले में ले जाकर मूढ़े पर खड़ा करके व्याख्यान दिलवाया करते थे. शायद इसका ही परिणाम था कि कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन (1886) में महामना जी ने अंग्रेजी के प्रथम भाषण की वक्तृत्वकला से ही वहां कांग्रेस के प्रतिनिधियों को मन्त्रमुग्ध कर दिया था. उस समय के विद्यमान नेताओं और चिंतकों में भारत देश के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के व्याख्यान कर्त्ताओं में मालवीय जी का नाम प्रमुखता से लिया जाने लगा था. हिन्दू धर्मोपदेश, मन्त्रदीक्षा और सनातन धर्म प्रदीप आदि ग्रथों में उनके धार्मिक विचार भावी पीढ़ियों के लिए आज भी प्रेरणास्पद हैं. उनके द्वारा बड़ी कौंसिल में ‘रौलट बिल’ के विरोध में निरन्तर साढ़े चार घण्टे और ‘अपराध निर्मोचन बिल’ पर पाँच घण्टे तक निर्भयता पूर्ण दिए गए भाषण आज भी याद किए जाते हैं. मालवीय जी के भाषणों में हृदय को स्पर्श करके द्रवित कर देने की अद्भुत क्षमता होती थी,परन्तु वे अविवेकपूर्ण कार्य के लिये श्रोताओं को उकसाते कभी नहीं थे.
लाहौर में 28 जून 1933 को दिए उनके एक भाषण में उन्होंने स्वयं कहा था कि “स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रथम कदम हिन्दू तथा मुसलमानों की एकता का होना है. मैं धर्म में विश्वास रखता हूं. जब कभी भी मैं मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों के सामने से गुजरता हूं, तो स्वाभाविक रुप से मेरा मस्तक झुक जाता है.”
मालवीय जी के असाधारण व्यक्तित्व का आधुनिक भारत की राजनीति, समाज, शिक्षा तथा संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा है. एक सामाजिक चिंतक होने के नाते मालवीय जी अपने चिंतन और लेखन को समाजसेवा का मुख्य माध्यम मानते थे. उन्होंने हिन्दी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ का अनेक वर्षों तक सम्पादन किया. कुछ समय तक वे ‘द इण्डियन यूनियन’ पत्र के भी सम्पादक रहे. उन्होंने ‘अभ्युदय’ नामक एक हिन्दी साप्ताहिक की भी स्थापना की. ‘कल्याण’ नामक धार्मिक पत्रिका में मालवीय जी के असंख्य लेख उनके धार्मिक विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे भारतीय समाज को धर्ममय और आस्थामय देखना चाहते थे. इसके अलावा मालवीय जी ने ‘मर्यादा’,’ सनातन धर्म’, ‘हिन्दुस्तान रिव्यु’, ‘स्वराज्य’ तथा ‘इण्डियन पीपल’ जैसी तत्कालीन उत्कृष्ट पत्रिकाओं, समाचार पत्रों में प्रकाशित अपने लेखों के माध्यम से धर्म, दर्शन,समाज राजनीति, इतिहास,साहित्य, और संस्कृति के आधुनिक मूल्यों को एक नवीन चिंतन दिया है.
पंडित मदनमोहन मालवीय जी की जीवन पर्यंत की गई राष्ट्रीय और सामाजिक सेवाओंका चिरस्थायी स्मारक बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय है. प्रारम्भ से ही उनका स्वप्न था कि एक ऐसा शुभ दिन आए जब भारतीय युवावर्ग को उच्चशिक्षा के लिए विदेश न जाना पड़े. वे यह देखकर भी द्रवित होते थे कि अन्य धर्मावलम्बी अपने धर्म के विषय में जो ज्ञान रखते हैं, हिन्दू विद्यार्थी अपनी समृद्ध संस्कृति के विषय में उतना ज्ञान नहीं रखते. ऐसे महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारतीय भी अपनी समृद्धशाली संस्कृति की अस्मिता से परिचत हो सकें, इसी उद्देश्य से मालवीय जी ने बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए अथक परिश्रम किया. देश के कोने कोने से सहायता और धनराशि जोड़ने के लिए इस महापुरुष ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.
कांग्रेस के नीति निर्धारक नेताओं में मालवीय जी की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही थी. सन्1886 में कलकत्ता के द्वितीय अधिवेशन से लेकर अपनी अन्तिम साँस तक उन्होंने कांग्रेस पार्टी में रहकर स्वराज्य प्राप्ति के लिये कठोर संघर्ष किया. कांग्रेस के नरम और गरम दलों के बीच की कड़ी मालवीय जी ही होते थे. वे गांधी युग की कांग्रेस में हिन्दू-मुसलमानों एवं उसके विभिन्न मतों में सामंजस्य स्थापित करने में सदैव प्रयत्नशील रहे.
मालवीय जी ने “गौरक्षा संघ” की स्थापना भी की थी. वे सनातन धर्म सभा, हिन्दू महा सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन इत्यादि अनेक संस्थाओं के बहुमुखी नेता, संचालक और सूत्रधार थे. सन् 1932 में जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेमजे मैकडानल्ड ने साम्प्रदायिक निर्णय दिया,तब मालवीय जी ने इसका मुखर विरोध किया. कई बार उनके धार्मिक विचारों को साम्प्रदायिकता के नजरिए से भी देखा गया. लेकिन वास्तव में वे एक राष्ट्रवादी और सच्चे देशभक्त और सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव रखते थे. लाहौर में 28 जून 1933 को दिए उनके एक भाषण में उन्होंने स्वयं कहा था कि “स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रथम कदम हिन्दू तथा मुसलमानों की एकता का होना है. मैं धर्म में विश्वास रखता हूं. जब कभी भी मैं मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों के सामने से गुजरता हूं, तो स्वाभाविक रुप से मेरा मस्तक झुक जाता है.”
कांग्रेस के नीति निर्धारक नेताओं में मालवीय जी की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही थी. सन्1886 में कलकत्ता के द्वितीय अधिवेशन से लेकर अपनी अन्तिम साँस तक उन्होंने कांग्रेस पार्टी में रहकर स्वराज्य प्राप्ति के लिये कठोर संघर्ष किया. कांग्रेस के नरम और गरम दलों के बीच की कड़ी मालवीय जी ही होते थे. वे गांधी युग की कांग्रेस में हिन्दू-मुसलमानों एवं उसके विभिन्न मतों में सामंजस्य स्थापित करने में सदैव प्रयत्नशील रहे. एनी बेसेंट ने ठीक ही कहा था कि “मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि विभिन्न मतों के बीच, केवल मालवीयजी भारतीय एकता की मूर्ति बने खड़े हुए हैं.” कांग्रेस ने उन्हें चार बार सभापति निर्वाचित करके सम्मानित किया. फैजपुर कांग्रेस (1936) में राष्ट्रीय सरकार और चुनाव प्रस्ताव के समर्थन में मालवीय जी के कहे गए ये शब्द स्मरणीय हैं- “मैं पचास वर्ष से कांग्रेस के साथ हूँ. सम्भव है मैं बहुत दिन न जियूँ और अपने जी में यह कसक लेकर मरूँ कि भारत अब भी पराधीन है किंतु फिर भी मैं यह आशा करता हूँ कि मैं इस भारत को स्वतंत्र देख सकूँगा.”
मैं पितृपक्ष के इस पावन अवसर पर पुण्यात्मा महामना मदन मोहन मालवीय जी को नमन करते हुए उनकी पितृपरम्परा का भी हार्दिक अभिवंदन और कोटि-कोटि नमन करता हूं जिनके पुण्यप्रताप से हमारे देश को महामना जैसा एक राष्ट्रभक्त नेता, स्वतंत्रता सेनानी धर्म संरक्षक और हिन्दू धर्म और संस्कृति का महान विचारक मिला.
मालवीय जी का समस्त जीवन भारतवर्ष, सनातन धर्म और हिन्दू धर्म संस्कृति की सेवा में ही बीता.अंततः सन् 1946 में भारत के महाप्राण,धर्म के स्तम्भ और हिन्दू धर्म की आत्मा पंडित मदनमोहन मालवीय जी स्वर्ग सिधार गए.
मैं पितृपक्ष के इस पावन अवसर पर पुण्यात्मा महामना मदन मोहन मालवीय जी को नमन करते हुए उनकी पितृपरम्परा का भी हार्दिक अभिवंदन और कोटि-कोटि नमन करता हूं जिनके पुण्यप्रताप से हमारे देश को महामना जैसा एक राष्ट्रभक्त नेता, स्वतंत्रता सेनानी धर्म संरक्षक और हिन्दू धर्म और संस्कृति का महान विचारक मिला.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)